26.10.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 26.10.2017
Updated: 27.10.2017

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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

👉 *विषय - प्राण और पर्याप्ति भाग 4*

👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*

*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482

संप्रेषक: 🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 182* 📝

*आगम-पिटक-आचार्य*
*स्कन्दिल, हिमवन्त, नागार्जुन*

स्कन्दिल, हिमवन्त, नागार्जुन वाचक परंपरा के प्रभावी आचार्य थे। अगाध आगम ज्ञान के धनी थे। नंदी स्थविरावली में तीनों का क्रमशः उल्लेख है। स्कंदिल और नागार्जुन आगम वाचनाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

*गुरु-परंपरा*

नंदी स्थविरावली के अनुसार वाचनाचार्य हिमवंत के पश्चात आचार्य नागार्जुन एवं पूर्व आचार्य स्कंदिल थे। नंदी स्थविरावली को गुर्वावली के रुप में मान लेने पर इन तीनों का परस्पर गुरु-शिष्य क्रम सिद्ध होता है।

आर्य स्कंदिल का नाम इस स्थविरावली में वाचनाचार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह के बाद है।

नंदी टीकाकार ने आचार्य स्कन्दिल को ब्रह्मद्विपकसिंह सूरि का शिष्य माना है। ब्रह्मद्विपक विशेषण के आधार पर इनका संबंध ब्रह्मद्वीपिका शाखा से है। ब्रह्मद्वीपिका शाखा का जन्म आचार्य समित से हुआ था। समित आचार्य सुहस्ती की परंपरा में होने वाले आचार्य सिंहगिरि के शिष्य थे।

इन संदर्भों के आधार पर स्कंदिल की गुरु-परंपरा का संबंध ब्रह्मद्विपक शाखा से जुड़ता है।

आधुनिक शोध विद्वान् मुनि कल्याणविजयजी ने विविध युक्तियों के आधार पर नंदी स्थविरावली स्थविर परंपरा के युग प्रभावी आचार्यों का क्रम प्रस्तुत किया है। उनके अभिमत से नंदी स्थविरावली में गुरु-शिष्य का क्रम प्रस्तुत नहीं है। इस संबंध में 'वीर निर्वाण संवत् जैन काल गणना' में आगे विस्तार से जानेंगे। प्रभावक चरित्र में अनुयोग प्रवर्तक आचार्य स्कंदिल को विद्याधर आम्नाय से संबंधित माना है। 'वृद्धवादी प्रबंध' में प्रभाचंद्राचार्य लिखते हैं—

*पारिजातोपारिजातो, जैनशासननन्दने।*
*सर्वश्रुतानुयोगार्ह-कुन्दकन्दलनाम्बुदः।।4।।*
*विद्यारधरवराम्नाये, चिंतामणिरिवेष्टदः।*
*आसीच्छ्रीस्कंदिलाचार्यः, पादलिप्तप्रभोः कुले।।5।।*

इस उल्लेखानुसार आचार्य स्कंदिल विद्याधरीय आम्नाय के आचार्य पादलिप्तसूरि की परंपरा के थे। जैन शासन रूपी नंदन वन में कल्पवृक्ष के समान तथा समग्र श्रुतानुयोग को अंकुरित करने में वे मेघ के समान थे। 'चिंतामणिरिवेष्टदः' चिंतामणि की भांति वे इष्ट के प्रदाता थे।

प्रभाचंद्राचार्य के उक्त उल्लेख से आचार्य स्कंदिल विद्याधरी शाखा के थे। विद्याधरी शाखा का जन्म आचार्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के शिष्य विद्याधर गोपालक से हुआ।

आचार्य स्कंदिल को विद्याधर शाखा का मानना अधिक निर्विवाद है।

*आचार्य हिमवन्त और नागार्जुन की गुरु-परंपरा* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 6* 📝

*गेरूलालजी व्यास*

*प्रथम श्रावक*

गेरूलालजी व्यास जोधपुर के पुष्करणा ब्राह्मण थे। क्वचित् उनका नाम गोरूलालजी भी लिखा जाता है। संत-समागम में उनकी रूचि प्रारंभ से ही थी। जहां भी अवसर मिलता वे उसका लाभ अवश्य लेते। समय-समय पर वे जैन संतों की संगति का लाभ भी लेते रहते थे। स्थानकवासी संप्रदाय के अनेक प्रसिद्ध आचार्यों तथा संतों से उनका अच्छा परिचय था। धीरे-धीरे वे जैन तत्त्वज्ञान में भी रूचि लेने लगे और क्रमशः उस विषय के अच्छे ज्ञाता बन गए।

स्वामी भीखणजी ने धर्मक्रांति से पूर्व सम्वत् 1816 का चातुर्मास स्थानकवासी आचार्य जयमलजी के साथ जोधपुर में किया। वहां उनके विचारों से स्वयं आचार्य जयमलजी एवं उनके साधु प्रभावित हुए। गेरूलालजी व्यास भी पहले-पहल उसी समय स्वामीजी के संपर्क में आए। वे उनके क्रांतिकारी विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनके भक्त बन गए।

कालांतर में स्वामीजी स्थानकवासी संप्रदाय का परित्याग कर देने के पश्चात् जब जोधपुर पधारे तब व्यासजी आदि अनेक श्रावकों ने उनको पूर्ण सहयोग दिया। व्यासजी तो मानो स्वामीजी के रंग में ही रंग गए। परंपरा से ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने अपूर्व साहस के साथ विधिवत् जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। उस समय जोधपुर के तेरह व्यक्ति स्वामीजी के भक्त बने थे। उन सब में व्यासजी का नाम प्रथम कोटि में ग्रहणीय कहा जा सकता है। स्वामीजी द्वारा प्रारूपित श्रद्धा और आचार को उन्होंने ऐसा हृदयंगम किया कि स्वामीजी के तत्त्व ज्ञान की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने के लिए स्थानीय लोग उनसे संपर्क करने लगे।

*नामकरण के समय*

तेरापंथ का नामकरण जोधपुर में हुआ। स्वामीजी उस समय वहां से विहार कर चुके थे। जिन दुकानों में स्वामीजी ठहरे थे, वहीं पर श्रावक-वर्ग प्रतिदिन सामायिक आदि धार्मिक क्रियाएं करता था। एक दिन सांयकाल के समय फतहमलजी सिंघी का बाजार में से निकलना हुआ। वे जैन श्रावक थे और जोधपुर राज्य के दीवान थे। उन्होंने श्रावकों के पास आकर वहां सामायिक करने का कारण पूछा। व्यासजी ने तब उनको स्वामीजी की धर्म क्रांति का सारा विवरण सुनाया। दीवानजी के द्वारा पूछे गए अन्य प्रश्नों के उत्तर भी उन्होंने ही दिए। साधुओं और श्रावकों की तेरह संख्या के आकस्मिक संयोग ने दीवानजी को आश्चर्य में डाला तो उनके साथ आए 'सेवग' जाति के एक कवि ने अपनी तत्काल रचित कविता में स्वामीजी के अनुयायियों को *'तेरापंथी'* नाम से संबोधित किया। नामकरण की उक्त घटना के समाचार स्वामीजी को ज्ञात हुए तो उन्होंने *'हे प्रभो! यह तेरापंथ है'* कहकर उसे नवीन अर्थ दिया और स्वीकार कर लिया। इस प्रकार तेरापंथ के नामकरण संस्कार के साथ व्यासजी का नाम अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

*गेरूलालजी व्यास के जीवन की प्रेरणादायी* घटनाओं के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

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