01.09.2017 ►Media Center Ahinsa Yatra ►News

Published: 01.09.2017
Updated: 15.11.2017

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News in Hindi:

अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
आत्म चिकित्सक की मंगल सन्निधि में पहुंचे शरीर के चिकित्सकगण
-शरीर में व्याधि आना भी आदमी को ले जाता है आर्त ध्यान की ओर: आचार्यश्री महाश्रमण
-आचार्यश्री ने समता भाव से सहन करने, चित्त को प्रसन्न व समाधि में रहने की दी प्रेरणा
-टीपीएफ द्वारा आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में द्वितीय डाक्टर्स कान्फ्रेंस का आयोजन
-पद्मश्री पुरस्कार डा. के.के. अग्रवाल ने भी आचार्यश्री के दर्शन कर दी भावाभिव्यक्ति
01.09.2017 राजरहाट, कोलकाता (पश्चिम बंगाल)ः जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, महातपस्वी और अपने अपनी मंगल आगमवाणी से जन-जन की आत्मा को एक चिकित्सक की भांति स्वस्थ बनाने और उसे कल्याण का पथ दिखाने वाले आत्म चिकित्सक आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में शुक्रवार को भौतिक युग के कार्य चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े चिकित्सक आध्यात्मिक प्रेरणा से अपनी आत्मा की चिकित्सा कराने को पहुंचे। आचार्यश्री ने अपनी मंगलवाणी से उनकी आत्मा को आध्यात्मिक चिकित्सा से भावित किया और उन्हें शारीरिक व्याधियों में भी समता भाव से मानसिक स्थिरता बनाए रखते हुए अपने कर्मों की निर्जरा कर अपनी आत्मा को उज्जवल बनाने का ज्ञान प्रदान किया।
    शुक्रवार को महाश्रमण विहार के अध्यात्म समवसरण में श्रद्धालुओं संग द्वितीय डाक्टर्स कान्फ्रेंस में आए चिकित्सकों की उपस्थिति में आचार्यश्री ने अपनी मंगलवाणी का शुभारम्भ ‘ठाणं’ आगम से आरम्भ करते हुए विगत दो दिनों आर्त ध्यान चल रहे व्यख्यान को आगे बढ़ाया और कहा कि आर्त ध्यान में जाने का तीसरा कारण होता है शरीर में व्याधियों का आतंक हो जाना। जब किसी व्यक्ति के शरीर में अत्यधिक पीड़ा होती है तो व्यक्ति उससे दूर होने के लिए जिस चिन्तन में चला जाता है, वह आर्त ध्यान होता है। आचार्यश्री ने शरीर को व्याधियों का मंदिर बातते हुए कहा कि शरीर में होने वाली बीमारियों का चिकित्सा जगत वात, पित्त, कफ या कुछ अन्य भी बताता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर में व्याधि आने का का कारण कर्म होता है। व्यक्ति अपने कर्मों के फल के कारण ही व्याधि को प्राप्त होता है। आचार्यश्री ने सातवेदनीय कर्म और असातवेदनीय कर्म का वर्णन करते हुए कहा कि अनुकंपा पूरित भाव के उदय से सातवेदनीय कर्म का बंध और निरनुकंपा भाव अर्थात् किसी को निर्दयता के साथ मारना, पीटना, काटना आदि से असातवेदनीय कर्मों का बंध होता है। आदमी के पीछले जन्मों के कर्म भी उसके शरीर में व्याधि बनाने के कारण होते हैं। इसलिए आदमी को शरीर में व्याधि के उत्पन्न होने पर भी उसे समता भाव से सहन करने का प्रयास करना चाहिए और विचार करने का प्रयास करना चाहिए कि यह हमारे कर्मों का प्रतिफल है तो उसके माध्यम से कर्मों की निर्जरा हो सकती है और आत्मा निर्मलता को प्राप्त कर सकती है। बीमारी में आदमी मनोबल रखे, शांति रखे तो यह भी एक प्रकार की साधना है।
    आचार्यश्री तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम द्वारा आयोजित द्वितीय डाक्टर्स कान्फ्रेंस को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि यह सभी चिकित्सक वर्ग शारीरिक स्वस्थता के साथ आध्यात्मिक स्वस्थता भी प्रदान करने का प्रयास करें। किसी मरीज को आध्यात्मिक शांति प्रदान करने और आत्मा को निर्मल और पवित्र बनाने का प्रयास कर सकते हैं। आचार्यश्री के मंगल उद्बोधन के उपरान्त तेरापंथ प्रोफशनल फोरम के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रकाश मालू व इस कान्फ्रेंस के संयोजक डा. निमर्ल चोरड़िया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से आशीर्वाद प्राप्त किया। इस कान्फ्रेंस के मुख्य अतिथि इंडियन मेडिकल ऐसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त डा. के.के. अग्रवाल ने भी आचार्यश्री के पावन प्रवचन सुनने के उपरान्त दर्शन कर अपनी भावाभिव्यक्ति दी और पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।

 
 

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