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मेरे पुष्कर गुरुवर......
करूँ तुझसे यही अरदास...
रख दो सिर पर दया का हाथ...
रूंधे दिल से पुकारूँ तेरा नाम...
बस मुश्किल घड़ी में रहो मेरे साथ...!!
@kp@
*🙌अपना तो है ही गुरु पुष्कर🙌*
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क्या #जैन समाज के कर्णधार उठायेगें यह क़दम????
👉 जैन धर्म की घटती आबादी एक चिन्त्नय बिंदु
👌जैन धर्म मे ब्रह्मचर्य पालन का महत्व लिखा है, ब्रह्मचर्य पालन करना ही चाहिए।
परन्तु यदि आप भोग भी करते हो, और फिर सन्तोति (बच्चे) न हो व आने वाले पुण्यशाली जीव को इस मनुष्य भव को प्राप्त करने से रोकने के लिए अनैतिक साधनों का उपयोग करते है, तो यह एक तरह से पाप है।
किआ मालूम अपने किसी तीर्थंकर के जीव को या संयमी के जीव को या पुण्यशाली के जीव को इस दुनिया मे आने से रोकने का पाप कर दिया हो।
भगवान आदिनाथ के 100 लड़के ओर बेटियां भी थी, परन्तु जब आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर साधु बने तो मोक्ष सुख के प्राप्त कर प्रथम तीर्थंकर बने, यदि आपको सन्तोति नही करनी या बच्चे नही चाहिए तो आपको भोग नही करना चाहिए, यानी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
इस धरती पर जिसका भी जन्म होता है, उसका पालन करता आप नही बल्कि उसकी किस्मत, यानी उसकी पुण्याई है, यदि उसकी पुण्याई में वो राजा है, तो उसे कोई राजा बनने से रोक नही सकता, और उसकी पुण्याई में राजा के घर पैदा होने के बाद भी भटकना लिखा है, तो आप उसे राजा बना नही सकते। इसका सीधा साधा उदाहरण आदरणीय मोदीजी व अब्दुल कलाम आजाद जो साधारण परिवार से है, जो एक ही पिता के अनेको सन्तान मेसे है और मोदी जी को प्रधानमंत्री ओर कलामजी को राष्ट्रपति, बाकी सब भाई आम नागरिक,
ओर गहराई में जाना है तो सुरसुन्दरी ओर मयनासुन्दरी का चरित्र पढ़ ले, ओर यह गमढ़ कि में अपने बच्चो का पालन हारा में ही हु, ज्यादा बच्चे हुए तो उनका भरण पोषण कैसे होगा, से मुक्त हो जाए, एक बाप के चार बेटे चारो की किस्मत अलग अलग होती है। माता पिता तो निमित मात्र है, वरना वो कभी अपने परिवार में इतनी भिनता नही रखते,
जैन धर्म की घटती जनसंख्या पर विचार करे, एक समय इस आर्य व्रत में जैनों की संख्या अरबो खरबो में थी, ओर आज इस भरत क्षेत्र में पूरे 1 करोड़ भी नही है।
भोग भी करना और सन्तोति को रोकना यह भी एक कारण तो नही है, गटति जैन आबादी का?? आज के युग मे यह विचरण्य बिंदु है।
माना की ब्रह्मचर्य पालन ही धर्म है, पर इसका गलत अर्थ यह निकलना की भोग करना ओर सन्तोति रोकना से धर्म है, तो यह गलत ओर पाप है।
यदि सन्तोति रोकने का एक मात्र साधन ब्रह्मचर्य का पालन है समज लिया जाता है, तो इससे आज कल जो युवाओं में बढ़ते फेसन की तरह व्यभिचार जो शादी से पहले ही भोग तो उस पर भी रोक लग सकती है, यदी किसी कारण सर नव युगल की शादी नही होती है तो, ब्रह्मचर्य पालन से उसका सील सुरिक्षत रह सकता है।
पर पत्नी या अन्य से अनैतिक भोग की पार्वती पर भी रोक लग सकती है।
बलात्कार, छोटी छोटी बातों में तलाक पर भी काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
अनैतिक साधनों से सन्तोति रोकने से बेहतर है आप ब्रह्मचर्य व्रत धारण करे।
भ्रूण हत्या को रोक कर भ्रूण हत्या के पाप से भी मुक्ति पाई
एक कारण यह भी की आप जहा रहते है उस क्षेत्र में आप आपस मे भी इतने मत भेद, जैसे दसा, वीसा, मारवाड़ पट्टी गोडवाड़ पट्टी मेवाड़ी, गुजराती, ओसवाल पोरवाल छोटा साजन बड़ा साजन, न जाने कितने भेद मन मे बना कर रख लिए, आप अपने इच्छित परिवार से समंध करने की इच्छा के चक्र में कही बार अपने बच्चो की उम्र हो जाती है, ओर वो इंतजार नही कर पाते और अन्य धर्मावलम्बईओ के साथ समंध बना बेठते है वहा न जिन मन्दिर न माहावीर की अहिंसा, ओर न परमात्मा की वाणी इन सब से अपने बच्चे वंचित हो जाते है, । ओर यह भी हमारी आबादी कम करने में एक रोग की तरह काम कर रहा है, इस विषय मे भी हमे गहराई से विचार करना चाहिए, इस विषय पर "जैन जयति महोदय"में बहुत ही अच्छे से लिखा गया है, उसे पढ़ने से भी लाभ प्राप्त हो सकता है
जिन आज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो माफ करें||
इस पोस्ट को पसन्द आए तो बिना काट छाट के सभी अपने भाइयो तक पहुचाए, ओर ब्रह्मचर्य पालन का महत्व बताते हुए भी घटती आबादी की तरफ भी उनका ध्यान आकर्षित कर जैन धर्म को सिर्फ इतिहास बनने से रोके, आपका एक प्रयास आगे जाकर सो जन ओर आगे हजारो लाखो तक यह प्रयास कर जिनशासन में अनैतिक साधन के उपयोग से भोग पार्वती को रोक लगवाए, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले पुण्यशाली को देवता भी नमन करते है
मिच्छामी दूककडम🙏
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भरत गुलेच्छा पाली का सदर जय जिनेन्द्र
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स्थानकवासी परम्परा
जैनधर्म मे वर्तमान में मुख्य रूप से कितनी परम्पराएं है?
4 - स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथ (ये तीनो श्वेतांबर) और दिगम्बर ।
भगवान के समय मे तो एक ही प्रकार के साधु साध्वी रहते होंगे पर आजकल तो अनेक प्रकार के दिखते है । इसका क्या कारण है?
हाँ, भगवान के समय सब साधु एक जैसे थे । परंतु काल के प्रभाव से उनमे मतभेद होते गए । उसके मुख्य कारण है - छद्मस्थता के कारण पूर्ण सही ज्ञान नहीं होना, मान आदि कषाय, आचार में शिथिलता, सुखशिलियापन आदि ।
कौनसा मत सच्चा है और कौनसा झूठा इसका पता कैसे करे?
भगवान तो आज नही है पर उनकी वाणी आगम के रूप में मौजूद है उसको पढ़कर फैसला कर सकते है कि कौनसा मत सही है और कौनसा सही नही है ।
भगवान तो दिगंबर थे फिर उनके संत कपड़े कैसे पहन सकते है?
भगवान दिगंबर थे पर उनके भी कंधों पर वस्त्र रखा गया था यह इस बात का प्रमाण था कि भगवान के शासन में वस्त्रधारी मुनि होंगे
इनके अलावा कई आगमो में भगवान के समय के साधु साध्वियों के वस्त्रों के बारे में वर्णन और विधान आये है अमुक हाथ से ज्यादा कपड़ा नही वापरना, प्रतिलेखना करना, कपड़ा कैसे सुखाना ये सब विधियां वस्त्र होंगे तो ही बनेगी वरना इन सब का क्या अर्थ रहा । इस पर से यह सिद्ध होता है कि भगवान के समय मे भी साधु वस्त्र पहनते थे ।
क्या वस्त्र पहनने वाले साधु मोक्ष में जा सकते है?
मोक्ष में जीव अपनी साधना से जाता है, उसमे कपड़े का कोई आग्रह नहीं । साधु दो प्रकार के बताए है - वस्त्रधारी और निर्वस्त्र । दोनों तरह के साधु मोक्ष में जा सकते है । निर्वस्त्र साधु मुख्यतः जिनकल्पी होते थे जो एकांत में वन, गुफाओ आदि में कठोर साधना करते थे । वर्तमान में जिनकल्प का विच्छेद हो गया है । स्थविरकल्पी साधु समूह में रहकर परस्पर एक-दूसरों के सहयोग से साधना मार्ग पर आगे बढ़ते है ।
क्या स्त्री मोक्ष में जा सकती है?
हाँ । पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में स्त्रीलिंग सिद्ध भी बताए है । सती चन्दनबाला आदि इसके उदाहरण है ।
वर्तमान में जिनशासन का आधार क्या है?
आगम ।
वर्तमान में आगम जिनशासन के आधार क्यो है?
जैनधर्म कोई मनःकल्पित मत नहीं है । सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कहा हुआ धर्म होने से यह पूर्णतः सत्य और शंका से रहित है । वर्तमान में सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवान भी नही है, पूर्वो के ज्ञाता विशिष्ट श्रुतकेवली भी नहीं है । उन सर्वज्ञ भगवान की कही हुई वाणी आगमों (जैन धर्म के शास्त्रों जो आगम कहते है) में संकलित है । इसलिए जैन धर्म का आधार आगम है ।
वर्तमान में प्रमाणिक आगम कितने है?
45 है । जिन में से स्थानकवासी 32 को ही मानते है ।
स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ कब हुआ?
किन 5 क्रियोद्धारकों की शिष्य परम्परा स्थानकवासी परम्परा कहलाई?
पूज्य श्री जीवराज जी म.सा.
पूज्य श्री लवजी ऋषि म.सा.
पूज्य श्री धर्मसिंहजी म.सा.
पूज्य श्री धर्मदासजी म.सा.
पूज्य श्री हरजीऋषि म.सा.
स्थानकवासी साधुओं को ढूंढिया महाराज ऐसा क्यों कहा जाता था?
पुराने जमाने मे कई बार साधु संतों को जुने पुराने मकानों (खण्डहरों) में ठहरने का प्रसंग बनता था बोलचाल की भाषा मे उस जगह को ढूंढा कहा जाता था, उन ढूंढो में ठहरने के कारण ढूंढिया नाम प्रचलित हो गया ।
कई विरोधियों ने भी इस नाम से पुकारना शुरू किया क्योंकि ढूंढा शब्द भुंडा (यानी खराब) शब्द जैसा है इसलिए चिढ़ाने के लिए ये शब्द इस्तेमाल किया पर महापुरुषों ने इसको भी समझकर लिया और खुद को ही / शुद्ध धर्म को ढूंढने की बात मानकर इस शब्द को सहज स्वीकार कर लिया ।
22 टोला या 22 संप्रदाय क्या होता है?
आज स्थानाकवासी जैनों की अधिकांश परंपराएं पूज्य युगप्रधान आचार्य श्री धर्मदासजी म.सा. की है, पूज्य म सा के 99 शिष्य 22 टोलो (समूहों) में धर्मप्रचार हेतु अलग अलग प्रान्तों में पधारे थे उन्ही के नाम से 22 टोला या 22 सम्प्रदाय नाम प्रचलित हो गया है (हांलाकि कुछ परम्पराये 22 सम्प्रदाय की नही भी है पर एकता की दृष्टि से वे भी खुद को 22 सम्प्रदाय ही कहते है) ।
वर्तमान में ये सभी सम्प्रदायें किस सर्वमान्य नाम से जानी जाती है?
स्थानकवासी परम्परा ।
क्रियोद्धार का अर्थ क्या है? यह क्यों किया जाता है?
जब धर्म-संघ में सिद्धांत या आचार सम्बन्धी शिथिलताएँ आई तब कुछ महापुरुषों ने पुनः धर्म के शुद्ध स्वरूप को प्रचारित करने के लिए, सत्य धर्म की रक्षा के लिए अनेक उपसर्ग (यहां तक कि मारणान्तिक कष्ट) सहन करके सद्धर्म की रक्षा की । उनके इस महान पुरुषार्थ को “क्रियोद्धार” कहते है ।
इन महापुरुषों को क्रियोद्धार की जरूरत क्यों पड़ी?
भगवान के निर्वाण के अनेक वर्षों बाद कई बार 12 वर्षीय दुष्काल पड़े जिसमें जिनशासन को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । उस समय अधिकांश शुद्ध संयमी मुनियों ने तो संथारे किये और कई साधुओ ने दूर दूर विचरण कर शुद्ध संयम पालन किया । ऐसे समय मे कुछ साधुओं (?) ने एक स्थान(चेत्य) में रहना, छत्र धारण करना, पालखी में बैठना, स्वयं के लिए बनाया हुआ आहार ग्रहण करना आदि जिनाज्ञा विरूद्ध कार्य करना प्रारम्भ कर दिया । वे यति कहलाते थे । धीरे धीरे ऐसे साधु हजारो की संख्या में हो गए और शुद्ध संयमी साधू बहुत कम बचे । जो थोड़े-बहुत थे वो भी जन-सम्पर्क से दूर रहकर आत्महित की साधना में लीन रहते थे । ऐसे समय में लोंकाशाह आदि ने आगम के अध्ययन से शुद्ध धर्म को जानकर पुनः उसको स्थापित करने का संकल्प लिया । वे मुख्य सुधारक छः हुए - 1. लोंकाशाह एवं उत्तर 12 में बताए गए 5 महापुरुष ।
वे क्रियोद्धारक हमारे लिए महान उपकारी क्यों है?
क्योंकि आज हमें प्रभु महावीर देव का धर्म फिर से उसी रूप में मिल गया, ये उन महापुरुषों का ही उपकार है । इसके लिए उन्हें बहुत उपसर्ग सहन करने पड़े । उस समय यतियों का विशेष प्रभाव था । वे यति लोग मंत्र-तंत्र आदि विद्याओ के जानकार थे (हालांकि इन मुनियों के शुद्ध संयम के तेज से कई बार उनके मंत्रबल भी फीके पड़ गए) । उन यतियों का राजाओ पर प्रभाव था । वे राजाओं को कहकर स्थानकवासी मुनियों का राज्य में प्रवेश बन्द करवा देते थे । कई प्रकार के शारीरिक उपसर्ग देते थे । विद्वेषी लोग गोचरी में जहर मिला देते है । ऐसे समय में भी ये महापुरुष समभाव से कष्टो को सहन करते हुए धर्म के प्रति दृढ़ रहे और विचरण करते हुए जन-जन को धर्म का सही स्वरूप समझाया। उन्हीं की कृपा आज हमें सहजता से यह धर्म-परम्परा प्राप्त हो गई है । अब हमारा कर्त्तव्य है कि हम मिथ्या प्रवृत्तियों से दूर रहकर अपनी परम्परा के प्रति दृढ़ रहे ।
स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएं बताइये ।
स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएं:-
मूल आगम ही प्रमाणभूत - तीर्थंकर भगवान, गणधर और 10 पूर्व से 14 पूर्व तक के ज्ञान वाले एकांत सम्यग्दृष्टि होते है इसलिए वे सत्य प्ररूपणा ही करते है । अप्रमत्तता के कारण उनसे असावधानी से भी गलत प्ररूपणा नहीं होती पर इससे कम ज्ञान वालो से हो सकती है । इसलिए स्थानकवासी परम्परा इनके द्वारा रचित मूल आगमों को ही आगम मानती । बाद के आचार्यो द्वारा लिखित ग्रन्थों में जो बात आगम-सम्मत हो उसे ही स्वीकार करते है, आगम-विरुद्ध बातों को नहीं ।
सावद्ययोग का त्याग ही धर्मतीर्थ है - सावद्य (हिंसा) का त्याग ही धर्म है । धर्म या मोक्ष के नाम पर की जाने वाली हिंसा भी जिनशासन में मान्य नहीं है । सभी जीवों को अपने जैसा मानो - यही जैन शासन का उदघोष है । फूल, अगरबत्ती आदि में हिंसा हैं और जहां हिंसा है वहां धर्म नहीं है । जो सावद्ययोग के त्यागी है वही वन्दनीय ओर पूज्यनिय है ।
जड़ पदार्थ पूजनीय नहीं - मूर्ति आदि जड़ पदार्थों में भगवददशा तो ठीक है सावद्ययोग का त्याग भी नहीं होता । किसी भी मुनि या श्रावक ने जिनपूजा, प्राण-प्रतिष्ठा आदि की हो, ऐसा आगम में कही उल्लेख नहीं है ।
शुभभाव के निमित्त पूज्य नहीं - शुभ भाव आदरणीय है पर उनके निमित्त पूजनीय नही है । जैसे नमिराजर्षि को कंगन के निमित्त से वैराग्य (शुभ भाव) आये तो हम कंगन की पूजा नही करते है । किसी को चोर को देखकर वैराग्य आ गया तो चोर पूजनीय नही हो गया । ऐसे (मान लो कभी) फ़ोटो आदि को देखकर शुभभाव आ भी गए तो भी वे पूजनीय नहीं है ।
उपकार के लिए पाप सेव्य नहीं - जीव दया, धर्म आदि के नाम पर पाप का सेवन करना आगम सम्मत नहीं है । उपकार के लियों व्रतों में दोष लगाना - ये आत्मसाधना में घातक है ।
क्षेत्र पवित्र नहीं - कोई क्षेत्र पवित्र या अपवित्र नहीं होता । क्षेत्र में पवित्रता का आरोपण करने से अनेक मिथ्या मान्यताओं का जन्म होता है । क्षेत्रों को पूज्य मानकर अनेक आरंभ समारंभ के कार्य होते है । क्षेत्रो पर सामूहिक अधिकार जमाने की भावना होती है ।
सचेल-अचेल दोंनो प्रकार का आचार - वस्त्र पहनने वाले और न पहनने वाले दोनों प्रकार के साधु हो सकते है । और मोक्ष में जा सकते है । वर्तमान युग मे स्वस्त्र साधुता ही उचित लगती है ।
होम-हवन नहीं - तीर्थंकर भगवान के धर्म में होम, हवन, धूप दीप, नैवेद्य आदि किसी का भी स्थान नहीं हैं । ये सावद्य क्रियाएँ है ।
मुखवस्त्रिका - मुख वस्त्रिका मुख पर बांधे बिना यतना पूर्णतः नहीं हो सकती ।
श्रावकों का शास्त्र पठन - श्रावक भी आगम पढ़ सकते है । आगमो में श्रावकों को निर्ग्रन्थ प्रवचन का कुशल जानकार कहा है ।
थोक ज्ञान - आगमों के गहन आशय को सरलता से हृदयस्थ करने के लिए उन्हें “थोकड़ो” के रूप में हिंदी भाषा मे संकलन करके ज्ञानाराधना का विशेष प्रचार हुआ है ।
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क्या यही हैं हमारा उच्च कोटि का जैन समाज.????
यह हमारे जैन समाज का आईना हैं कि हम इतने उच्च-शिक्षित औंर सुसंस्कारी होते हुए भी कही पर मिल रही प्रभावना के लिए कितनी असभ्यता औंर अशिष्टता का प्रदर्शन करते हैं, औंर खासकर महिलाऐ इसमे कुछ ज्यादा ही आगे रहती हैं.
हजारो औंर लाखो रुपयो के चढ़ावे बोलने वाले परिवार की महिलाओं को अक्सर दस-बीस रुपयें की प्रभावना के लिए धक्का-मुक्की करते हुऐ देखा जाता हैं.
क्या यही हैं हमारा उच्च कोंटि का जैंन समाज.
सभी को सुख देने की क्षमता भले ही आप के हाथ में न हो...!
किन्तु किसी को दुख न पहुँचे यह तो आप के हाथ में ही है..*!!
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यह जो दीवार से पीठ लगाये बैठे हैं इनका नाम है डॉ शंकर गोवडा!
रहते हैं कर्णाटक के मंड्या नामक जगह में! इनकी ख़ास बात ये हैं की ये त्वचा रोग के डॉ हैं और अपने मरीजो से फीस के नाम पर मात्र 5 रुपये लेते हैं!
प्रतिष्ठित कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से MBBS ग्रेजुऐट शंकर गोवड़ा का अपना कोई क्लिनिक भी नहीं, एक मित्र की दूकान के बगल में थोड़ी सी जगह में बैठे मिलते हैं डॉ साहब!
सबसे बड़ी बात यह है कि यह जो दवायें लिखते हैं वो सस्ती और असरकारक होती हैं ।
आज के दौर में जहाँ डॉक्टर्स के नाम से ही सैंकड़ों हज़ारों रुपयो के खर्च का ख्याल आता हो, एक मसीहा बेलौस ग़रीबों के लिये काम कर रहा है ।
इनकी इस ख़िदमत और जज़्बे को सलाम ।।
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मधुर मिलन
श्रमण संघीय प्रवर्तक डॉ राजेंद्र मुनि जी महाराज एवं दिगंबर संप्रदाय के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी संत श्री तरुण सागर जी महाराज का अशोक विहार दिल्ली में (12/6/2018) हुआ सौहार्दपूर्ण मधुर मिलन।
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निशुल्क नेत्र ऑपरेशन
गुरु पुष्कर जैन सेवा संस्थान (जसवन्त गढ़)
द्वारा अब प्रति माह की 10 तारीख को जसवन्त गढ़ में नेत्र जाँच के शिविर का आयोजन होता है। इसी क्रम में 10/06/2018 को जसवन्त गढ़ में 23 पेशेंट की opd हुई जिसमें से 12 पेशेंट को सेवा वाहिनी द्वारा बीसलपुर ले जाया गया जिसमें से 10 लोगो के निशुल्क नेत्र ऑपरेशन आज हो गए है बाकी 2 को दवाई दी गई है।
सेवा वाहिनी अटल ग्रुप सूरत द्वारा संस्थान को भेट स्वरूप दी गई है ।
हर माह की 10 तारीख से 3दिन तक सेवा देने वाले सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं को खूब खूब धन्यवाद आभार।
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