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*जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग पग लगता डेरा......*
वो भारत देश है मेरा....
है? या, था??
हाँ, यह कवि द्वारा कही गयी बात तब कभी लागू पड़ती होगी।
परंतु आज....
अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि वर्तमान में यह बात सत्य से विपरीत है या होती जा रही है।
इन पंक्तियों में तीन बातें कही गयी, और दुःख सभर आश्चर्य है कि तीनों विषयों में निराशा और हताशा ही हाथ लग रही है।
पहले *सत्य* के लिए कहा।
बात बात पर, जीवन की हर परिस्थिति में अब असत्य का सहारा लिया जा रहा है। वो भी अधिक से अधिक लोग द्वारा। यहा तक कि अब धर्म के विषयों में भी। और उनके द्वारा भी जो की धर्म परायण कहलाये जाते है। इससे निराशाजनक स्थिति और क्या हो सकती है।
आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और कोई भी क्षेत्र लेलो, हर जगह असत्य का बोल बाला है।
दूसरा विषय लिया, *अहिंसा* का।
दुःख और ग्लानि की बात है कि चारो और हिंसा का तांडव चल रहा है।
अरे.…जब इंसान ही इंसान को मारने पे तुला हुआ है तब पशु पक्षियों की हिंसा की तो बात ही क्या करनी।
क्रोध, बैर, द्वेष और उसके उपरांत धर्म जुनून से भी लोग मार काट कर रहे हैं।
और निर्दोष पशु पक्षी, पल भर के आस्वाद के लिए या बलि के बहाने काटे जा रहें हैं।
मांसाहार आंधी की तरह फैल रहा है।
अफसोस है कि अब जैनों में भी कुछ लोग मांसाहारी हो गए हैं, ये घोर कलयुग का प्रभाव साफ साफ दिख रहा है।
तीसरी बात *धर्म* की की गई है।
चारों तरफ दिख रहा है कि धर्म धीरे धीरे लुप्त हो रहा है।
धर्म परायणता, धर्मपालन में हम बहोत पीछे हो रहे है।
आज की युवान पीढ़ी धर्म से पूरी तरह विमुख हो रही है, ये बहोत बुरी निशानी है।
आने वाले काल मे क्या धर्म टिकेगा, ये बहोत बड़ा प्रश्न है।
इस तरह जिस देश के लिए कवि ने वो पंक्तियां लिखी के जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग पग लगता डेरा, वहां परिस्थिति ये है के ये डेरा अब सिर्फ कोई कोई स्थान पर कोई कोने में पड़ा हुआ दिख रहा है।
ऐसी स्थिति में हम कम से कम अपने आप को संभाल लें और प्रयत्न पूर्वक अपने हृदय में ये तीनों व्यवहार का आदर पूर्वक आचरण कर सके, ये ही प्रभु परमात्मा से प्रार्थना है।
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