25.12.2017 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 25.12.2017
Updated: 26.12.2017

Update

#रणथम्भोर Amazing hidden and unexplored so old jain statues found in #Ranthambhore_Jainism

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Sri Parshawanath Tirthankara at Humcha, Shimoga district, Karnataka State, South India. Photo sent by -H H Sri Devendra Keerthi Bhattarakaru of Hombuja Jaina Monastery.

तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 3 हजार वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे| उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम 'पार्श्व' रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— 'दयाहीन' धर्म किसी काम का नहीं'। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैनेश्वरी दीक्षा ली थी और ब्रह्मचारी अविवाहित थे।

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मोह से मुक्त होने पर ही मिलता है जीवन का आनंद -आचार्य विद्यासागर जी 😊

संत सिरोमणि आचार्य श्री विद्या सागर जी ने प्रवचन में गुरु को मार्गदर्शक बताते हुवे कहा की गुरु के बताये रास्ते और उनके हर शब्द की गहराई के भाव को समझ कर लोग अपने जीवन को काफी उठा सकते है |उन्होंने कहा की अर्थ से जीवन में विराटता आती है |
जैनाचार्य ने श्रधालुओ को संबोधित करते हुवे कहा की मानव अपनी इन्द्रियों से बाहय जगत को देखता है उसके...विभिन्न स्वरूपों का अहसास करता है, ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात तो यह है की इस युग में रहकर भी हम उन नेत्रों को खोलने का प्रयास करे जो हमे अलौकिक बनने के लिए बहरी इन्द्रियों पर लगाम लगाने को प्रेरित करे. इस प्रयास में गुरु काफी सहयोगी साबित हो सकते है|

गुरु की महिमा का जिक्र करते हुवे आचार्यवर ने आगे स्वयं द्वारा रचित महाकाव्य मुक्माती का जिक्र करते हुवे कहा की की विज्ञानं ने सभी छेत्रो में अपने पैर जमाये है वैज्ञानिको ने ऐसे उपकरण भी बना लिए है जो हवा और प्रकाश की गति को भी नाप लेते है किन्तु वह आज तक ऐसा उपकरण नहीं बना सके जो शब्दों की गहराई को माप सके शब्द जड़ जरुर होते है किन्तु इसके अर्थ से अथाह गहराई तक पंहुचा जा सकता है परन्तु यह तभी संभव है जब हम अर्थ की माया की ओर जाए व्यक्ति के पास विराटता है ओर वह शब्द के माध्यम से सब कुछ देख सकता है

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#समन्तभद्र, फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे । आपका प्रारंभिक नाम शांति वर्मा था । छोटी सी अवस्था में संसार से विरक्त होकर आपने निर्ग्रंथ दीक्षा धारण कर ली । दीक्षा के उपरांत नाम समन्तभद्र हुआ ।

कांची में मलिन वेश धारी दिगम्बर रहा, लाम्बुश में पाण्डु वस्त्र धारण किए, पुण्ड्रोण्ड्र में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दश पुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी, वाराणसी में श्वेत वस्त्र धारी तपस्वी बना । राजन! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है जिस की शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले ।

दुष्कर्म के उदय से आपको तपस्या काल में भस्मक व्याधि हो गयी । निर्ग्रंथ मुद्रा में उस व्याधि का प्रतिकार न देख आपने अपने गुरु से संल्लेखना कराने की प्रार्थना की परंतु गुरु दीर्घ दर्शी थे, वे बुद्धिमान समन्तभद्र के द्वारा जैनधर्म की महती प्रभावना की आशा रखते थे अतः उन्होंने संल्लेखना मरण की आज्ञा नहीं दी । फलत: समन्तभद्र ने निर्ग्रंथ मुद्रा छोड़कर अन्य साधु का वेश रख लिया । और स्वेच्छा पूर्वक आहार करते हुए विहार करने लगे । विहार करते हुए काशी आये वहाँ शिव मंदिर में शिव भोग की विशाल अन्न राशि को देखकर उन्होंने विचार किया कि यदि यह राशि मुझे प्राप्त हो जाय तो इससे मेरी व्याधि शांत हो सकती है ।विचार आते ही वे चतुराई से शिव मंदिर में रहने लगे । शिव भोग के उपभोग से धीरेधीरे उनकी व्याधि शांत हो गयी । अंत में गुप्तचरों के द्वारा काशी नरेश को जब इस बात का पता चला कि यह न तो शिव भक्त है और न शिवजी को भोग अर्पित करता है अपितु स्वयं खा जाता है । राजा आगबबूला होता हुआ समन्तभद्र के सामने आया और उनसे उनकी यथार्थता पूछने लगा । समन्तभद्र ने अपना परिचय दिया;;

कांची में मलिन वेश धारी दिगम्बर रहा, लाम्बुश में पाण्डु वस्त्र धारण किए, पुण्ड्रोण्ड्र में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दश पुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी, वाराणसी में श्वेत वस्त्र धारी तपस्वी बना । राजन! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है जिस की शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले ।

राजा ने जैनेतर मूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया परंतु उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि यह मूर्ति मेरे नमस्कार को सह न सकेगी । समन्तभद्र के इस उत्तर से राजा का कौतूहल और नमस्कार करने का आग्रह दोनों ही बढ़ गये । समन्तभद्र आशु कवि थे तो उन्होंने वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरू किया । जब वे आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभनाथ भगवान् का स्तवन कर रहे थे तब सहसा मूर्ति फट गयी और उसमें से चंद्रप्रभनाथ भगवान् की मूर्ति निकल पड़ी । इस घटना से काशी नरेश समन्तभद्र को असाधारण योगी मानकर उनसे बहुत प्रभावित हुए और वे जिन धर्म के अनुयायी और उनके शिष्य हो गये । नरेश के साथ अन्य अनेक लोगों ने भी जैन धर्म धारण किया । नरेश का भाई शिवायन भी समन्तभद्र का शिष्य हो गया । ' राजवलिकथे ' के अनुसार उनको भस्मक व्याधि पाँच दिन में शांत हो गयी ।

*रचना*
स्वयंभू स्तोत्र
देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा)
युक्त्यनुशासन
स्तुति विद्या (जिन शतक)
रत्नकरण्ड श्रावकाचार

_सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।_
_देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा) और युक्त्यनुशासन एवं स्वयंभू स्तोत्र ग्रंथ होते हुए भी दार्शनिक तत्त्वों से समाविष्ट हैं ।_
_स्तुति विद्या (जिन शतक)_
_शब्दालंकार प्रधान रचना है ।_ _इसमें चित्रालंकार के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है ।_
_रत्नकरण्ड श्रावकाचार धर्म शास्त्र विषयक सरल रचना है ।_

_*इन उपलब्ध ग्रंथों के अतिरिक्त आपके द्वारा रचित निम्न ग्रंथों के उल्लेख और मिलते हैं -*_
_जीव सिद्धि_
_तत्त्वानुशासन_
_प्राकृत व्याकरण_
_प्रमाण पदार्थ_
_कर्म प्राभृत टीका_
_गन्ध हस्तिमहाभाष्य_
_आप बहुत ही परीक्षा प्रधानी थे ।_ _जबतक युक्ति के द्वारा किसी बात का निर्णय नहीं कर लेते थे तबतक आपको संतोष नहीं होता था ।_
_युक्त्यनुशासन की टीका में विद्यानंद स्वामी ने उन्हें परीक्षेक्षण परीक्षा रूपी नेत्र से सबको देखने वाला लिखा है ।_

*समन्तभद्र का समय:-*
_जैन साहित्य और इतिहास वेत्ता श्री स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने *' स्वामी समन्तभद्र '* _नाम के महानिबंध में अनेक विद्वानों की मान्यताओं की बारीकी से समीक्षा करके यह विचार प्रकट किया है कि समन्तभद्र उमास्वामी (उमास्वाती) के बाद और पूज्यपाद स्वामी के पहले विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी में हुए हैं ।_
_पूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ५/४/१४० सूत्र के द्वारा समन्तभद्र का उल्लेख किया है, अतः वे पूज्यपाद से निश्चित ही पूर्ववर्ती हैं ।

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तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर जी मुनिराज - गजब का व्यक्तित्व!!

गुरुदेव श्री आचार्य सन्मतिसागर महाराज अन्न रूप भोजन नहीं करते थे. वे 48 घंटो में एक बार मट्ठा और पानी लेते थे. आपने आचार्य 108 महावीर कीर्ति जी महाराज से 18 साल की आयु में ब्रहमचर्य व्रत लेते ही नमक का त्याग कर दिया. सन 1961 में (मेंरठ) में आचार्य विमलसागर महाराज से छुलक दीक्षा लेते ही दही,तेल व घी का त्याग कर दिया था.सन 1962 में मुनि दीक्षा लेते ही आपने शकर का भी त्याग कर दिया सन 1963 में आप ने चटाई का भी त्याग कर दिया और 1975 में आपने अन्न का भी त्याग कर दिया. सन 1998 में उन्होंने दूध का भी त्याग कर दिया. सन 2003 में उदयपुर में मट्ठा और पानी का अलावा सबका त्याग कर दिया. उन्होंने रांची में 6 माह तक और इटावा में 2 माह तक पानी का भी त्याग किया. उन्होंने अपने एक चातुर्मास में 120 दिनों में केवल 17 दिन आहार लिया.दमोह चातुर्मास में उन्होंने एक आहार एक उपवास फिर दो उपवास एक आहार तीन उपवास एक आहार.........इस तरह बढते हुए, 15 उपवास एक आहार, 14 उपवास एक आहार, 13 उपवास एक आहार,........... से करतेकरते एक उपवास एक आहार, तक पहुच कर सिंहनिष्क्रिदित महा कठिन व्रत किया. उन्होंने अपने 49 साल के तपस्वी जीवन में लगभग 9986 उपवास किये. लगभग 27.5 सालो से भी अधिक उपवास किये.आपके बारे में आचार्य 108 पुष्पदंत सागर महाराज ने यहाँ तक कहा है की महावीर भागवान के बाद आपने ने इतनी तपस्या की है. सन1973 में उन्होंने शिखरजी की निरंतर 108 वंदना की थी.वे भरी सर्दियों में भी चटाई नहीं लेते थे. गुरुदेव 24 घंटो में केवल 3 चार घंटे ही विश्राम करता थे. वे पूरी रात तपस्या में लगे रहते थे.उन्होंने समाधी से 3 दिन पहले उपवास साधते हुए लोगो का कहने का बावजूद आपना आहार नहीं लिया. अपनी समाधी से पहले दिन यानि 23-12-10 को आपने अपने शिष्यों को पढ़ाया और शाम को अपना आखरी प्रवचन भी समाधी पर ही दिया. और सुबह 5.50 बजे आपने अपने आप पद्मासन लगाया भगवन का मुख अपनी तरफ करवाया और अपने प्राण 73 वर्ष की आयु में 24-12-10 को आँखों से छोड़ दिए. ऐसे तपस्वी सम्राट को मेरा कोटि कोटि नमन....।

🚩🌷 *पूज्य गुरुदेव के सप्तम समाधि स्मृति दिसव के अवसर पर गुरुदेव के चरणों मे शत् शत् नमन नमन...*🙏🏻

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