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सुपात्र दान का महत्व और इसकी पावन शुरुआत
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का नाम है ऋषभ। वे सम्राट से साधु बने, उनके प्रति जनता में गहरा आदर भाव था। यही कारण रहा कि उनके प्रजाजनों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान ऋषभदेव को भिक्षा में भोजन की भी आवश्यकता होगी। भगवान प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा करते हुए घर-घर में घूमते, लेकिन अज्ञानता के सघन आवरण के कारण कोई भी उन्हें भोजन उपहृत नहीं करता। लोग उन्हें आदर के साथ हाथी, घोड़े, रथ, रत्नाभूषण, रत्न जड़ित पादुकाएं ग्रहण करने की प्रार्थना करते। उनका मत था कि वे अपने सृजनहार को अपने पास की सबसे बड़ी एवं कीमती वस्तु उपहृत करें। इस तरह बिना आहार के भगवान ऋषभ की तपस्या के बारह महीने पूरे हो गए। इस क्रम में आप पादविहार करते हुए हस्तिनापुर पधारते हैं। आपका प्रपौत्र श्रेयांस कुमार राजमहल के गवाक्ष में बैठा सड़क के दृश्य को देख रहा है। अचानक उसकी नजरें सड़क पर भिक्षा की गवेषणा में नंगे पैर घूमते अपने संसारपक्षीय परदादा भगवान ऋषभदेव पर पड़ती है। उसे अनुभव होता है कि भगवान हस्तिनापुर की सड़कों पर क्यों घूम रहे हैं। वह दिन होता है बैशाख शुक्ला-3 का, अक्षय तृतीया का । या यों कहें भगवान ऋषभ की बारह महीने की तपस्या की पूर्णता का दिन। राजकुमार श्रेयांस को इस बात का अनुताप भी होता है कि अज्ञानता के कारण भगवान को इतने कष्ट उठाने पड़े और तपश्चर्या से गुजरना पड़ा। वह तत्काल गवाक्ष से उतरकर महलों से नीचे आकर भगवान के चरणों में नतमस्तक होता है और आप श्री को भिक्षा के लिए राजमहल में पधारने की विनती करता है। भगवान ने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथों इक्षुरस का सुपात्र दान लेकर एक नई परम्परा की शुरूआत की। इन अप्रत्याशित क्षणों के साक्षी बनकर देवलोक से समागत देवतागण भी अहोदानं-अहोदानं की ध्वनि प्रकट करते हुए पांच प्रकार के द्रव्यों की वर्षा की। कहा जा सकता है कि इस महत्वपूर्ण प्रसंग से जुड़कर बैसाख शुक्ल तीज का दिन जिसे अक्षय तृतीया का सम्बोधन भी प्राप्त हुआ एक दृष्टि से धर्म क्षेत्र में नयी सोच के दर्शन कराने वाला दिन बन गया। यही सन्दर्भ तपस्या और साधना का शुभ मुहूर्त बन गया। समग्र जैन समाज में अक्षय तृतीया के दिन को अत्यन्त आदर और सम्मान के साथ मनाये जाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। प्रतीकात्मक रूप में इसे वर्ष भर तक एकांतर तप (एक दिन छोड़कर पुनः उपवास) की साधना के साथ मनाये जाने की परम्परा ने विगत कुछ वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। अनेक जैन धर्मावलम्बी अपने-अपने आस्था और विश्वास के केन्द्रों से निर्देशित होकर वर्ष भर की तपाराधना करते हैं और उनकी वार्षिक तपस्या की पूर्णाहूति का दिन अक्षय तृतीया ही होता है। तपस्या को जैन धर्म साधना में अत्यन्त महत्पूर्ण स्थान दिया जाता है। मोक्ष के चार मार्गों में तपस्या का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। तपस्या आत्मशोधन की महान प्रक्रिया है और इससे जन्म जन्मांतरों के कर्म आवरण समाप्त हो जाते हैं।
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