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#जैनधर्म की #श्वेतांबर और #दिगंबर परंपरा के #आचार्यों का #जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *#श्रंखला -- 125* 📝
*परोपकार परायण आचार्य पादलिप्त*
*जीवन-वृत्त*
पादलिप्त के पिता फुल्लचंद्र कौशल नगरी के श्रीसंपन्न श्रेष्ठी थे। उनकी पत्नी प्रतिमा रूपवती एवं गुणवती महिला थी। विविध गुणों से संपन्न होने पर भी निःसंतान होने के कारण प्रतिमा चिंतित रहती। विविध औषधियों का सेवन तथा नाना प्रकार के तंत्र-मंत्र आदि के प्रयोग भी विफल हो गए। प्रतिमा की इच्छा पूर्ति नहीं हुई। एक बार उसने संतान प्राप्ति हेतु वैरोट्या देवी की आराधना में अष्ट दिन का तप किया। तप के प्रभाव से देवी प्रकट हुई। उसने कहा "ज्ञान-सागर, लब्धि-संपन्न आचार्य नागहस्ती के पाद प्रक्षालित उदक का पान करो, उससे तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।"
देवी के मार्गदर्शन से प्रतिमा प्रसन्न हुई। वह भक्ति-भरित हृदय से उपाश्रय में पहुंची। आचार्य नागहस्ती के पाद प्रक्षालित उदक की उपलब्धि उसे एक मुनि के द्वारा हुई।
चरणोदक पान करने से पाद प्रतिमा ने नागहस्ती के निकट जाकर दर्शन किए। नागहस्ती ने प्रतिमा से कहा "तुमने मेरे से दस हाथ दूर चरणोदक पान किया है, अतः तुम्हें दस पुत्रों की प्राप्ति होगी। उनमें तुम्हारा प्रथम पुत्र तुमसे दस योजन दूर जाकर धार्मिक विकास करेगा। वीतराग शासन की गौरव वृद्धि करेगा एवं वृहस्पति के समान बुद्धिमान होगा। तुम्हारी अन्य संतानें भी यशस्वी होंगी।"
आर्य नागहस्ती से संतान प्राप्ति का वचन प्राप्त कर प्रतिमा अतीव प्रसन्न हुई। वह मधुर संभाषण करती हुई विनम्र होकर बोली "गुरुदेव आपके मंगल आशीर्वाद से मुझे दस संतानों की प्राप्ति होगी उनमें से मैं अपने प्रथम पुत्र को आपके चरणों में समर्पित करूंगी।" प्रतिमा गुरु के चरणों में कृतज्ञता ज्ञापित कर संतति प्राप्ति की आशा के साथ अपने घर लौटी। श्रेष्ठी फुल्लचंद्र पत्नी प्रतिमा से समग्र वृत्तांत सुन प्रसन्न हुए और गुरुचरणों में प्रथम संतान को समर्पित करने का सहर्ष समर्थन किया।
काल-मर्यादा संपन्न होने पर प्रतिमा ने कामदेव के समान सुंदर, सूर्य जैसे तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र के गर्भकाल में प्रतिमा ने नाग का स्वप्न देखा था। स्वप्न के आधार पर पुत्र का नाम नागेंद्र रखा गया। माता की ममता पिता के वात्सल्य और परिजनों के स्नेहसिक्त वातावरण में वह बड़ा हुआ।
*क्या... श्रेष्ठी फुल्लचंद्र और प्रतिमा ने अपने वचन के अनुसार शिशु को आचार्य नागहस्ती को समर्पित किया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
#प्रस्तुति --🌻#तेरापंथ #संघ #संवाद🌻
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💢⭕💢⭕💢⭕💢⭕💢⭕💢
आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕#सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 125📝
*#व्यवहार-#बोध*
*सेवा*
(दोहा)
*64.*
सम्बन्धी सम्बन्ध से, जो सेवा का भाव।
है उससे बढ़-चढ़ कहीं, सेवा बिना लगाव।।
*65.*
मिले स्वल्प भी यदि कभी, साधर्मिक सहकार।
बड़ी कृपा की आपने, बोले वचन उदार।।
*36. सम्बन्धी सम्बन्ध से...*
तेरापंथ धर्मसंघ में सबकी सेवा होती है और सब सेवा करते हैं। सेवा के मामले में स्वार्थ और संबंधों की बात गौण होती है। अमुक व्यक्ति की सेवा करने से मुझे यह लाभ मिल सकता है अथवा अमुक व्यक्ति मेरा संबंधी है, इस भावना से भी सेवा की जा सकती है। पर किसी संबंध, लगाव और स्वार्थ के बिना जो सेवा की जाती है, वह उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी तुलना में उसे नहीं रखा जा सकता।
लय– देव! तुम्हारे...
*66.*
तन रोगी का क्या कहना,
मन रोगी का भी हो निस्तार।
भैक्षवगण की ऊंचाई में,
क्यों हो कभी किसी का भार?
*37. तन रोगी का...*
रोग दो प्रकार के होते हैं— शारीरिक और मानसिक। दोनों प्रकार के रोगों से आक्रांत व्यक्तियों को सेवा की अपेक्षा रहती है। तेरापंथ धर्मसंघ में शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ और अक्षम व्यक्तियों की सेवा होती है, वह सबके सामने है। यहां मानसिक रोगी की भी उपेक्षा नहीं की जाती। धर्मशासन के लिए गौरव की बात है कि कभी किसी को भार नहीं माना जाता। प्रारंभ से लेकर आज तक संघ ने कितने मानसिक रोगियों को संभाला है, उनका निर्वाह किया है, यह समझने की बात है। इस विषय में जयाचार्य ने लिखा है—
कोइक तो है तन रो रोगी,
कोई मन रो रोगी धारी रे।
नीत हुवै चारित्र पालण री,
तो देणो साझ उदारी रे।।
जिस संघ के आचार्य अपने शिष्यों के प्रति इतने जागरूक हों, उसी संघ में सब प्रकार के व्यक्तियों का निर्वाह संभव है।
(दोहा)
*67.*
भक्ति विधा जो संघ की, है तप विनय प्रकार।
गण-प्रभावना का गणित, सेवा का संस्कार।।
*38. भक्ति विधा जो...*
'भक्ति' हमारा पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है सात्विक अनुराग या श्रद्धा से किया जाने वाला सत्कार-सम्मान और भोजन पानी आदि से संबंधित सेवा। तेरापंथ धर्मसंघ की परंपरा के अनुसार साधु-साध्वियों के मिलन प्रसंग में भक्ति की विधि है। किसी गांव में साधु-साध्वियां विहार करके आए और वहां से पहले से साधु-साध्वियों का कोई सिंघाड़ा– वर्ग हो तो वह आगंतुक सिंघाड़े की भक्ति करे– उनके लिए स्थान, भोजन, पानी आदि की व्यवस्था करे, सुविधानुसार उनकी अगवानी में जाए और उनका सत्कार-सम्मान करे। यह बहुत अच्छी और स्वस्थ परंपरा है। इसमें न तो किसी प्रकार की शिथिलता आने पाए और न केवल औपचारिकता बढ़े। आंतरिक उत्साह के साथ भक्ति की परंपरा का निर्वाह धर्मशासन की प्रभावना एवं पारस्परिक सौहार्द की वृद्धि का निमित्त है।
*केकड़ा वृत्ति* के बारे में आगे पढेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻#तेरापंथ #संघ #संवाद🌻
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👉 #अहमदाबाद - श्रीमती सुकीदेवी का #तिविहार #संथारा गतिमान
👉 #अहमदाबाद - तीज स्नेह मिलन समारोह
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📝 *#श्रंखला -- 125* 📝
*परोपकार परायण आचार्य पादलिप्त*
*जीवन-वृत्त*
पादलिप्त के पिता फुल्लचंद्र कौशल नगरी के श्रीसंपन्न श्रेष्ठी थे। उनकी पत्नी प्रतिमा रूपवती एवं गुणवती महिला थी। विविध गुणों से संपन्न होने पर भी निःसंतान होने के कारण प्रतिमा चिंतित रहती। विविध औषधियों का सेवन तथा नाना प्रकार के तंत्र-मंत्र आदि के प्रयोग भी विफल हो गए। प्रतिमा की इच्छा पूर्ति नहीं हुई। एक बार उसने संतान प्राप्ति हेतु वैरोट्या देवी की आराधना में अष्ट दिन का तप किया। तप के प्रभाव से देवी प्रकट हुई। उसने कहा "ज्ञान-सागर, लब्धि-संपन्न आचार्य नागहस्ती के पाद प्रक्षालित उदक का पान करो, उससे तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।"
देवी के मार्गदर्शन से प्रतिमा प्रसन्न हुई। वह भक्ति-भरित हृदय से उपाश्रय में पहुंची। आचार्य नागहस्ती के पाद प्रक्षालित उदक की उपलब्धि उसे एक मुनि के द्वारा हुई।
चरणोदक पान करने से पाद प्रतिमा ने नागहस्ती के निकट जाकर दर्शन किए। नागहस्ती ने प्रतिमा से कहा "तुमने मेरे से दस हाथ दूर चरणोदक पान किया है, अतः तुम्हें दस पुत्रों की प्राप्ति होगी। उनमें तुम्हारा प्रथम पुत्र तुमसे दस योजन दूर जाकर धार्मिक विकास करेगा। वीतराग शासन की गौरव वृद्धि करेगा एवं वृहस्पति के समान बुद्धिमान होगा। तुम्हारी अन्य संतानें भी यशस्वी होंगी।"
आर्य नागहस्ती से संतान प्राप्ति का वचन प्राप्त कर प्रतिमा अतीव प्रसन्न हुई। वह मधुर संभाषण करती हुई विनम्र होकर बोली "गुरुदेव आपके मंगल आशीर्वाद से मुझे दस संतानों की प्राप्ति होगी उनमें से मैं अपने प्रथम पुत्र को आपके चरणों में समर्पित करूंगी।" प्रतिमा गुरु के चरणों में कृतज्ञता ज्ञापित कर संतति प्राप्ति की आशा के साथ अपने घर लौटी। श्रेष्ठी फुल्लचंद्र पत्नी प्रतिमा से समग्र वृत्तांत सुन प्रसन्न हुए और गुरुचरणों में प्रथम संतान को समर्पित करने का सहर्ष समर्थन किया।
काल-मर्यादा संपन्न होने पर प्रतिमा ने कामदेव के समान सुंदर, सूर्य जैसे तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र के गर्भकाल में प्रतिमा ने नाग का स्वप्न देखा था। स्वप्न के आधार पर पुत्र का नाम नागेंद्र रखा गया। माता की ममता पिता के वात्सल्य और परिजनों के स्नेहसिक्त वातावरण में वह बड़ा हुआ।
*क्या... श्रेष्ठी फुल्लचंद्र और प्रतिमा ने अपने वचन के अनुसार शिशु को आचार्य नागहस्ती को समर्पित किया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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*#व्यवहार-#बोध*
*सेवा*
(दोहा)
*64.*
सम्बन्धी सम्बन्ध से, जो सेवा का भाव।
है उससे बढ़-चढ़ कहीं, सेवा बिना लगाव।।
*65.*
मिले स्वल्प भी यदि कभी, साधर्मिक सहकार।
बड़ी कृपा की आपने, बोले वचन उदार।।
*36. सम्बन्धी सम्बन्ध से...*
तेरापंथ धर्मसंघ में सबकी सेवा होती है और सब सेवा करते हैं। सेवा के मामले में स्वार्थ और संबंधों की बात गौण होती है। अमुक व्यक्ति की सेवा करने से मुझे यह लाभ मिल सकता है अथवा अमुक व्यक्ति मेरा संबंधी है, इस भावना से भी सेवा की जा सकती है। पर किसी संबंध, लगाव और स्वार्थ के बिना जो सेवा की जाती है, वह उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी तुलना में उसे नहीं रखा जा सकता।
लय– देव! तुम्हारे...
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तन रोगी का क्या कहना,
मन रोगी का भी हो निस्तार।
भैक्षवगण की ऊंचाई में,
क्यों हो कभी किसी का भार?
*37. तन रोगी का...*
रोग दो प्रकार के होते हैं— शारीरिक और मानसिक। दोनों प्रकार के रोगों से आक्रांत व्यक्तियों को सेवा की अपेक्षा रहती है। तेरापंथ धर्मसंघ में शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ और अक्षम व्यक्तियों की सेवा होती है, वह सबके सामने है। यहां मानसिक रोगी की भी उपेक्षा नहीं की जाती। धर्मशासन के लिए गौरव की बात है कि कभी किसी को भार नहीं माना जाता। प्रारंभ से लेकर आज तक संघ ने कितने मानसिक रोगियों को संभाला है, उनका निर्वाह किया है, यह समझने की बात है। इस विषय में जयाचार्य ने लिखा है—
कोइक तो है तन रो रोगी,
कोई मन रो रोगी धारी रे।
नीत हुवै चारित्र पालण री,
तो देणो साझ उदारी रे।।
जिस संघ के आचार्य अपने शिष्यों के प्रति इतने जागरूक हों, उसी संघ में सब प्रकार के व्यक्तियों का निर्वाह संभव है।
(दोहा)
*67.*
भक्ति विधा जो संघ की, है तप विनय प्रकार।
गण-प्रभावना का गणित, सेवा का संस्कार।।
*38. भक्ति विधा जो...*
'भक्ति' हमारा पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है सात्विक अनुराग या श्रद्धा से किया जाने वाला सत्कार-सम्मान और भोजन पानी आदि से संबंधित सेवा। तेरापंथ धर्मसंघ की परंपरा के अनुसार साधु-साध्वियों के मिलन प्रसंग में भक्ति की विधि है। किसी गांव में साधु-साध्वियां विहार करके आए और वहां से पहले से साधु-साध्वियों का कोई सिंघाड़ा– वर्ग हो तो वह आगंतुक सिंघाड़े की भक्ति करे– उनके लिए स्थान, भोजन, पानी आदि की व्यवस्था करे, सुविधानुसार उनकी अगवानी में जाए और उनका सत्कार-सम्मान करे। यह बहुत अच्छी और स्वस्थ परंपरा है। इसमें न तो किसी प्रकार की शिथिलता आने पाए और न केवल औपचारिकता बढ़े। आंतरिक उत्साह के साथ भक्ति की परंपरा का निर्वाह धर्मशासन की प्रभावना एवं पारस्परिक सौहार्द की वृद्धि का निमित्त है।
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News in Hindi
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11 अगस्त का #संकल्प
*तिथि:- भादवा कृष्णा चतुर्थी*
परस्पर बढ़े प्रेम हो वचल बल का ऐसा प्रयोग ।
रहे शुद्धता वाणी की रखें हमेशा यह उपयोग ।।
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