28.06.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 28.06.2017
Updated: 06.07.2017

Update

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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 92📝

*व्यवहार-बोध*

*भाषा*

*2. वही सुधा की सहनाणी...*

सवाई जयसिंह आमेर नरेश श्री विशनसिंह के पुत्र थे। राजा विशनसिंह शाही दरबार में जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने बादशाह औरंगजेब की छोटी पुत्री के माध्यम से अपने स्थान पर युवराज जयसिंह को कुछ समय दरबार में भिजवाने की व्यवस्था कर ली। युवराज पहली बार अप्रैल 1696 में बादशाह के दरबार में गए। उस समय उनकी अवस्था आठ वर्ष की थी।

बादशाह युवराज से क्या पूछेगा? यह किसी को ज्ञात नहीं था। संभावना के आधार पर राजमाता ने उन्हें कुछ गुर बता दिए। युवराज ने सहज भाव से माता की बातें सुन ली। उनकी मनोवृति निर्भीक थी। वे घबराए नहीं। समय पर जो होगा, देखा जाएगा– यह सोचकर वे बादशाह के दरबार में गए।

बादशाह को देखते ही युवराज ने मुजरा किया। बादशाह ने उनके दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर कहा— 'जयसिंह! अब तुम क्या करोगे?' युवराज न सहमे, न घबराए। उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया— 'मैं क्या करूंगा? अब मेरे करने के लिए बचा ही क्या है? आपने तो मुझे सर्वथा निश्चिंत कर दिया।' यह बात सुन बादशाह चौंके। युवराज अपने कथन को स्पष्ट करते हुए शांत भाव से बोले— 'हिंदू परंपरा के अनुसार विवाह के समय दूल्हा दुल्हन का एक हाथ पकड़ता है। इससे जीवन भर दुल्हन को निभाने की जिम्मेदारी उस पर आ जाती है। आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़े हैं। अब मुझे चिंता ही क्या है?' युवराज के इस कथन से बादशाह का मन प्रसन्न हो गया। उनके मन में प्रेम का भाव जागा। उन्होंने युवराज के साथ मैत्री संबंध स्थापित करते हुए उनको 'सवाई' उपाधि दी।

सवाई जयसिंह कुछ वर्षों तक विरासत में प्राप्त राजधानी आमेर में रहे। उसके बाद उन्होंने अपने नाम से 'जयपुर' शहर बसाया और राजधानी को आमेर से जयपुर स्थानांतरित कर लिया।

युवराज जयसिंह की सूझबूझ अथवा मधुर वाणी ने बादशाह औरंगजेब के मन की आत्मीयता का भाव जगा दिया। इसीलिए तो कहा जाता है कि जीभ में अमृत भरा है।

*सबसे मीठी चीज क्या होती है...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 92* 📝

*आगम युग के आचार्य*

*विश्वबंधु आचार्य बलिस्सह*

आचार्य बलिस्सह वर्चस्वी व्यक्तित्व के धनी थे। वे प्रभावशाली आचार्य थे। पूर्वों के ज्ञाता थे। आगम श्रुत का उन्हें गहन अध्ययन था। उन्होंने गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनों पदों का दायित्व संभाला था।

*गुरु-परंपरा*

आचार्य बलिस्सह के गुरु आचार्य महागिरि थे। आचार्य स्थूलभद्र ने आचार्य महागिरि और आचार्य सुहस्ती दोनों की नियुक्ति आचार्य पद पर की। अवस्था में ज्येष्ठ होने के कारण आचार्य महागिरि की शाखा को प्राचीन आचार्यों द्वारा मुख्यता प्रदान की गई। आचार्य महागिरि की शाखा के गणाचार्य बलिस्सह थे। आचार्य महागिरि के आठ प्रभावशाली शिष्य थे। उनमें प्रथम शिष्य का नाम बहुल उपनाम उत्तर और द्वितीय शिष्य का नाम बलिस्सह था।

*जन्म एवं परिवार*

आचार्य बलिस्सह ब्राह्मण वंशज थे। उनका गोत्र कौशिक था। बलिस्सह के वंदना प्रसंग में नंदी सूत्र का उल्लेख है
*'तत्तो कोसिअगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वंदे।।24।।'*

आचार्य बलिस्सह के जन्मस्थान, परिवार संबंधी विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है।

*जीवन-वृत्त*

संयमी जीवन में उन्होंने श्रुतधर्म की विशिष्ट आराधना की। वे आचार्य महागिरि गण के गणाचार्य बने। ज्ञान गुण संपदा से मंडित होने के कारण वाचनाचार्य पद पर उनकी नियुक्ति हुई। इससे पहले वाचनाचार्य पद की पृथक व्यवस्था नहीं थी। युगप्रधान पद में ही वाचनाचार्य पद समाहित था।

आचार्य बलिस्सह के गण की प्रसिद्धि उत्तरबलिस्सह के नाम से हुई। आचार्य बलिस्सह के ज्येष्ठ गुरुबंधु बहुल का एक नाम उत्तर था। अतः दोनों गुरु बंधुओं के नाम का समन्वयात्मक रूप उत्तर बलिस्सह में प्रतिबिंबित है।

आचार्य सुहस्ती के आठ शिष्यों में शिष्य बहुल सबसे ज्येष्ठ थे, पर गणाचार्य पद पर नहीं थे। फिर भी 'उत्तरबलिस्सह' गण के नाम में बहुल के 'उत्तर' नाम की प्रधानता गणाचार्य बलिस्सह का अपने गुरुभ्राता के प्रति सम्मान भाव सूचक है। अथवा गुरुबंधु बहुल से आर्य बलिस्सह उत्तर में होने के कारण उत्तर बलिस्सह नामकरण की कल्पना संभव है।

हिमवंत स्थविरावली के अनुसार सम्राट खारवेल द्वारा कुमारगिरि पर्वत पर आयोजित महाश्रमण सम्मेलन में आचार्य बलिस्सह उपस्थित थे। इसी प्रसंग पर उन्होंने विद्यानुप्रवाद पूर्व से अंगविद्या जैसे शास्त्र की रचना की।

सम्राट खारवेल द्वारा आयोजित महाश्रमण सम्मेलन का काल वी. नि. 327 से 329 (वि. पू. 143 से 141, ई. पू. 200 से 198) तक का संभव है। मगध पर वी. नि. 323 (वि. पू. 147) में शुंगवंश का शासन स्थापित हुआ। उसके बाद कलिंग सम्राट खारवेल ने चार वर्ष के अंतराल में दो बार जैन धर्म के विरोधी पुष्यमित्र शुंग के साथ युद्ध कर विजय पाई। तदनंतर कुमारगिरी पर्वत पर यह महाश्रमण सम्मेलन किया था। सम्राट खारवेल का वी. नि. 330 में स्वर्गवास हो गया।

*आचार्य बलिस्सह के शासनकाल में समकालीन राजवंश, समय-संकेत, आचार्य-काल आदि* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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