07.11.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 07.11.2017
Updated: 09.11.2017

Update

*पुज्यवर का प्रेरणा पाथेय*

👉 *हुगली पार कर अहिंसा यात्रा संग नव कीर्तिमान रचने को बढ़ चले ज्योतिचरण*

👉 *-मानवता के कल्याण को संकल्पित महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण पहुंचे डानकुनी*

👉 *-लक्स कंपनी आचार्यश्री के चरणरज से हुई पावन, कंपनी के मालिक व परिजन इस कृपा से हुए अभिभूत*

👉 *-मन को निर्मल बनाने के लिए तपस्या का प्रयोग करने का आचार्यश्री ने दिया ज्ञान*

👉 *-अपनी किस्मत पर इतराए कंपनी मालिकों ने भी दी अपनी हर्षित भावाभिव्यक्ति*

👉 *-आदर्श साहित्य संघ के श्री केशव प्रसादजी को दी गई विदाई, आचार्यश्री ने दिया पावन आशीर्वाद*

दिनांक - 07-11-2017

प्रस्तुति - तेरापंथ *संघ संवाद*

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👉 सूरत- जैन संस्कार विधि के बढ़ते चरण
👉 जयपुर - आध्यात्मिक मिलन
👉 गदग - जैन जीवन शैली कार्यशाला

प्रस्तुति - तेरापंथ *संघ संवाद*

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Video

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https://youtu.be/JdiWB5KSztM

दिनांक 07-11-2017 राजरहाट, कोलकत्ता में पूज्य प्रवर के आज के प्रवचन का संक्षिप्त विडियो..

प्रस्तुति - अमृतवाणी

सम्प्रेषण -👇
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻

👉 जयपुर - आचार्य महाश्रमण फिजियोथेरेपी सेंटर का उद्घाटन
👉 बीदासर - अभातेमम अध्यक्ष की संगठन यात्रा
👉 विशाखापट्नम - जैन जीवन शैली कार्यशाला आयोजित
👉 सूरत - चातुर्मास समाप्ति पर परदेशी राजा का व्याख्यान व मंगल विहार
👉 केसिंगा (ओड़िशा) - तेयुप द्वारा मानव सेवा का कार्य सम्पादित
👉 नोएडा - जैन जीवन शैली कार्यशाला
👉 जयपुर- टीपीएफ सदस्यों का परिचय सम्मेलन

प्रस्तुति: 🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 192* 📝

*कीर्ति-निकुञ्ज आचार्य कुन्दकुन्द*

आचार्य कुन्दकुन्द का दिगंबर परंपरा में गरिमामय स्थान है। अध्यात्म दृष्टियों को उजागर करने का उन्हें श्रेय है। श्रुतधर आचार्यों की परंपरा में उनको प्रमुख माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण उनके उत्तरवर्ती परंपरा के आचार्य मूल संघ और कुन्दकुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने में गौरव अनुभव करते हैं। श्वेतांबर परंपरा में जो महत्त्व पूर्वधर आचार्य स्थूलभद्र का है, वही महत्त्व दिगंबर परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द का है। जैन धर्म का सुप्रसिद्ध श्लोक श्वेतांबर परंपरा में आचार्य स्थूलभद्र के नाम के साथ और दिगंबर परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द के नाम के साथ स्मरण किया गया है। वह श्लोक इस प्रकार है—

*मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमप्रभुः।*
*मंगलं स्थूलभद्राद्या (कुन्दकुन्दाद्या), जैन धर्मोस्तुमंगलम्।।*

तीर्थंकर महावीर और गणधर गौतम के बाद दिगंबर परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द का उल्लेख उनकी महत्ता का परिचायक है।

*गुरु-परंपरा*

आचार्य कुन्दकुन्द की गुरु परंपरा के संबंध में सर्वसम्मत एक विचार नहीं है। बोध प्राभृत के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द भद्रबाहु के शिष्य थे। पर भद्रबाहु उनके साक्षात् गुरु नहीं थे। कुन्दकुन्द ग्रंथों के टीकाकार आचार्य जयसेन के अभिमत से आचार्य कुन्दकुन्द कुमारनंदी सिद्धांतदेव के शिष्य थे। शुभचंद्र गुर्वावली में प्राप्त उल्लेखानुसार भद्रबाहु के शिष्य माघनंदी, माघनंदी के शिष्य जिनचंद्र, जिनचंद्र के शिष्य पद्मनंदी थे। पद्मनंदी का दूसरा नाम कुन्दकुन्द था। नंदी संघ पट्टावली में भद्रबाहु द्वितीय, गुप्तिगुप्त, माघनंदी, जिनचंद्र के बाद कुन्दकुन्द का उल्लेख है। इन दोनों पट्टावलियों में प्राप्त उल्लेखानुसार आचार्य कुन्दकुन्द के गुरु आचार्य जिनचंद्र थे, दादा गुरु माघनंदी थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रुतधर भद्रबाहु को अपना गमक गुरु माना था।

*जन्म और परिवार*

आचार्य कुन्दकुन्द दक्षिण भारत के निवासी एवं वैश्य वंशज थे। उनका जन्म दक्षिण भारत के कौण्डकुन्दपुर में हुआ। कुन्दकुन्द के पिता का नाम करमण्डु और माता का नाम श्रीमती था। कौण्डकुन्दपुर निवासी करमण्डु को दीर्घ प्रतीक्षा के बाद एक तपस्वी ऋषि की कृपा से पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। करमण्डु का यह पुत्र जन्म स्थान के नाम के आधार पर कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुआ। जन्म स्थान का नाम कौण्डकुन्द है। उच्चारण की मधुरता के कारण कौण्डकुन्द ही कुन्दकुन्द नाम में परिवर्तित हुआ।

*आचार्य कुन्दकुन्द के जीवन-वृत्त* के बारे में पढेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 16* 📝

*शोभजी कोठारी*

*अभिमन्यु की तरह*

स्वामीजी के सुप्रसिद्ध भक्त श्रावक शोभजी केलवा के कोठारी परिवार के सदस्य थे। मूलतः गोत्र से वह परिवार चौरड़िया था। पर पूर्वजों द्वारा किसी समय सरकारी कोठार (अन्न भंडार) का कार्य किया गया। तब से कोठारी कहा जाने लगा। शोभजी के पिता नेतसीजी ने परिवार सहित स्वामीजी के प्रथम चातुर्मास सम्वत् 1817 में ही सम्यक् श्रद्धा प्राप्त कर ली थी। उस समय शोभजी का जन्म नहीं हुआ था। वे गर्भ में थे। महाभारत के अनन्य वीर अभिमन्यु के लिए कहा जाता है कि जब वे गर्भ में थे, तब अर्जुन ने अपनी पत्नी सुभद्रा को 'चक्रव्यूह' के भेद की विधि समझाई थी। माता के उस नवीन ज्ञान का गर्भस्थ शिशु पर ऐसा संस्कार पड़ा कि जन्म के पश्चात् बिना किसी के सिखाए ही वे उस कला में स्वतः निष्णात हो गए। संभव है, श्रावक शोभजी को भी सम्यक् श्रद्धा के संस्कार उसी प्रकार से प्राप्त हुए हों और वे बीजात्मक रूप से उन्हें अपने साथ लेकर ही बाहर आए हों। कुछ भी हुआ हो, परंतु उनकी सहज श्रद्धा तथा स्वामीजी के प्रति अनन्य भक्ति इस प्रकार कल्पना करने का अवसर तो देती ही है।

*केलवा से नाथद्वारा*

शोभजी सांसारिक तथा धार्मिक दोनों ही क्षेत्रों में बड़े निपुण व्यक्ति थे। अपनी पारिवारिक परंपरा के गुण उनमें प्रभूत मात्रा में थे। युवावस्था प्राप्त करने तथा घर का भार संभालने के साथ ही केलवा ठिकाने का प्रधान बनने का उत्तरदायित्व भी उनको प्राप्त हुआ। कई वर्षों तक उन्होंने अपने अन्य दायित्वों के साथ उसे भी सफलतापूर्वक निभाया। परंतु एक बार किसी बात को लेकर उनका तात्कालीन ठाकुर से मतभेद हो गया। जागीरदारों का स्वभाव तो सदा से ही 'पल में तोला पल में माशा' होने वाला रहा है। अतः छोटी बात पर बहुत बड़ी बन गई। मतभेद में मनभेद होते देर न लगी। शोभजी ने जब अपने प्रतिकूल वातावरण देखा तो सोचा कि समुद्र में रहकर मगरमच्छ से वैर रखना उचित नहीं। उन्होंने वातावरण को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास किया, परंतु वे उसमें सफल नहीं हो सके। उन्हें तब समझते देर न लगी कि अब यहां रहना सिंह के पिंजरे में रहने के समान ही खतरनाक है। उन्होंने तत्काल अपनी व्यवस्था की और परिवार सहित गुप्त रुप से केलवा छोड़कर नाथद्वारा में जा बसे।

*दोषारोपण*

केलवा के ठाकुर शोभजी से रुष्ट तो थे ही, जब उन्हें यह पता चला कि वे भागकर नाथद्वारा में जा बसे हैं, तो अधिक भन्ना उठे। उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की थी कि शिकार यों धोखा देकर हाथ से निकल जाएगा। वे शोभजी से बदला लेने का उपाय सोचने लगे। वे चाहते थे कि किसी प्रकार से फंसा कर उन्हें अपमानित किया जाए। केलवा में तो वे सब कुछ कर सकते थे, परंतु नाथद्वारा उनकी जागीर में नहीं था। वह श्रीनाथजी की जागीर में था। वहां के सर्वेसर्वा गोसाईंजी थे। उनको अपनी और कर लेना उनके लिए कठिन कार्य नहीं था। वे बड़े जागीरदार थे, अतः गोसाईंजी से उनका अच्छा संपर्क था।

*केलवा के ठाकुर शोभजी को फंसाने में सफल हो सके या नहीं* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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प्रस्तुति - तेरापंथ *संघ संवाद*

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