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Published: 15.07.2017
Updated: 15.07.2017

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श्रुत संबर्धन ज्ञान संस्कार शिविर सम्पन्न
Jain Star News Network | July 15,2017
ऋषिकेष । परम पूज्य सराकोद्वारक आचार्य श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से श्रुत संबर्धन संस्थान मेरठ के तत्वाधान में उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश के अनेक अंचलों में पहली बार श्रुत संबर्धन ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर उत्तर प्रदेश में सहारनपुर जैन बाग, आवास विकास बड़तला का स्थान नकुड़ सुलतानपुर,सरसाबा, चिलकाना, उत्तराखण्ड में विकास नगर देहरादून, हरिद्वार, मंगलोर, ऋषिकेष, चकरोता, हिमाचल में पौडा, साहिब आदि स्थानों पर धर्म प्रभावना पूर्वक संपन्न हुए। शिक्षण शिविर में अध्यापन कराने पं. जयकुमार दुर्ग, पं. कैलाष शास्त्री पोरसा, पं. दीपक शास्त्री सागर, पं. कोमल शास्त्री खड़ेरी, पं.शिवम शास्त्री खनयादाना, पं.आदित्य शास्त्री बड़ामलहरा, पं. हेमंत शास्त्री जयपुर, पं. अक्षय शास्त्री, पं. दीपेश शास्त्री भगवाँ, पं. विकास शास्त्री दिल्ली, पं. हर्षित शास्त्री मथुरा, पं. चेतन शास्त्री अमरमऊ, पं. अनिल शास्त्री मथुरा, पं. विवेक शास्त्री बलदेवगढ़, पं. मोहित शास्त्री मथुरा, पं. राजेष शास्त्री भगवाँ, पं. अरिहंत पोर्सा, पं. रोहित शास्त्री भगवाँ, पं. ऋषभ शास्त्री मेनवार, पं. सचिन शास्त्री शाहपुर ने कक्षाए ली।
शिक्षण शिविर में स्थानीय संयोजक द्वारा सुबह से शाम तक की क्लासों की व्यवस्थाए बनाकर प्रभावना की जिसमें श्रीमती निशा जैन, राकेश जैन, अनिल जैन, दिनेश जैन, श्रीमती सुनीता जैन, अनिल जैन, रविन्द्र जैन, श्रीमती रेणु जैन, श्रीमती रूचि जैन, सचिन जैन, नवीन जैन का स्थानीय शिविर संचालन में सहयोग रहा। शिक्षण शिविर में सुबह से प्रार्थना, योग, पूजन प्रशिक्षण, ज्ञान दर्पण भाग-1,2 छहडाला भक्तामर तत्वार्थसूत्र और सभी स्थानों पर अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराए गए। शिविर के अन्त में सभी विषय की परीक्षाए ली गई। सभी स्थानों पर स्थानीय शिविरों का समापन समारोह कार्यक्रम रखा गया इसमें स्थानीय समिति द्वारा सभी बच्चों को पुरूस्कार देकर सम्मानित किया गया साथ ही अध्यापन कराने आए विद्वानों का भी सम्मान किया गया। शिविरों के निरीक्षण के लिए शिविर समिति के संयोजक मनीष शास्त्री शाहगढ़, चेतन जैन बण्डा सह संयोजक राहुल शास्त्री भगवाँ ने निरीक्षण किया।
अंत में शिविरों का सामूहिक समापन समारोह कार्यक्रम ब्र. अनीता दीदी के सानिध्य में श्री दिगम्बर जैन मंदिर ऋषिकेष (यू.के.) में संपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता इंजी. दिनेश जैन भिलाई छत्तीसगढ़, मुख्य अतिथि नगर परिषद् ऋषिकेष अध्यक्ष, पं. दीप शर्मा, श्री कमल जैन, ऋषिकेष रहे। मुख्य अतिथियो में शिविर मुख्य संयोजक ब्र. जयनिषांत टीकमगढ़, परामर्श प्रमुख डाॅ. श्रेयांष जैन बड़ोद, ब्र. नितिन भैया खुरई मंचासीन रहे।
मंगलाचरण पं. चेतन शास्त्री मथुरा ने किया, चित्र अनावरण दीपप्रज्वलन मंचासीन अतिथियों ने किया, मंचासीन अतिथियों का सम्मान चेतन बण्डा, संजीव जैन सहानपुर, अरविंद जैन विकासनगर एवं स्थानीय मंदिर समिति के पदाधिकारियों ने किया। साथ ही पहली बार ऐसा अवसर प्राप्त हुआ जिसमें श्रुत संबर्धन ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविरों का सामूहिक समापन एवं अखिल भारत वर्षीय शास्त्री परिषद् के शिविर का उद्घाटन समारोह का कार्यक्रम सायं काल संपन्न होना था। जिसके लिये देश भर के अनेक ख्याति प्राप्त विद्वानों का समागम प्राप्त हुआ व सभी विद्वानों का सम्मान शिविर समिति द्वारा किया गया। कार्यक्रम में नन्ने मुन्ने बच्चों द्वारा सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी गई। मंचासीन अतिथियों द्वारा शिविर संयोजक मनीष शास्त्री शाहगढ़,चेतन जैन बण्डा, सह संयोजक राहुल शास्त्री भगवाँ, अरविंद जैन विकास नगर का सम्मान किया गया। साथ ही प्रथम द्वितीय तृतीय स्थान प्राप्त शिविरार्थियों स्थानीय संयोजकों विद्वानों का सम्मान किया गया कार्यक्रम का संचालन शिविर सयोजक मनीष शास्त्री ने किया। कार्यक्रम के दौरान अनेक वक्ताओं ने अपने विचार रखें।
ब्र. जयकुमार निषांत ने अपने उद्बोधन में कहा कि अगर हमें अपने बच्चों को संस्कार वान बनाना है तो भारतीय संस्कृति के गुणों से इनके लिए सिंचित करना होगा पश्चिम की संस्कृति को छोड़ना होगा। पं. दीप शर्मा ने पूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का देव भूमि में पर्दापण के लिये उत्तराखण्ड का सौभाग्य माना। और कहा यह भूमि देव भूमि के नाम से प्रसिद्ध है हमें ऐसे महान तपस्वियों के सानिध्य का अवसर प्राप्त होता है और हम उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते है इन बच्चों के लिये धार्मिक शिक्षा देना मतलब भारतीय संस्कृति को बचाना है। हमारा सौभाग्य था कि हमें इस कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। ब्र. अनीता दीदी ने अपने विचारों में कहा कि परम पूज्य ज्ञान सागर महाराज जी की प्रेरणा से सन 2000 से 2017 तक देश के 12 राज्यों में 750 स्थानों पर 80000 शिविरार्थियों को ज्ञान दान देने का अवसर इन नवोदित विद्वानों को मिला है। नवोदित विद्वान अपने एक माह की छुट्टी का समय घर न जाकर शिक्षण शिविरों में अध्यापन के लिए देते है श्रुत संबर्धन संस्थान मेरठ के सहयोग से यह कार्यक्रम निरंतर चल रहा है। इस बार उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश के अनेक स्थानों पर शिविरों का आयोजन हुआ जिसमें प्रथम द्वितीय तृतीय स्थान प्राप्त शिवरार्थियों स्थानीय संयोजको विद्वानों का सम्मान समारोह का कार्यक्रम इस मंच से हो रहा है। पूज्य श्री का सभी के आशीर्वाद से आप ऐसे ही धर्म प्रभावना करते रहें।

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लूनकरनसर: सुमन चोपड़ा बनी तेरापंथ महिला मंडल अध्यक्षा
Jain Star News Network | July 15,2017
लूनकरनसर। स्थानीय तेरापंथ भवन में लुनकरनसर महिला मंडल की हाल ही में संपन्न हुई बैठक में सर्वसम्मति से सुमन चोपड़ा को 2017-19 सत्र के लिए अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया गया। सुमन चौपडा इसी मंडल में 4 साल मंत्री व 4 साल उपाध्यक्षा पद पर कार्य कर चुकी है। नव मनोनीत सुमन चोपड़ा ने सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि मेरे लिए यह गर्व की बात है,कि मुझे समाज की सेवा का अवसर प्राप्त हो रहा है।
मैं आप सभी को आश्वस्त करना चाहूंगी कि मैं अपने इस दायित्व को पूर्ण निष्ठा के साथ आप सभी के सहयोग निभाने का प्रयास करूंगी। नव अध्यक्षा ने परम पूज्य प्रवर व साध्वी प्रमुखा श्री पान कुमारी जी से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। साध्वीजी ने मंगल पाठ का श्रवण कराया।

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इस चातुर्मास में हम भी बदलें, अपना जीवन
BY-डाॅ सुनील जैन ‘संचय’,15 जुलाई,2017
श्रमण, वैदिक व बौद्ध संस्कृति में चातुर्मास की व्यवस्था है। धर्म व धर्म पथ पर चलने वाले संत साधु अहिंसा और जीव दया की भावना से चार माह तक एक स्थान पर रहते है,जिसे चातुर्मास कहा जाता है।
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भारत देश व्रत, पर्व के लिए जाना जाता है। भारत में धर्म का वैभव अनुपमेय है। यहाँ अनेक संस्कृतियाँ हैं। जिसमें जीवदया, करुणा, अहिंसा आदि को सर्वोपरि माना गया है। प्रत्येक संस्कृति के अपने नियम व सिद्धांत है। परन्तु धर्म की व्याख्या और व्यवस्था में अधिक अंतर नहीं दिखाई देता है।
चातुर्मास न केवल बल्कि श्रमण, वैदिक व बौद्ध संस्कृति में भी चातुर्मास की व्यवस्था है। धर्म व धर्म पथ पर चलने वाले संत साधु अहिंसा और जीव दया की भावना से चार माह तक एक स्थान पर रहते है जिसे चातुर्मास कहा जाता है।
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में चातुर्मास की प्रशस्त परम्परा रही है। विभिन्न धार्मिक स्थानों में वर्षायोग या चातुर्मास के कारण अति महत्व का माना गया है। साधु-मुनि को वर्षा के शुरू होने के साथ ही साधना के विभिन्न प्रयोग करने का अवसर मिलता है। एक साथ चार माह तक एक ही स्थान क्षेत्र पर विराजमान हो जाते हैं। इसी स्थिरता को चातुर्मास योग कहा जाता है। यह परम्परा दीर्घकालीन है और वर्तमान में भी इसका पालन होता है। चातुर्मास से जुडे हुए अनेकों बिन्दु हैं। संतों की साधना का सर्वाधिक महत्व है और श्रावकों के लिए भी प्रतिक्रमण का विधान है। जिस श्रावक को आत्मा की उन्नति की लगन लग जाती है उस साधक के लिए यह पर्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वर्षायोग और मानवी करण का जागरण करता है। क्षमा की भावना पैदा करता है।
श्रमण संस्कृति के श्रमण संविधान में चातुर्मास जहाँ आध्यात्मिक जाग्रति का पर्व है। वहाँ जीव दया, करुणा, मैत्री, प्रमोद और अहिंसा का महान पर्व भी है। इसमें चतुर्विध संघ अपने व्रतों की सीमाओं में रहकर आत्म विशुद्धि को बढ़ाते है। जिनवाणी की आराधना संरक्षण, संवर्धन के साथ-साथ समाज को धर्म से जोड़कर विश्व कल्याण की भावना में संलग्न रखते है।
वर्षा योग का समय श्रमणों एवं श्रावकों के लिए धर्म ध्यान व आराधना के लिए उत्तम है। इस समय समस्त गृहकार्यों से मुक्त होता है गृहस्थ। वर्षा के कारण व्यापार में मन्दता, विवाहादि में कमी एवं धार्मिक अनुष्ठानों में वृद्धि हो जाती है। अत एव वर्षायोग अहिंसा और करुणा की महानदशा को उत्पन्न करने का महान अवसर होता है।
वर्षायोग की प्राचीनता मूलाचार ग्रन्थ, हिन्दू ग्रन्थ बाल्मीकि रामायण और बौद्ध ग्रन्थों में देखने को मिलती है। जिसमें श्रमण साधु निरंतर उसका पालन करते हुए अहिंसा की अवधारणा को व्यवस्थित किए हुए हैं।
वर्षायोग श्रावण, भाद्रपद, अश्विन और कार्तिक इन चार महीने के योग को कहते है। अतः स्पष्ट है कि वर्षाऋतु के दो माह नहीं अपितु वर्षाकाल के चार माह से है। चार माह वर्षा होती है जिसमें सूक्ष्म व स्थूल जीवों की उत्पत्ति होती है उनकी विराधना न हो, साथ ही उनके प्रति दया की भावना बनी रहे अतः यह काल चातुर्मास सार्थक संज्ञा को लिए हुए है।
वर्षायोग की स्थापना आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन की जाती है। जिनसेन स्वामी ने आषाढ़ माह की प्रतिपदा एवं अनेक आचार्यों ने पंचमी तक का विधान किया है। इसकी समाप्ति कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन की जाती है।
वर्षायोग की स्थापना व निष्ठापन अनेक भक्तियों पूर्वक की जाती है। इसमें प्रत्याख्यान विधि पूर्वक उपवास ग्रहण करके प्रतिक्रमण विधि की जाती है। सिद्धभक्ति, शांतिभक्ति, समाधिभक्ति आदि पढ़ी जाती हैं।
चातुर्मास अनेक प्रकार के लाभ को प्रदान करने वाला होता है। इसके माध्यम से चतुर्विध संघ का मंगल सान्निध्य मिलता है जिससे धर्म के स्वरुप और धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। संतों के समागम से संसार के स्वरुप, मोह, राग-द्वेष के प्रति बैठी कुत्सित अवधारणा को दूर करने का योग बनता है। जिनेन्द्र भगवान के तीर्थ का स्वरुप और उस पर चलने की प्रेरणा मिलती है। संयम की ओर कदम बढ़ते है। प्रत्येक जीव के प्रति करुणा की भावना उत्पन्न होती है। हमें अपने स्वरुप की आभास होता है। अतः क्रोध, मान, माया, लोभ के प्रति हमारी समझ विकसित होती है जिससे दूर होने का प्रयास किया जाता है। अतएव चैमासा/वर्षायोग स्व-पर के प्रति अहिंसा को जागृत करता है और करुणा को उत्पन्न करता है। प्रत्येक वर्ष हमें चातुर्मास का सुयोग मिलता है, अनेक संतों का सान्निध्य मिलता है, पर सवाल है कि हम अपने जीवन को इन दिनों में कितना बदल पाये! हमने इन दिनों में क्या पाया? क्या हम इन दिनों में अपने जीवन में कुछ संयम की ओर कदम बढ़ा पाए या फिर मात्र चातुर्मास को यूं ही प्रतिवर्ष की भांति व्यतीत कर दिया। चातुर्मास केवल साधु के लिए नहीं श्रमण जीवन को भी संवारने व सम्हालने का अवसर प्रदान करता है।
जैनधर्म में चातुर्मास का अत्यधिक महत्व है। चातुर्मास काल सदैव आध्यात्मिक वातावरण और अच्छे विचार परिवर्तन का अवसर प्रदान करते हैं। जिस प्रकार बादल की सार्थकता बरसने में है, पुष्प की सुगंध में तथा सूय्र की सार्थकता रोशनी में है उसी प्रकार चातुर्मास की सार्थकता परिवर्तन में है। इस चातुर्मास के दौरान संत और साध्वी के साथ लोग व्रत, तप व साधना करेंगे। वे धर्मावलंबियों को नियमित सत्य, अहिंसा और संयम का मार्ग बतायेंगे। उनके प्रवचन का लाभ जैन समाज सहित अन्य लोग भी ले सकेंगे।
चातुर्मास में तो संत प्रवचन देते हैं इसके बावजूद यदि आपके जीवन में परिवर्तन की सफलता ना मिले तो उसका कारण अपने अंदरन खोजना होगा। यह तलाश हम सभी अपने अंदर करें की गडबडी कहां हुई। प्रवचन केवल समय बिताने का माध्यम नहीं बल्कि भगवान महावीर, आचार्य भगवंतो का पवित्र संदेश विस्तार है। सभी चारित्रिक आत्माएं भगवान महावीर का संदेश आप तक पहुंचाने पग-पग चलकर आपके पास आए हैं। प्रवचनों में खास तौर पर सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, व्यसन मुक्ति, जीवन विज्ञान, ब्रह्राचर्य आदि को जीवन में अपनाने के उपाय बताए जाएंगे। भारत की भूमि धर्म के लिहाज से बहुत ही उर्वरा है, और मुझे उम्मीद है कि हम सभी जैन सच्चे अनुयायी की तरह चातुर्मास काल का लाभ लेकर परिवर्तन के मार्ग पर अग्रसर होंगे।
चातुर्मास का समय बडा ही पवित्र तथा श्रमण व श्रावकों के लिये धर्म -ध्यान के लिये उत्तम है। वैसे भी भारतीय संस्कृति में सभी परंपराओं में श्रावण और भादों का महीना विश्वस्त पर्व और त्योहारों से भरा हुआ है। अतः इन दिनों पर तरफ अलग ही उल्लास का वातावरण दिखता है। साथ ही साथ व्यसाय की मंदता और विवाहादि गृाहस्थिक कार्यों की मंदता रहती है, इसलिए श्रावकजन भी भक्तिपूजा और स्वाध्याय, प्रवचन आदि का धर्म लाभ निराकुलता से लेते हैं। इन दिनों में व्रत, उपवास और पूजा विधानादि के अनुष्ठान करके श्रावक समाज धर्म की प्रभावना बढाता है तो वहीं मुनिसंघों से धर्मदेशना पाकर आहार विचार, व्यवहार और व्यापार में शुद्धता लाने का प्रयास भी करता है।
हमें प्रयास करना होगा कि चातुर्मास की उपलब्धियों में आत्म उपलब्धि की ओर ध्यान दें। आज जिस तरह से चातुर्मासों में प्रदर्शन और मोह माया का दिखावा बढ़ रहा है यह चिंतनीय है। प्रतिवर्ष चातुर्मास में एक हजार करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च होने का अनुमान है, क्या यह राशि हमारी समाज को एक दीर्घकालीन उपलब्धि नहीं दे सकती? हमें जरूर विचार करना चाहिए। इस चातुर्मास में हम भी अपने मन में संयम की ओर बढ़ने का प्रयास करें।

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