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👉 उधना - आचार्यश्री तुलसी के 21 वें महाप्रयाण दिवस पर कार्यक्रम आयोजित
👉 उदयपुर - आचार्य श्री तुलसी का 21 वां महाप्रयाण दिवस आयोजित
👉 रायपुर - गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का 21 वां महाप्रयाण दिवस आयोजित
👉 अहमदाबाद - वर्ष 2017-18 कार्यकाल हेतु तेयुप अध्यक्ष के लिए श्री अपूर्व भरत भाई मोदी मनोनीत
👉 कोटा - आचार्य श्री तुलसी का 21वां महाप्रयाण दिवस आयोजित
👉जोधपुर - आध्यात्मिक मिलन
👉 जयपुर - अणुव्रत के क्रियात्मक पक्ष योग एवं प्रेक्षाध्यान पर कार्यशाला आयोजित
👉 लाडनू - गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का 21 वां महाप्रयाण दिवस आयोजित
👉 कोयम्बटूर - गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का 21 वां महाप्रयाण दिवस आयोजित
👉 बुढलाडा (पंजाब) - गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के 21वें महाप्रयाण दिवस पर कार्यक्रम आयोजीत
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*प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 79* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
श्रेष्ठी धनदेव के आंगन में स्तंभ के नीचे विपुलनिधि थी। धनदेव इससे सर्वथा अनजान था। आचार्य स्थूलभद्र ने ज्ञान से इसे जाना एवं मित्र की पत्नी से बात करते समय उनकी दृष्टि उसी स्तंभ पर केंद्रित हो गई। हाथ के संकेत भी स्तंभ की ओर थे। आचार्य स्थूलभद्र ने कहा "बहिन! संसार का विचित्र स्वरूप है। एक दिन धनदेव बड़ा व्यापारी था। आज स्थिति सर्वथा बदल चुकी है पर चिंता मत करो, भौतिक सुख-दुःख चिरस्थाई नहीं होते।" आचार्य स्थूलभद्र के उपदेश-निर्झर के शीतल कणों से मित्र-पत्नी के आधि-व्याधि, ताप-तप्त अधीर मानस को अनुपम शांति प्राप्त हुई।
कुछ दिनों बाद श्रेष्ठी धनदेव पूर्व जैसी ही दयनीय स्थिति में घर आया। उसकी पत्नी ने आचार्य स्थूलभद्र के पदार्पण से लेकर सारी घटना सुनाई। उसने यह भी बताया कि उपदेश देते समय आचार्य स्थूलभद्र स्तंभ के अभिमुख बैठे थे। उनका हस्ताभिनय भी इसी स्तंभ की ओर था।
बुद्धिमान श्रेष्ठी धनदेव ने सोचा महान् पुरुषों की हर प्रवृत्ति रहस्यमयी होती है। उसने स्तंभ के नीचे से धरा हो खोदा। उसे विपुल संपत्ति की प्राप्ति हुई। आचार्य स्थूलभद्र इस समय तक पाटलिपुत्र पधार चुके थे। उनके अमित उपकार से उपकृत धनदेव श्रेष्ठी दर्शनार्थ वहां पहुंचा और पावन, पवित्र, अमृतघोष, कल्याणकारी शिव पथगामी उपदेश सुनकर व्रतधारी श्रावक बना। मित्र को अध्यात्म पथ का पथिक बनाकर आचार्य स्थूलभद्र ने जगत् के सामने मैत्री का आदर्श उपस्थित किया।
आचार्य शीलभद्र के जीवन के अनेक प्रेरक-प्रसंग हैं एक बार मगधाधिपति नंद ने रथ-संचालन के कला-कौशल से प्रसन्न होकर सारथी को अनिंद्य सुंदरी, कला की स्वामिनी, विविध गुण संपन्न मगध गणिका कोशा को उपहार के रूप में घोषित कर दीया।
कोशा चतुर महिला थी। वह आचार्य स्थूलभद्र से श्राविका-व्रत ग्रहण कर चुकी थी। अपने प्रण पर दृढ़ थी। उसकी वाकपटुता एवं व्यवहार कौशल ने संयम में अस्थिर कामाभिभूत सिंह-गुफावासी मुनि को भी पुनः संयम में स्थिर कर दिया था। अपने वृत में सुस्थिर रहकर परीक्षा का यह दूसरा अवसर कोशा के सामने प्रस्तुत हुआ। कोशा ने राजाज्ञा का चातुर्य से पालन किया। वह रथिक के सामने सीधी-सादी वेशभूषा में उपस्थित हुई। उसकी आंखों में न कोई वासना का ज्वार था न शरीर पर साज-सज्जा एवं श्रृंगार। वह बार-बार आचार्य स्थूलभद्र का नाम लेकर कह रही थी
*"स्थूलभद्र बिना नान्यः पुमान् कोपित्यहर्निशम्।"*
(आज दुनिया में आर्य स्थूलभद्र जैसा उत्तम पुरुष कोई नहीं है।)
*विराग भाव से उपस्थित मगध गणिका को क्या रथिक प्रसन्न कर पाया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 79📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
*संस्कारी श्रावक*
*45. केसर• (केसरजी भण्डारी)*
श्रावक केसरजी भंडारी का जन्म कपासन के भंडारी परिवार में हुआ। कालांतर में वे उदयपुर जाकर बस गए। उदयपुर के महाराणा भीमसिंहजी के विश्वस्त व्यक्तियों में वे एक थे। भंडारीजी का शोभजी श्रावक के साथ संपर्क था। उनसे तत्त्व समझकर वे तेरापंथी बने। आचार्य भिक्षु को वे अपना गुरु मानते थे, फिर भी उन्होंने इस बात को प्रकट नहीं किया।
विक्रम संवत 1875 में तेरापंथ के द्वितीय आचार्य भारीमालजी उदयपुर पधारे। वहां उनका प्रभाव बढ़ने लगा। विरोधी लोग उसे सहन नहीं कर सके। उन्होंने महाराणा से शिकायत की। महाराणा ने संतो को उदयपुर छोड़ने का आदेश दे दिया। आचार्य भारीमालजी वहां से विहार कर राजनगर चले गए। इससे विरोधी लोगों का हौसला बढ़ा।
वे उन्हें मेवाड़ से बाहर निकालने की योजना बनाने लगे। केसरजी को इस योजना का पता लग गया। वे तिलमिला उठे। उन्होंने सोचा– अब मुझे प्रकट रूप में तेरापंथ का काम करना चाहिए। मैं अब भी छिपा रहूंगा तो मेरा जीना ही बेकार है।
इधर विरोधी लोगों की योजना बना रही थी। उधर उदयपुर में प्लेग की बीमारी फैली। लोग मरने लगे। महाराणा के पुत्र काल कलवित हो गए। उनके दामाद की मौत के संवाद आए। महाराणा चिंतित थे। उस समय अवसर देखकर केसरजी महाराणा के निकट गए और बोले— 'आपको यह क्या सूझा है? आपने संतों को शहर से निकालने का आदेश कैसे दिया?' महाराणा ने कहा— 'केसर! तू समझता नहीं। वे संत नगर में रहने योग्य नहीं थे। वे वर्षा नहीं होने देते। वे ऐसे संत है जो दान-दया को नहीं मानते। उनके रहने से दुष्काल की संभावना थी। दुष्काल से जनता को कितना कष्ट होता।'
महाराणा की बात सुनकर केसरजी बोले— 'महाराणाजी! जो संत एक चींटी को भी नहीं सताते, वे जनता को कष्ट कैसे देंगे? संतों के जाने के बाद हमारे राजपरिवार पर क्या बीता है! जनता में तबाही मच रही है। आप निश्चिंत समझ लें कि जिस राज्य में संतों को सताया जाता हो, उसे प्रकृति कभी माफ नहीं कर सकती। आपने सुना होगा—
संत सताया 'संतदास' ते ण सताया दीन।
गुप्त मार अतीत की होज्या तेरा-तीन।।'
महाराणा असमंजस की स्थिति में थे। वे न तो भंडारीजी की बात मान सकते थे और न टाल सकते थे। उन्होंने कहा— 'केसर! तू उन संतों को जानता नहीं है, वे ऐसे ही थे।' इस पर केसरजी बोले— 'महाराज! वे मेरे गुरु हैं।' अब महाराणा के चौकने की बारी थी। केसरजी ने तेरापंथ के उद्भव की पूरी कहानी महाराणा को सुनाई और उनकी भ्रांतियों का निराकरण किया।
केसरजी ने उचित समय पर स्वयं को तेरापंथी घोषित कर राज परिवार को धर्मसंघ के अनुकूल बनाने में अपनी अनूठी सूझबूझ का परिचय दिया।
*46. मगन भाई*
मुंबई महानगर आज जैन समाज का प्रमुख केंद्र बन रहा है। वहां तेरापंथी लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। साधु-साध्वियों के चातुर्मास्य भी प्रतिवर्ष होते हैं। वहां सबसे पहले साधुओं को ले जाने का श्रेय मगन भाई वकीलवाला को जाता है। पूज्य कालूगणी से विशेष अनुरोध कर उन्होंने मुंबई में संतों का चातुर्मास्य प्राप्त किया। वे श्रद्धालु और तत्त्वज्ञ श्रावक थे। तेरापंथ के तत्त्वदर्शन से संबंधित सैंकड़ों पद्य उन्हें याद थे। वे प्रायः प्रतिवर्ष दर्शन करने आते थे और हर बार किसी न किसी नए व्यक्ति को साथ लाते थे। नए लोगों को तेरापंथ का तत्त्वदर्शन समझाने में वे पूरा रस लेते थे। पूज्य कालूगणी की उन्होंने बहुत उपासना की। उनके आख़िरी वर्ष में वे तेरह बार दर्शन सेवा करने आए।
उनके दादा आनंद भाई ने बड़ी कठिनाई से जयाचार्य के दर्शन कर तेरापंथ के तत्त्वदर्शन को समझकर सम्यक्त्व दीक्षा स्वीकार की।
*पत्नी पर अपनी श्रद्धा थोपकर नहीं बल्कि उसे प्रतिबोधित कर तत्त्व की गहराई समझा श्रद्धा स्वीकार करवाने वाले श्रावक महेशदासजी* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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