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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 82* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*सदगुण-रत्न-महोदधि आचार्य महागिरी*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
श्रुतसागर आचार्य भद्रबाहु अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य संभूतविजय के अनुशासन को एवं आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि के अनुशासन को सुविनीत शिष्य की भांति पालन करते थे।
निशीथ चूर्णिकार के अभिमत से आचार्य स्थूलभद्र के बाद आचार्य पद का गरिमामय दायित्व आचार्य सुहस्ती के कंधों पर आया था, पर प्रीतिवश आचार्य महागिरी एवं आचार्य सुहस्ती दोनों एक साथ विहरण करते थे।
आर्य महागिरि जैसे प्रभावशाली, श्रुतसंपन्न, जिन शासन के दायित्व को संभालने में सक्षम शिष्य होते हुए भी नवदीक्षित श्रमण सुहस्ती की आचार्य पद पर नियुक्ति संबंधी चूर्णिकार का यह उल्लेख रहस्यमय है। परिशिष्ट पर्व, कल्पसूत्र आदि ग्रंथों में दोनों की एक साथ नियुक्ति का उल्लेख मिलता है।
आर्य महागिरि महाप्रभावी आचार्य थे। उन्होंने अनेक मुनियों को आगम वाचना प्रदान की। आर्य सुहस्ती उनके विद्यार्थी शिष्य थे। उग्र तपस्वी आचार्य महागिरि के उपकार के प्रति आचार्य सुहस्ती आजीवन कृतज्ञ रहे एवं उनको गुरु तुल्य सम्मान प्रदान करते रहे।
गुरुगच्छ-धूराधारण धौरेय, धीर, गंभीर आचार्य महागिरि ने एक दिन सोचा गुरुतर आत्म-विशुद्धिकारक जिनकल्प तप वर्तमान में उच्छिन्न है, पर तत्सम तप भी पूर्व कर्मों का विनाश कर सकता है। मेरे अनेक स्थिरमति शिष्य सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं। मैं कृतकृत्य हूं। गच्छ की प्रतिपालना करने में सुहस्ती दक्ष है। वह गण चिंता से मुझे मुक्त करने में समर्थ है अतः इस गुरुतर दायित्व से निवृत होकर आत्महितार्थ विशिष्ट तप मे स्वयं को नियोजित करूं यही मेरे लिए कल्याणकारी मार्ग है।
अंतर्मुखी आचार्य महागिरि की चिंतनधारा दृढ़ निश्चय में बदली। संघ संचालन का भार आचार्य सुहस्ती को सौंपकर वे जिनकल्प तुल्य साधना में प्रवृत्त हुए। आचार्य महागिरी की यह व्युच्छिन्न जिनकल्प तुल्य साधना गणनिश्रित थी। उनकी विहारचर्या गण से अनुबंधित थी।
आचार्य महागिरि निर्जन वनों में, एकांत स्थलों में, शमशान भूमियों में एकांकी ध्यान साधना करते। भयावह उपसर्गों में निष्कंप रहते पर उनका ग्रामनुग्राम विहरण अपने गण के मुनियों के साथ अथवा आचार्य सुहस्ती के शिष्य समुदाय के साथ होता था।
पाटलीपुत्र में आचार्य महागिरि वसुभूति श्रेष्ठी के घर आहारार्थ (गोचरी) गए। वहां आचार्य सुहस्ती पहले से ही विराजमान थे। वे श्रेष्ठी वसुभूति की प्रार्थना पर उनके परिवार को जैनधर्म का बोध देने आए थे। सपरिवार वसुभूति आचार्य सुहस्ती के पावन चरणों में बैठकर प्रवचन सुन रहा था। आचार्य महागिरि के आगमन पर आचार्य सुहस्ती ने उठकर वंदन किया। आचार्य महागिरि के प्रति आचार्य सुहस्ती का यह सम्मान देखकर श्रेष्ठी वसुभूति के हृदय में आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा उत्पन्न हुई। आचार्य महागिरि के लौट जाने के पश्चात श्रमणोपासक श्रेष्ठी वसुभूति ने आचार्य सुहस्ती से पूछा "भगवन! आप श्रुतसंपन्न महाप्रभावी आचार्य हैं। आपके भी कोई गुरु हैं?" निगर्वी भाव से सुहस्ती ने उत्तर दिया *"ममैते गुरुवः"* ये मेरे गुरु हैं। महान साधक, विशिष्ट तपस्वी एवं अभिग्रही है। आंत-प्रांत, नीरस, प्रक्षेप योग्य भिक्षा को ग्रहण करते हैं तथा प्रतिज्ञानुसार भोजन न मिलने पर पुनः तपकर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं।
*आचार्य सुहस्ती से आचार्य महागिरि का परिचय पाकर श्रेष्ठी वसुभूति पर क्या प्रभाव हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 82📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
*संस्कारी श्रावक*
*49. चूनो• (चूनी भाई)*
बाव के प्रसिद्ध श्रावकों में एक नाम श्री चूनीभाई मेहता का है। वे एक बुद्धिमान और प्रशासनिक क्षमता वाले व्यक्ति थे। बाव राणाजी के कामदार थे। राणाजी के निकटस्थ व्यक्तियों में थे। वे पूज्य कालूगणि के श्री डूंगरगढ़ चातुर्मास्य में राणाजी को दर्शन कराने लेकर आए। कालूगणि के दर्शन कर राणाजी भी उनके भक्त बन गए। उनके विशेष अनुरोध पर ही कालूगणि ने उस वर्ष साध्वी हुलासांजी का चातुर्मास बाव कराया।
ऊमजी भाई के बाद बाव तेरापंथ समाज ने चूनी भाई को अपना नेता माना। श्रावक के लिए प्रयुक्त विशेषण धार्मिक, धर्मानुग, धर्मनिष्ठ आदि उनके व्यक्तित्व पर खरे उतरते थे। धर्म के प्रति उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे तेरापंथ की गतिविधि, मर्यादा और विधि-विधान के पक्के जानकार थे। साधु-साध्वियों के लिए माता-पिता के समान थे। बाव में वैचारिक संकीर्णता के कारण उभरे सांप्रदायिक संघर्ष में वे चट्टान की तरह मजबूत रहे और अपने समाज को भी मजबूत रखा। मैंने (ग्रंथकार आचार्यश्री तुलसी) उनकी धार्मिक दृढ़ता का मूल्यांकन करते हुए उन्हें *"प्रियधर्मी-दृढ़धर्मी"* इस सार्थक संबोधन से संबोधित किया है।
विक्रम संवत 2005 के चातुर्मास्य में चूनी भाई छापर आए। सभा में खड़े हो उन्होंने बाव क्षेत्र का स्पर्श करने की प्रार्थना की। मैंने कहा— 'अभी तक तो हमने यात्रा प्रारंभ भी नहीं किया। बाव की बात कैसे सोचें?' चुनी भाई बोले— 'मेरा निवेदन इसी समय के लिए नहीं है। जब भी मौका हो' बाव क्षेत्र का स्पर्श करने की कृपा कराएं।' मंत्री मुनि ने सहारा लगाया। उनका अनुरोध इतना प्रबल था कि हमें वचनबद्ध होना पड़ा। तेरापंथ के नौ आचार्यों की परंपरा में वे सबसे पहले हमें बाव ले गए। अब तक हमने तीन बार बाव का स्पर्श कर लिया।
*अपने जीवन में अधिक से अधिक संयम के प्रयोग करने वाले श्रद्धालु श्रावक रूपचंदजी सेठिया* का प्रेरक जीवन प्रसंग पढ़ेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
दि.16 जून
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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News in Hindi
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प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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