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Disputed Site @ Ayodhya -Hanuman Garhi @ Sita Ki Rasoi #TIMESOFINDIA -जब भारतीय पुरातत्व विभाग ने खुदाई ओर जाँच की तो वहाँ जैन धर्म से सम्बंधित रखने वाले छोटी मूर्तियाँ तथा सिक्के आदि चीज़ें प्राप्त हुई थी ओर आश्चर्य हैं की वह भगवान राम, सीता, लक्षमन, हनुमान आदि से सम्बंध रखने वाले कोई भी चीज़ प्राप्त नहीं हुए:) इससे कम से कम इतना कह सकते हैं जैन धर्म कितना पुराना हैं जो जितना पुराना उसकी उतना orginal & true होने की बात दम बढ़ जाता हैं:)) #Ayodhya #JainismAyodhya #AncientJainism #AntiquityofJainism
The figurine (छोटी मूर्ति) according to Lal, turned out to be the oldest Jain figurine found in India at the time. Keeping this key discovery of the Jain terracotta figurine in mind, coupled with the consideration that the antiquity of the Hanuman Garhi site and the disputed site at Ayodhya are the same, the question that now arises, is whether it is the Jains who can claim a˜first righta™ over Ayodhya?
Whatever may be the outcome, the fact remains that in the entire Ayodhya region where excavations have been undertaken by the ASI since 1975 a" at the disputed site, at Hanuman Garhi and Sita-ki-Rasoi a" despite the discovery of numerous coins and terracotta figurines of varied antiquity, none of them are connected to Rama Sita or Laxman, or Dashratha. And most significantly, no terracotta figurine or idol of Ram, Sita, or Laxman belonging to any vintage, was found by the ASI at the disputed site.
Times of India link: http://m.timesofindia.com/india/Digging-doubts-II-Jain-figurines-found-but-no-Ram/articleshow/153359.cms
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News in Hindi
प्रश्न:
महाराज जी खड़े होकर आहार क्यों लेते हैं?
मुनिश्री क्षमासागर जी द्वारा दिए गए प्रश्नो के उत्तर
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जैनों के गौरव दानवीर भामाशाह जी
जैन धर्मका शान बढाने वाले दानवीर भामाशाहजी जैन त्याग-बलिदान और दान के प्रतीक थे। भामाशाह महान व्यक्ति थे। उन्होंने महाराणा प्रताप को प्रचूर धन दान में दिया ताकि वे अकबर से युद्ध कर सकें और वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में तलवार लेकर लड़े अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे । आपको मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए आपका नाम इतिहास में अमर है ।आपकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे। आपके लिए पंक्तियां कही गई है-
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला । उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला ।
आपका जन्म अलबर राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल 1547 को हुआ । अपने पिता की तरह आप भी राणा प्रताप परिवार के लिए समर्पित थे।
आप जैन धर्म के अनुयायी थे और परम देशभक्त और अद्भूत दानी थे। आप व्यापार करते थे।
आपके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब महाराणा प्रताप के चरणों मे अर्पित कर दिया।
इतिहासकारों के अनुसार भामाशाह ने 25 लाख रूपए (इस समय यह रकम कई अरब बैठेगी) तथा 20000 अशर्फी महाराणा प्रताप को दी।
महाराणा प्रताप ने आखों मे आसूं भरकर भामाशाह जैन को गले से लगा लिया।
भामाशाह जैन से प्राप्त धन से महाराणा प्रताप ने सेना को संगठित करके अपने क्षेत्रा को मुक्त करा लिया।
परम देशभक्त भामाशाह जैन ने अकबर के दरबार में मनचाहा पद लेने का प्रस्ताव ठुकरा दिया ।
अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होनें अपने पुत्र को आदेश दिया की, वह महाराणा प्रताप के पुत्र के साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने महाराणा प्रताप के साथ किया हैं.
भामाशाह जैन की सोच, चिन्तन, मानसिकता अती सराहनीय व प्रशंसनीय है। वे महाराणा प्रताप के साथ सदैव याद किए जाएंगे। लोकहीत और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है ।
By Pratik Chordia
साभार संकलित))
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मेंढक देव बन गया...
अशुभ परिणामों के फल में सेठजी का जीव एक समय में मेंढक बन गया पश्चात पूर्व के धार्मिक संस्कारों और शुभ परिणामों के फल में मेंढक की पर्याय छोड़कर स्वर्ग का देव बन गया और तीर्थंकर महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँचकर उनकी अर्चना करने लगा ।
अहो! देखो परिणामों की विचित्रता । मेंढक बने सेठजी के धार्मिक संस्कार तो थे ही और उन संस्कारों के फलस्वरूप ही उन्हें ऐसा शुभ विचार आया कि मैं भी श्री महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँचकर उनके दर्शन पूजा करूँ । उसे अपनी मेंढक पर्याय का भी भान न रहा कि मैं रहा इतना छोटा सा मेंढक, मैं कैसे, कब तक वहाँ पहुँच पाऊँगा?
सचमुच भक्ति ऐसी ही होती है, जिसमें मात्र भक्ति / समर्पण होता है, छोटा-बड़ा, दीन-हीन, पर्याय गत कमजोरी आदि कुछ नहीं होता और ऐसी भक्ति का फल भी अपूर्व होता है ।
वीतरागी वीर प्रभु के दर्शन, भक्ति के शुभ परिणाम के साथ वह मेंढक एक पंखुडी मुँह में दबाये हुए, टुक-टुक करता हुआ चल दिया, जहाँ हजारों नर-नारी, राजा-महाराजा, गरीब-अमीर सब साक्षात भगवन्त की एक झलक पाकर निहाल होने के लिए जा रहे थे ।
अरे! यह क्या हुआ? बीच रास्ते में ही राजा श्रेणिक के हाथी के नीचे आकर उस मेंढक की आयु पूर्ण हो गई । मेंढक की देह वहीं सड़क पर पड़ी हुई थी पर आश्चर्य!! महा आश्चर्य!! कि मेंढक का जीव एक समय में स्वर्ग का देव बनकर राजा श्रेणिक से भी पहले श्री महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँच गया और उनकी अर्चना भक्ति सच्चे ह्रदय से करने लगा ।
उस देव के सिर पर मेंढक का निशान होने पर जब उसने पूछा तो पूरा वृतांत भगवान की वाणी आ गया ।
अपने पूर्व जन्म की पाप-पुण्य की वैराग्यमय कथा सुनकर उस देव को वैराग्य आ गया और पुण्य-पाप से पार (भिन्न), कर्मादिक से न्यारा तथा मोह-राग-द्वेषादि विभावों भावों से भी भिन्न, परम पारिणामिक, एक शुद्ध चैतन्य तत्त्व की महिमा पूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप मोक्षमार्ग पर गमन करने का पुरुषार्थ करने लगा ।
पुस्तक का नाम - ज्ञान का चमत्कार ।
लेखक - वाणीभूषण पं ज्ञानचन्द जी जैन, विदिशा ।
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