20.12.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 21.12.2017

News in Hindi

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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 47* 📝

*जयचन्दजी पोरवाल*

*साध्वियों का निष्कासन*

गतांक से आगे...

महाराणा के सम्मुख एक विषम स्थिति उत्पन्न हो गई। एक और कर्तव्य परायणता थी तो दूसरी ओर निकटस्थ व्यक्तियों का आग्रह। ऐसे अवसरों पर प्रायः कर्तव्य परायणता परास्त हो जाती है और निकटस्थ व्यक्तियों का आग्रह जीत जाया करता है। वहां भी ऐसा ही हुआ। महाराणा ने साध्वियों को उदयपुर छोड़ देने का आदेश दे दिया।

उस आदेश से श्रावकों में बड़ी हलचल मची। संख्या में स्वल्प होने पर भी उन लोगों ने उस आदेश को वापस करवा देने के लिए काफी दौड़-भाग की, परंतु सफल नहीं हो सके। विरोधियों ने उनको महाराणा तक पहुंचने का अवसर ही प्राप्त नहीं होने दिया। आखिर साध्वियों को चातुर्मास में ही विहार कर निकटस्थ ग्राम 'बेदला' में चला जाना पड़ा।

जयचंदजी को उक्त घटना से बड़ा दुख हुआ। समय पर कुछ भी नहीं कर पाने के कारण वे अत्यंत लज्जित तथा निराश हुए, परंतु शीघ्र ही संभल गए और बिगड़ी बात को बना लेने के लिए पुनः प्रयत्नशील हो गए। विरोधी व्यक्तियों की दृष्टि से छिप कर चुपचाप अंदर ही अंदर उनके प्रयत्न चालू हुए। वे महाराणा से मिले और साध्वियों के विषय में दिए गए आदेश की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया।

महाराणा के लिए उस समय अपना आदेश ले लेने में शायद कोई बाधा नहीं रह गई थी। दबाव डालने वाले व्यक्तियों की इच्छा पूर्ति की जा चुकी थी। अब जयचंदजी आदि तेरापंथियों को प्रसन्न कर देने में महाराणा को कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। न्याय की ओर से मुंह फेरकर जब सबको प्रसन्न रखने के नीति अपनाई जाती है तब उसका परिणाम यही हो सकता है कि बारी-बारी से एक दूसरे पक्ष को संतुष्ट तथा असंतुष्ट किया जाता रहे। उस स्थिति में एक का संतोष ही दूसरे के असंतोष का कारण बनता रहता है।

महाराणा ने न्याय की नीति को छोड़कर ऐसी द्वैध उत्पन्न करने वाली नीति क्यों अपनाई कहा नहीं जा सकता। उसके पीछे अवश्य ही या तो उनकी कोई विवशता रही होगी या फिर दुर्बलता। विभिन्न दबावों में आकर निर्णय करने की दुर्बलता तो उनमें स्वस्थ ही दृष्टिगोचर हो रही है। विरोधियों के दबाव में आकर उन्होंने पहले साध्वियों को वहां से चले जाने का आदेश दिया था, परंतु जब दूसरी ओर से दबाव गहरा हुआ तब जयचंदजी की बात को स्वीकार कर लिया और अपने उस पूर्व आदेश को तत्काल वापस ले लिया।

जयचंदजी को अपने परिश्रम कि उस सफलता पर बड़ी प्रसन्नता हुई। समाज के सभी व्यक्ति उससे उत्साहित हुए। सभी का विचार था की साध्वियों को पुनः उदयपुर में पदार्पण करना चाहिए। श्रावकों की इच्छा को साध्वी हस्तूजी ने आदर प्रदान किया और शीघ्र ही वहां पुनः चली आईं। इस प्रकार जयचंदजी आदि श्रावकों की मनोभावना पूर्ण हुई और साथ ही विरोधियों तथा उनसे प्रेरित महाराणा द्वारा की गई आशातना का परिशोधन हुआ। उक्त विषय में अब तो केवल यही कहना उचित होगा— 'देर से आए, सही आए।'

*धर्म संघ को गौरवान्वित करने वाले व अपने सुकृत्यों से युगों-युगों तक स्मरणीय बने रहने वाले श्रावक केसरजी भंडारी के जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 223* 📝

*सरस्वती-कंठाभरण आचार्य सिद्धसेन*

*साहित्य*

*आचार्य सिद्धसेन द्वारा रचित द्वात्रिंशिका के श्लोक*

*पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिस्तथैव*
*सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति।*
*तथेति वक्तुं मृतरूढ़गौरवादहन्न*
*जातः पृथयन्तु विद्विषः।*
*(द्वात्रिंशिका 6|2)*

पुरातन पुरुषों की असिद्ध व्यवस्था का समर्थन करने के लिए मैं नहीं जन्मा हूं। भले इससे विरोधीजनों की संख्या बढ़ती है तो बढ़े।

*बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं,*
*विरोधयुक्ताः कथमाशुनिश्चयः।*
*विशेषसिद्धावियमेव नेति वा,*
*पुरातनप्रेमजडस्य युज्जते।।*
*(द्वात्रिंशिका 6|4)*

पुरातन व्यवस्थाएं अनेक प्रकार की हैं और वे परस्पर विरोधी भी हैं अतः उनके समीचीन और असमीचीन होने का निर्णय शीघ्र ही कैसे किया जा सकता है? पुरातन प्रेमी के लिए ही एक पक्षीय निर्णय उचित हो सकता है किसी परीक्षक के लिए नहीं।

*जनोयमन्यस्य मृतः पुरातनः,*
*पुरातनैरेव समो भविष्यति।*
*पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः,*
*पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत्।।*
*(द्वात्रिंशिका 6|5)*

आज जिसे हम प्राचीन कहते हैं वह भी कभी नया था और जिसे हम नया कहते हैं वह भी कभी प्राचीन हो जाएगा इस प्रकार प्राचीनता भी स्थिर नहीं है, अतः बिना परीक्षा किए पुरानी बात पर भी कौन विश्वास कर सकता है?

*यदेव किंचिद् विषमप्रकल्पितं,*
*पुरातनैर्रुक्तामिति प्रशस्यते।*
*विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न*
*पठ्यते यत् स्मृतिमोह एव सः।*
*(द्वात्रिंशिका 6|8)*

जो व्यक्ति पुरातन पुरुषों द्वारा रचित होने के कारण और असंबद्ध शास्त्र की भी प्रशंसा करते हैं एवं समीचीन ग्रंथ के भी नवीन होने के कारण उपेक्षा करते हैं, यह उनकी स्मृति का व्यामोह मात्र है।

*आचार्य सिद्धसेन द्वारा रचित श्लोकों में परिलक्षित उनके चिंतन की उन्मुक्तता* के बारे में आगे और जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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