17.05.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 17.05.2018
Updated: 22.05.2018

Update

Ascetic VidyaSagar Ji -He was initiated as a monk at the age of twenty-two by Acharya Gyansagar Ji, who belonged to the lineage of Acharya Shantisagar Ji, at Ajmer in 1968. He was elevated to the Acharya status in 1972.

भारत-भू पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संत कवि जन्म ले चुके हैं। उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है। इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है। जिसने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं। भगवान राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, हजरत मुहम्मदौर आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद्, मुनि योगिन्दु, शंकराचार्य, संत कबीर, दादू, नानक, बनारसीदास, द्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत करके सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है। उनके त्याग और संयम में, सिद्धांतों और वाणियों से आज भी सुख शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है। जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बैर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों, साधकों, संत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।

आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।

आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।

विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने, उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।

गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।

वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं।

आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलियाँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।

बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।

आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग 1 वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।

ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा - सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।

गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।

किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले - “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में “मूक माटी” महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है।

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‘Violence can’t bring peace' -Muni Pranamya SagarJi @ The Times of India / Speaking Tree

Qn • Recently Aligarh #MuslimUniversity witnessed violent clashes over a photo of Muhammad Ali #Jinnah, #Pakistan’s founder-leader. Surely violence cannot resolve conflict?

■ There is lack of equanimity in people; they are not in a harmonious state of mind.If a person is equanimous,then everybody is equal for him.He will have sama bhaav, equanimity, towards everybody. Religion is not required to reach such a state of mind. All religions say that we should first overcome internal enemies such as anger,pride,hatred and deceitfulness.These negative energies lie dormant in us and they come out on the flimsiest of pretexts.They could be triggered by a person,religion,community and these become a target of our negative emotions. Negative energy inside us needs an external cause to surface;externality becomes a pretext for it to find expression. This is ‘foreign’ energy and can be mitigated through yoga sadhana. It is foreign because it is not ours; it is not natural.Atman is absolutely pure; samskaras are created in us from our previous births;anger and hatred reside in us because we are caught in the cycle of birth and death.There is no control on the mind.The mind can be controlled by practising yoga sadhana.

Qn • Sages like you never tire of talking of peace, yet, incidents of violence reported in the media are on the rise.How can we deal with this?

■ Many people are still untouched by the philosophy of yoga and dhyana despite the fact that they listen to discourses and gain knowledge.The problem is that they don’t use that knowledge in a practical way.There are three types of people: the first category is those who don’t have knowledge and wisdom.Second are those who have knowledge,but don’t practise it in their lives.Third are those who have knowledge and wisdom; they can stay calm even in the midst of chaos.Violence is perpetuated by people who either don’t have the knowledge or are not practising it.


Qn • Has the rise of aggressive #Hindutva impacted Jainism in any manner?

■ If someone wants to be peaceful and in bliss, he will have to follow the path of peace. One can be from any religion, follow any sect,but to be peaceful, he will need to practise equanimity; the path to peace is through controlling our inner presence.An individual could be very aggressive, but to experience bliss, he will have to eventually walk the path of uttam kshama, forgiveness. Mahavira Swami gave us 10 dharmas and the first among them is forgiveness. Forgiveness doesn’t belong to any religion, it is universal. If we understand anekantavada - that promotes the respecting of multiple perspectives - we will be able to find solutions to terrorism, violence and peacefully resolve differences of opinion.All it requires is that we listen to the other person and accept that the other person is also being truthful, though in a different context.‘Not only I am true but the other person can also be truthful - this is anekantavada.’We accept someone only when we meet him and listen to him, give his views equal weightage.


Qn • If #anekantavada can provide solutions to global problems, why has it remained confined to a single, small community of Jains?

■ Most people consider the Jain religion as acharatmak, one that has strict codes of conduct,without understanding that it is actually vicharatmak, contemplative. A lot of people have moved away from it. Jain shravakas focus on codes of conduct when actually, they should first reflect on its main principles. A lot of people think that Jain principles are difficult to practise. To explode this myth, Jain teachers should focus on its reflective principles; a person’s behaviour is determined by his thoughts. A person doesn’t become Jain because he is born in a Jain family, his surname is Jain or he goes to a Jain temple.Anyone in this world, who overcomes his anger, lust, hatred and follows ahimsa, nonviolence, is in essence, a Jain. #Gandhiji was a Vaishnav, he practised ahimsa in a strong way. So we can say that by his karma, he was a Jain. In short, I would say that every person on the right path is a Jain.


Many tend to associate Jainism with vegetarianism and nothing more; the deeper philosophy is lost.

■ Jain dharma doesn’t say that we should force or impose rules on people. Jain dharma says that first of all, Jains should follow all rules and rituals of their religion. If we present exemplary behaviour, then gradually, more people will follow. Jainism is a process of self-improvement; it’s a method of self-enlightenment.The problem arises when people don’t practise the process that leads to self-enlightenment, yet they force others to follow it; that is when they move away from Jain principles. Forcing someone against their will is violence. Jainism means overcoming lust and hatred. Until we understand the real, intrinsic meaning of Jainism, we will only outwardly follow it. Jainism is about forgiveness and it encourages the practice of equanimity in all situations.When someone becomes forgiving, he is able to mitigate samskaras of past lives.Kshama bhava helps us in clearing out our karmic baggage and we move closer to the real nature of atman. The nature of atman is to know and see;there is no attachment,illusion,hate or arrogance. Arham Yoga practice is meant to bring people to this state of mind.Parmatman only knows and sees; these are his only responsibilities; He is omniscient. A perfect yogi rises above all things, good and bad.

We project our own feelings of anger on others, when we protest violently. But the protest loses its meaning when it turns violent, says Digambar Muni Pranamya Sagar to Sonal Srivastva.

Muni Pranamya Sagar is a disciple of Acharya Vidyasagarji. Please share if you admired article.

Source - https://www.speakingtree.in/article/violence-can-t-bring-peace

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#मंगल_मिलन • #पपौरा • संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के दर्शनार्थ अभी #आचार्यश्रीवसुनंदी जी मुनिराज ससंघ पधारे दोनो संघो का वात्सल्य मिलन हुआ पश्चात आचार्य वसुनंदी जी ने संत शिरोमणि विद्यासागराचार्य गुरुदेव की पद वन्दना की! दोनो आचार्य संघ पपौरा जिला टीकमगढ में विराजमान है #आचार्यविद्यासागर • #आचार्यविद्यानंद

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Update

#BigNews • *खास खबर*

आचार्यश्री विद्यासागर जी के दर्शनार्थ आज शाम को आचार्यश्री वसुनन्दी जी का मंगल आगमन पपौरा जी में #AcharyaVidyasagar • #AcharyaVasunandi

महामंत्री विजय जी तेवरैया ने आचार्य श्री वसुनंदी जी मुनिराज को श्रीफल भेंट कर पपोरा जी पाधारने का निवेदन किया..

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नालंदा (बिहार) में आयोजित योग शिविर में कुंडलपुर के पीठाधीश #रविंद्रकीर्ति स्वामी जी का का स्वागत करते हुए योग ऋषि बाबा रामदेव जी महाराज Ramdev Baba • #AryikaGyanmati

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पक्षीयो के लिए गोसले तैयार करते हुए... helping hands

1500 मिट्टी के बर्तनों को दीवारों में लगा कर बनाया जा रहा है पक्षीयो के गोसले, काफी चिड़िया आने लगी है गांवो व शहरों में चिड़िया लुप्त होने की कगार पर है, हमारा प्रयास है गौरया को अपना एक घर उपलब्ध हो ओर साथ में दाना पानी भी.....

@Ashok Kumar Kothari

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News in Hindi

शंका - आचार्य श्री ने जितनी भी मुनिदीक्षाएँ दीं, क्या उन्होंने कभी उन मुनियों से कोई अपेक्षा की?

समाधान - देखिए, मैंने तो देखा है कि उनको किसी से अपेक्षा नहीं, उन्हें खुद से अपेक्षा है। बल्कि जब भी वह किसी को मुनि दीक्षा देते हैं, हमेशा कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कुछ भी दे सकता था, दे दिया, अब अपना रास्ता तुम्हें खुद बनाना है। वह हमसे कभी अपेक्षा नहीं रखते। वह सदैव निरपेक्ष भाव से रहे। एक घटना मुझे। याद आ रही है। जब कुण्डलपुर में पहली बार गुरुदेव ने आर्यिका दीक्षा दी, सन् 1987 की बात है, आर्यिका दीक्षा देने के बाद आर्यिकाओं का पृथक् विहार हुआ। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि मैं दीक्षा दे दूंगा पर संघ में नही रखूँगा। गुरुदेव ने कभी भी आर्यिका संघों को स्थायी रूप से संघ में नहीं रखा। आवागमन होता रहता है, अलग बात है। जब वह सब चले गए, थोड़ा खाली-खाली लग रहा था। हम लोग बैठे थे, मूलाचार के स्वाध्याय की तैयारी थी तो हमने ऐसे ही चर्चा में कहा कि गुरुदेव आज खालीपन-सा लग रहा है। गुरुदेव ने सुनते ही कहा- प्रमाण सागर जी! "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" आचार्य कुन्दकुन्द की एक गाथा को उद्धृत करते हुए कहा- "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" निर्ग्रन्थ लिंग निरपेक्ष होता है। इसमें उलझो मत, अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करो, अपना जीवन आगे होगा। आपने कहा कि उनकी कोई अपेक्षा? मेरी दृष्टि में उनके अन्दर कोई अपेक्षा नहीं होती। केवल एक ही अपेक्षा होती है कि तुमने जिस मार्ग को अंगीकार किया है उसे अच्छे से सम्हालकर रखना और अपने जीवन में आगे बढ़ना, पीछे मत हटना

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