21.05.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 21.05.2018
Updated: 22.05.2018

News in Hindi

💠➿💠➿➿💠➿💠
🌼❄ *अणुव्रत* ❄🌼

🎗 *संपादक* 🎗
श्री अशोक संचेती

🏮 *मई अंक* 🏮

🗯 पढिये 🗯

*अणुव्रत कहिन!*
स्तम्भ के अंतर्गत
🍥
*मुनि मोहनलाल 'शार्दूल'*
और
*सुमित्रानंदन पंत*
की
भावपूर्ण कविताएं
🍥
*संयमः खलु जीवनम्*
और
*मैं नहीं चाहता*
🍥
🔅प्रेषक 🔅
*अणुव्रत सोशल मीडिया*

🔅संप्रसारक🔅
🌻 *संघ संवाद* 🌻
💠➿💠➿➿💠➿💠

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👉 चलथाण (सूरत) - तेरापंथ भवन उद्घाटन समारोह
👉 सूरत - महिला मंडल की गुजरात के मुख्यमंत्री श्री रुपाणी से मुलाकात
👉 जलगांव - शपथ ग्रहण समारोह

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🌈 *दिल्ली* (रोहिणी): *अणुव्रत महासमिति* की *द्वितीय कार्यसमिति बैठक का शुभारंभ*
✨ *सान्निध्य: समणी नियोजिका समणी चेतन्यप्रज्ञा जी*
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🌈 *दिल्ली* (रोहिणी): *अणुव्रत महासमिति की द्वितीय कार्यसमिति बैठक* से पूर्व ✨ *"प्रबंध मण्डल"* की *द्वितीय बैठक* का *आयोजन*..
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 154* 📝

*आनंदचंद भाई वकीलवाला*

*बम्बई में*

आनंदचंद भाई वकीलवाला सूरत निवासी सवाईचंद भाई के पुत्र थे। उनका जन्म 1895 के लगभग अनुमानित है। वे चार भाइयों में तृतीय थे। तीन अन्य भाइयों के नाम उत्तमचंद भाई, डाह्या भाई और कपूरचंद भाई थे। दूसरे नंबर के भाई डाह्या भाई स्वयं भी वकील थे। वे अपने समय के काफी प्रसिद्ध वकील थे। तभी से उस पूरे परिवार को 'वकीलवाला' कहा जाने लगा। आनंदचंद भाई को संक्षेप में आनंदभाई भी कहा जाता था। उनके दो पुत्र थे नगीन भाई और कपूरचंद भाई। उनका जन्म क्रमशः सम्वत् 1916 और सम्वत् 1918 में हुआ था। आनंदभाई जवाहरात का कार्य करते थे। उसी कार्य में बीच-बीच में बम्बई जाते रहते थे। धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। जहां भी जाते सामायिक आदि दैनिक धर्म कृत्यों में निर्णीत समय लगाया करते थे। उस समय बम्बई के कुछ व्यक्तियों ने मिलकर अपने धार्मिक कार्यों के लिए 'मुंबई साबरकांठा हिंदू लॉज' नामक मकान में छह रुपए मासिक किराए पर एक कमरा ले रखा था। वह मकान सुप्रसिद्ध मुंबादेवी मंदिर के तालाब के किनारे बना हुआ था। अनेक स्थानीय व्यक्ति वहां प्रतिदिन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रिया करते थे। आनंदभाई जी बम्बई जाते तब सामायिक करने के लिए वहीं जाते।

*दर्शन की उत्सुकता*

जयपुर निवासी लक्ष्मणदास जी खारड़ सांसारिक पक्ष से तेरापंथ के षष्ठाचार्य माणकगणी के बाबा थे। समय-समय पर वे जवाहरात के कार्य में बम्बई जाया करते थे। उसी कार्य में उनका आनंदभाई से परिचय हुआ। धीरे-धीरे वही परिचय मित्रता में बदल गया। आनंदभाई के कथन से वे भी सामायिक करने के लिए उसी स्थान पर जाने लगे। वे एक अच्छे तत्त्वज्ञ श्रावक थे। स्वामीजी की अनेक ढालें तथा तत्त्वज्ञान के अनेक थोकड़े उनके कंठस्थ थे। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उन्हें धर्म चर्चा करने में अत्यंत आनंदानुभूति हुआ करती थी। वे वहां सामायिक करते समय धर्म चर्चा भी किया करते। परस्पर खूब प्रश्नोत्तर और जिज्ञासाएं चलतीं। अनेक व्यक्ति उससे प्रभावित हुए। उनमें सूरत निवासी आनंदचंद-सवाईचंद, नगीनदास-ताराचंद, प्रेमचंद-विमलचंद तथा पाटण निवासी शोभाचंद-दौलतचंद आदि मुख्य थे। खारड़जी उनके सम्मुख धर्म, दया, दान, व्रत-अव्रत एवं सावद्य-निरवद्य आदि विषयों पर तात्त्विक चर्चा करते। साधुचर्या, तेरापंथ, स्वामी भीखणजी एवं उस समय विद्यमान तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य के विषय में भी बतलाते रहते। उन बातों से उन लोगों के मन में तेरापंथ के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। उनमें से कुछ व्यक्तियों के मन में जयाचार्य के दर्शनों की उत्सुकता उत्पन्न हुई। उन्होंने लक्ष्मणदासजी से मार्ग के विषय में जानकारी प्राप्त की। जयाचार्य उन दिनों थली में विहार कर रहे थे। अतः लाडनूं तक के मार्ग की एक स्थूल रूपरेखा उन्हें लिखा दी गई।

*आनंदचंद भाई व जयाचार्य के दर्शनार्थ उत्सुक उनके साथी थली में जयाचार्य के पास कैसे पहुँचे...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगें... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 330* 📝

*सिद्ध-व्याख्याता आचार्य सिद्धर्षि*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

प्रबंधकोश के अनुसार श्रीमालपुर के धनी श्रेष्ठी जैन उपासक ने द्यूतव्यसनी में युवा सिद्धार्थ के ऋण को झुका कर उसे द्यूतकारों की मंडली से मुक्त किया। घर ले जाकर भोजन करवाया, पढ़ा-लिखाकर उसे सब तरह से योग्य बनाया और उसका विवाह भी किया।

बालक सिद्ध के पिता नहीं थे। माता के संरक्षण का दायित्व भी उस पर था। श्रेष्ठी के सहयोग से विपुल संपत्ति उसके पास हो गई।

राजपुत्र सिद्ध श्रेष्ठी के घर रात्रि देर तक लेखन आदि का काम कर लौटता था। इससे उसकी पत्नी एवं माता दोनों अप्रसन्न थीं।

एक दिन की घटना है। रात्रि में अत्यधिक देर से लौटने के कारण माता और पत्नी ने द्वार नहीं खोले। तब वह किसी एक आपण (दुकान) में स्थित आचार्य हरिभद्र के पास गया। उनसे बोध प्राप्त किया और वहीं दीक्षित भी हो गया। प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आचार्य सिद्धर्षि के दीक्षा गुरु आचार्य हरिभद्र थे। जैन दर्शन का गंभीर अध्ययन कर आचार्य से सिद्धर्षि ने बौद्धों के पास बौद्ध दर्शन को पढ़ने का आदेश मांगा। आचार्य हरिभद्र जानते थे वहां जाने के बाद वह जैन धर्म से विचलित हो सकता है। उन्होंने सिद्धर्षि से कहा "शिष्य! 'तत्र मा गा' तुम वहां मत जाओ, वहां जाने से लाभ नहीं है। तुम्हारा मन निर्ग्रंथ धर्म से बदल जाएगा।"

मुनि सिद्धर्षि नम्र होकर बोले "युगान्तेऽपि नैवं स्यात्" युगांत में भी यह संभव नहीं है।

आचार्य हरिभद्र ने शिष्य सिद्धर्षि को मार्गदर्शन देते हुए कहा "मुने! संयोगवश तुम्हारा मन परिवर्तित हो जाए, जैन दर्शन के प्रति रुचि नहीं रहे और बौद्ध धर्म में प्रविष्ट होने का अवसर उपस्थित हो जाए, उससे पहले मेरे से एक बार जरूर आकर मिलना।"

सिद्धर्षि गुरु वचनों में बद्ध होकर वहां से चले। बौद्ध संस्थान में पहुंचकर उन्होंने बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन किया। जब उनके सम्मुख बौद्ध भिक्षुओं द्वारा आचार्य पद नियुक्ति का प्रश्न उपस्थित हुआ उस समय वचनबद्ध होने के कारण मुनि सिद्धर्षि ने जैन मुनियों से मिलने का विचार सबके सामने प्रस्तुत किया और वे वहां से चले, आचार्य हरिभद्र के पास पहुंचे।

सिद्धर्षि का आचार्य हरिभद्र के साथ शास्त्रार्थ हुआ। पराभव को प्राप्त कर वे जैन हो गए। पुनः बौद्धों के पास गए बौद्ध हो गए। इस प्रकार इक्कीस बार मुनि सिद्धर्षि ने जैन और बौद्ध धर्म के बीच आवृत्ति की। बाईसवीं बार आचार्य हरिभद्र ने सोचा पुनः-पुनः मिथ्यात्व प्राप्ति से एवं मिथ्याभिनिवेश में ही आयुष्य क्षीण हो जाने से सिद्धर्षि का भवभ्रमण वृद्धिंगत होगा। अतः इस बार शास्त्रार्थ न करके संस्कारों को सुदृढ़ करने के लिए आचार्य हरिभद्र ने उन्हें 'ललित विस्तरा' नामक वृत्ति ग्रंथ पढ़ने को दिया और वे स्वयं अन्यत्र चले गए। इस ग्रंथ को पढ़कर सिद्धर्षि बोध को प्राप्त हुए। इसके बाद कभी वे जैन दर्शन से दिग्भ्रान्त नहीं हुए। इस बात का उल्लेख करते हुए स्वयं सिद्धर्षि ने लिखा है—

*नमोस्तु हरिभद्र तस्मै प्रवरसूरये।*
*मदर्थंनिर्माता येन वृत्तिर्ललितविस्तरा।।*
*(प्रबंध चिंतामणि, पृष्ठ 1-7)*

*प्रभावक चरित्र के अनुसार सिद्धर्षि के गुरु कौन थे और उन्होंने उन्हें जैन धर्म में स्थापित करने के लिए क्या किया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 *"अहिंसा यात्रा"* के बढ़ते कदम..

👉 पूज्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ विहार करके "V. Dubacherla" पधारेंगे..

दिनांक: 21/05/2018

प्रस्तुति: 🙏🏻 *संघ संवाद* 🙏🏻

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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए

🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Sources

Sangh Samvad
SS
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Some texts contain  footnotes  and  glossary  entries. To distinguish between them, the links have different colors.
  1. Dubacherla
  2. अशोक
  3. आचार्य
  4. आचार्य महाप्रज्ञ
  5. गुजरात
  6. दर्शन
  7. भाव
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