10.06.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 10.06.2017
Updated: 11.06.2017

Update

👉 हिरियुर - विकास बोकड़िया तेयुप के पुनः अध्यक्ष मनोनीत
👉 गंगाशहर - अभिनव सामायिक साधना कार्यक्रम आयोजन
👉 विजयनगर (बेंगलुरु) - तेरापंथ महिला मंडल का गठन.
👉कोयम्बत्तूर - त्रिदिवसीय श्री उत्सव का भव्य आयोजन
👉 मंड्या - निःशुल्क चिकित्सा केंप का आयोजन
👉 जयपुर - योग एवं प्रेक्षाध्यान कार्यशाला का आयोजन
👉 विजयनगर (बेंगलुरु) - निशुल्क मधुमेह व रक्तचाप जांच शिविर का आयोजन
👉 रायपुर - "तीन दिवसीय संस्कार निर्माण शिविर" का आयोजन

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
*प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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Update

👉 पूज्य गुरुदेव '#अणुव्रत अनुशास्ता' #आचार्य श्री #महाश्रमण जी के दर्शनार्थ पहुंचे भारत सरकार के #रेलमंत्री श्री #सुरेशप्रभु
👉 पूज्यप्रवर का प्रवास उत्तर हावड़ा के श्री राम वाटिका में..
👉 रेलमंत्री ने आचार्य श्री के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया..
👉 “अहिंसा यात्रा” की जानकारी पाकर रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने आचार्य श्री की साधना को प्रणाम किया..
👉 आचार्य श्री से पावन प्रेरणा प्राप्त कर रेल मंत्री ने किया धन्यता का अनुभव..

दिनांक 10/06/2017

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद 🌻

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News in Hindi

👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 78* 📝

*आगम युग के आचार्य*

*तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

स्थूलभद्र अपने व्रतों में हिमालय की भांति अचल थे। उनके भीतर ब्रह्मचर्य का तेज चमक रहा था। कोशा के कामबाण विफल हो गए। वह स्थूलभद्र की संयम साधना के सामने झुकी और एक दिन नतमस्तक होकर कहने लगी "मुने! मुझे धिक्कार है, मैंने आपको व्रत से विचलित करने के लिए जो प्रयत्न किए हैं, उनके लिए आप क्षमा करें।'

स्थूलभद्र मुनि ने कोशा को धर्मोपदेश दिया। अध्यात्म का मर्म समझया। कोशा जीवन-विज्ञान के रहस्य को समझकर व्रतधारिणी श्राविका बनी और विकल्प के साथ जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया।

पावस सानंद संपन्न हुआ। स्थूलभद्र कसौटी पर खरे उतरे। नवनीत आग पर चढ़कर भी नहीं पिघला। काजल की कोठरी में रहकर भी अतुल मनोबली मुनि स्थूलभद्र बेदाग रहे। वे आचार्य संभूतविजय के पास लौट आए।

आचार्य सात-आठ पैर स्थूलभद्र के सामने चलकर आए। *'दुष्कर-महादुष्कर क्रिया के साधक'* का संबोधन देकर कामविजेता स्थूलभद्र का सम्मान किया।

आचार्य संभूतविजय के बाद उसे युग का महत्त्वपूर्ण कार्य आगम वाचना का था। द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी उसे संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र में महाश्रमण-सम्मेलन हुआ। इस आयोजन के व्यवस्थापक स्थूलभद्र के। ग्यारह अंगों का सम्यक् संकलन हुआ। आगम ज्ञान का विशाल भंडार *'दृष्टिवाद'* किसी को याद नहीं था। दृष्टिवाद की अनुपलब्धि ने सबको चिंतित कर दिया। आचार्य स्थूलभद्र में असाधारण क्षमता थी। ज्ञानसागर की इस महान क्षतिपूर्ति के लिए संघ के निर्णयानुसार वे नेपाल में भद्रबाहु के पास विद्यार्थी बन कर रहे एवं उनसे समग्र चतुर्दशपूर्व की ज्ञानराशि को अत्यंत धैर्य के साथ ग्रहण कर उन्होंने श्रुतसागर से टूटती दृष्टिवाद की सुविशाल धारा को संरक्षण दिया। वे अर्थ-वाचना दस पूर्व तक ही उनसे ले पाए थे। अंतिम चार पूर्व की उन्हें केवल पाठ-वाचना मिली। वीर निर्माण के 160 वर्ष के आसपास यह सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण वाचना संपन्न हुई।

भद्रबाहु के बाद वी. नि. 170 (वि. पू. 300) में स्थूलभद्र ने आचार्य पद का नेतृत्व संभाला। उनसे विविध रूपों में जैन शासन की प्रभावना हुई। आचार्य पद ग्रहण करने के समय उनकी आयु 54 वर्ष की थी।

करुणास्रोत, पतितोद्धारक, परोपकार-परायण आचार्य स्थूलभद्र का पदार्पण एक बार श्रावस्ती नगरी में हुआ। इस नगरी में उनका बालसखा, घनिष्ठ मित्र धनदेव श्रेष्ठी सपरिवार निवास करता था। जन-जन हितैषी आचार्य स्थूलभद्र का प्रवचन सुनने विशाल संख्या में मानव समुदाय उपस्थित था। इस भीड़ में बचपन के साथी श्रेष्ठी धनदेव की सौम्य आकृति कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी। उनकी अन्यत्र गमन की अथवा रुग्ण होने की परिकलपना आचार्य स्थूलभद्र के मस्तिष्क में उभरी। उन्होंने सोचा संकट की स्थिति में श्रेष्ठी धनदेव अवश्य अनुग्रहणीय है। अध्यात्म-उद्बोध देने के निमित्त प्रवचनोपरांत आचार्य स्थूलभद्र विशाल संघ के साथ श्रेष्ठी धनदेव के घर पहुंचे। महान् आचार्य के पदार्पण से धनदेव की पत्नी परम प्रसन्न हुई। उसने भूतल पर मस्तक टिकाकर वंदन किया। महती कृपा कर अध्यात्मानुकंपी आचार्य स्थूलभद्र मित्र के घर पर बैठे एवं मित्र की पत्नी से धनदेव के विषय में पूछा। खिन्नमना होकर वह बोली "आर्यश्रेष्ठ! दुर्भाग्य से घर की संपत्ति नष्ट प्रायः हो गई है। अर्थहीन व्यक्ति संसार में तृण के समान लघु एवं मूल्यहीन होता है। इस संसार में शरीर नहीं पूजा जाता अर्थ पूजा जाता है। *"विदेशो व्यवसायीनाम्"* व्यवसाय के लिए विदेश ही आश्रय है। अर्थाभाव में अत्यंत दयनीय स्थिति को प्राप्त पतिदेव धनोपार्जन हेतु देशांतर गए हैं।"

*धनदेव की पत्नी और आचार्य स्थूलभद्र के बीच आगे और क्या बातचीत हुई...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 78📝

*संस्कार-बोध*

*प्रेरक व्यक्तित्व*

*संस्कारी श्रावक*

*43. विजय• (विजयचंदजी पटवा)*

विजयचंदजी पटवा पाली के रहनेवाले थे और आचार्य भिक्षु के प्रमुख श्रावकों में से एक थे। पहले वे स्थानकवासी थे और तेरापंथ के आलोचक थे। एक बार आचार्य भिक्षु पाली में प्रवास कर रहे थे। पटवाजी उनके बारे में इधर-उधर से सुनकर आकृष्ट हुए पर समाज के भय से संपर्क नहीं कर पाए। एक दिन रात्रि के समय आचार्य भिक्षु व्याख्यान दे रहे थे। पटवाजी ने अपने मित्र वर्धमानजी श्रीश्रीमाल के साथ दूर खड़े रहकर व्याख्यान सुना। वे व्याख्यान से प्रभावित हुए, पर निकट नहीं गए। जब सब लोग अपने-अपने घरों को लौट गए तो वे दोनों मित्र आचार्य भिक्षु के पास पहुंचे और बोले— 'हम आपसे कुछ बात करना चाहते हैं।' आचार्य भिक्षु शयन की तैयारी कर रहे थे, पर सामने जिज्ञासु व्यक्तियों को देख वे बात करने के लिए सहमत हो गए। उनकी धर्मचर्चा इतने विस्तार से हुई कि दो प्रहर का समय लग गया। आचार्य भिक्षु का श्रम सफल हुआ। एक रात की धर्म जागरण से वे उनके भक्त बन गए।

पश्चिम रात्रि में आचार्य भिक्षु ने साधुओं को जगाया। साधुओं ने पूछा— 'स्वामीजी! आप कब उठे?' आचार्य भिक्षु मुस्कुराते हुए बोले— 'पहले यह पूछो कि मैं सोया कब था?' उन्होंने पटवाजी के बारे में जानकारी दी तो साधु उनकी श्रमशीलता और सूझबूझ के प्रति प्रणत हो गए।

एक बार पाली में तेरापंथ के टालोकर आए। वे वहां काफी दिनों तक रहे। अपने व्याख्यान में वे अनेक उल्टी-सीधी बातें सुनाते। कुछ दिनों बाद आचार्य भिक्षु पाली पधारे। पटवाजी सदा की तरह दर्शन उपासना का लाभ लेते रहे। कुछ साधुओं के मन में आया कि टालोकरों की बातें सुन पटवाजी के मन में संदेह हो सकता है। वे उनके संदेह का निवारण करना चाहते थे। किंतु पटवाजी ने कभी कोई जिज्ञासा नहीं की। साधुओं ने आचार्य भिक्षु के सामने मन की बात कही। आचार्य भिक्षु ने पूछा— 'पटवाजी! इस वर्ष यहां टालोकर आए थे?' उन्होंने स्वीकार किया। दूसरा प्रश्न था— 'क्या वे कई दिनों तक रहे थे? और तुम्हारा संपर्क भी हुआ था?' पटवाजी ने स्वीकृति दी तो तीसरा प्रश्न पूछा गया— 'उनके द्वारा कही गई बातों का तुमने स्पष्टीकरण क्यों नहीं मांगा?' यह सब पटवाजी बोले— 'महाराज! मुझे पक्का विश्वास है कि आप अपनी मर्यादा छोड़ते नहीं और टालोकर झूठ बोले बिना रहते नहीं। फिर मैं आपसे क्या पूछूं?'

आचार्य भिक्षु ने तत्काल साधुओं को बुलाया और पटवाजी की दृढ़ता का उल्लेख करते हुए कहा— 'लगता है, विजयचंदजी क्षायिक सम्यक्त्व के धनी हैं।' गुरु के मुखारविंद से जिस व्यक्ति को यह वरदान मिल जाता है, वह धन्य हो जाता है।

*44. गुमानजी*

गुमानजी लुणावत पीपाड के रहने वाले थे। उनकी वृति धार्मिक थी। वे श्रद्धा के साथ तत्त्वज्ञान के रसिक थे। आचार्य भिक्षु के संपर्क में आकर उन्होंने तत्त्व को समझा और तेरापंथ की गुरुधारणा की। आचार्य भिक्षु द्वारा लिखित ग्रंथों का स्वाध्याय उनकी रुचि का विषय था। स्वाध्याय करते-करते तत्त्व को समझने और समझाने की क्षमता बढ़ गई।

आचार्य भिक्षु ने 38 हजार पद्य परिमाण साहित्य लिखा था। गुमानजी ने उस समग्र साहित्य को याद कर लिपिबद्ध किया। उस समय साधु के पन्ने को देख कर लिखने की विधि नहीं थी, इसलिए उन्हें याद कर लिखना पड़ा। *'गुमानजी का पोथा'* नाम से प्रसिद्ध हस्तलिखित ग्रंथ में उनके द्वारा लिखित सारी रचनाएं सुरक्षित हैं।

गुमानजी आचार्य भिक्षु के विश्वस्त श्रावक थे। किसी साधु को कभी कुछ कहना होता तो वे गुमानजी को माध्यम बनाते थे। मुनि वेणीरामजी की घटना इस तथ्य का पुष्ट प्रमाण है।

*उदयपुर के राजपरिवार को केसर जी भंडारी ने तेरापंथ के अनुकूल कैसे बनाया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 77* 📝

*आगम युग के आचार्य*

*तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

गुणसंपन्न, नवरत्न स्थूलभद्र की विरह-व्यथा से आर्त्त कोशा भी उदास रहने लगी। वह कभी-कभी फूट-फूट कर रोती एवं क्रंदन करती। अमात्य श्रीयक राजकार्य में व्यस्त होते हुए भी गणिका कोशा के पास धैर्य प्रदान करने के लिए जाया करता था। गणिका मंत्री श्रीयक से सात्विक बोध प्राप्त कर आश्वस्त हुई।

वररुचि की कपटपूर्ण नीति सबके सामने स्पष्ट थी। शकडाल की मृत्यु के बाद वररुचि स्वच्छंद विहारी होकर पुनः अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। उपकोशा के भवन में उसका निर्विघ्न आवागमन प्रारंभ हो गया। बुरे कार्य की परिणति अंततः अकल्याणकर होती है। सुरापान के कारण वररुचि का दुःखद प्राणांत हुआ।

अनुभवी मंत्री की भांति राज्यकार्य में व्यस्त अमात्य श्रीयक अपने कार्यकौशल से साक्षात् शकडाल की भांति प्रतीत होने लगा।

संसार से विरक्त अमात्य पुत्र स्थूलभद्र के गतिशील चरण बढ़ते गए। आचार्य संभूतविजय के पास पहुंचकर स्थूलभद्र ने वी. नि 146 (वि. पू. 324, ई. पू. 381) को दीक्षा ग्रहण की। मुनि जीवन में स्थूलभद्र सबके वंदनीय बन गए। उस समय उनकी आयु 30 वर्ष की थी। आचार्य संभूतविजय की श्रमण मंडली में स्थूलभद्र विनयवान्, गुणवान्, बुद्धिमान् श्रमण थे। उन्होंने संभूतविजय से आगम साहित्य का गंभीर अध्ययन किया और मुनिचर्या का प्रशिक्षण लिया। धैर्य, स्थैर्य, क्षमा शांति, समतादि गुणों का विकास कर वे आचार्य संभूतविजय के अनन्य विश्वासपात्र बने।

एक दिन विनयवान्-गुणवान् मुनि स्थूलभद्र ने पूर्व परिचिता कोशा गणिका के भवन में पावस बिताने की इच्छा गुरु के समक्ष प्रकट की। आचार्य संभूतविजय ने 'तथास्तु' कहकर स्वीकृति दी। मुनि अपने संकल्पित लक्ष्य की ओर चल पड़े। स्थूलभद्र कोशा की उसी चित्रशाला में पहुंचे, जहां वे पहले बारह वर्ष रह चुके थे।

स्थूलभद्र के आगमन से कोशा पुलक उठी। चित्रशाला का बुझा दीप जल गया। वीणा तंत्री पर कामोत्तेजक स्वरलहरियां थिरकने लगीं। कोयल ने पंचम स्वर में गाया। उपवन महका। पक्षी चहके। नर्तिकाएं घुंघरु बांधकर नाचीं। उस मधुर ध्वनि के साथ सारी चित्रशाला गूंज उठी।

कोशा ने स्थूलभद्र का अभिनंदन किया। स्थूलभद्र ने कोशा से चित्रशाला में चातुर्मास बिताने के लिए अनुमति मांगी। कोशा बोली "प्राणदेव! आज आपके पधारने से मैं धन्य हो गई हूं। यह चित्रशाला आपकी है। आप इसमें सहर्ष चातुर्मास करें।"

गणिका कोशा की अनुमति से मुनि स्थूलभद्र का चित्रशाला में चातुर्मास प्रारंभ हुआ। कामस्थल धर्मस्थल बन गया।

कोशा स्थूलभद्र के लिए प्रतिदिन षट्रसयुक्त भोजन तैयार करती, बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित होकर उनके सामने उपस्थित होती। विविध भाव भंगिमाओं के साथ नृत्य करती। पूर्व भोगों की स्मृति कराती और यथासंभव उपाय से उन्हें मुग्ध करने का प्रयत्न करती।

*क्या कोशा का यह प्रयास सफल हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 77📝

*संस्कार-बोध*

*प्रेरक व्यक्तित्व*

*संस्कारी श्रावक*

(दोहा)

*65.*
गेरू• विजय• गुमानजी केसर• मगन• महेश।
चेनो• चूनो• रूपशशि, श्री• शोभा• सुविशेष।।

*42. गेरू• (गेरूलालजी व्यास)*

आचार्य भिक्षु के प्रथम तेरह श्रावकों में एक थे गेरूलालजी व्यास। वे जोधपुर के पुष्करणा ब्राह्मण थे। आचार्य भिक्षु से उनका संपर्क जोधपुर में ही हुआ। उस समय वे बगड़ी से अभिनिष्क्रमण कर जोधपुर आए थे। वहां कुछ लोगों ने उनमें रुचि ली। वे प्रतिदिन उनके पास जाते। उनसे तात्त्विक बातें सुनते और अपनी जिज्ञासाओं को सम्मानित करते। आचार्य भिक्षु के निर्मल आचार, स्पष्ट विचार और तत्त्व समझाने के अद्भुत कौशल से प्रभावित हुए। दान-दया के सिद्धांत को सूक्ष्मता से समझकर वे उनके प्रति श्रद्धाशील बन गए। जोधपुर के दीवान फतेहमलजी सिंघी को आचार्य भिक्षु के अभिनिष्क्रमण की गाथा उन्होंने ही सुनाई थी।

जैन संतो के साथ व्यासजी के संपर्क और जैन धर्म के प्रति बढ़ते आकर्षण से ब्राह्मण समाज में खलबली मच गई। समाज के लोगों ने उनके साथ रोटी-बेटी का व्यवहार बंद कर दिया। उनके विवाह योग्य पुत्र को लड़की देने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। आखिर उन्हें अपने पुत्र का संबंध दूसरे गांव में करना पड़ा। कहा जाता है कि पुत्री के पिता ने दहेज में मुखवस्त्रिका, पूंजणी, आसन आदि उपकरण दिए। कुछ लोगों ने कहा— 'समधी ने आपके साथ मजाक किया है।' इस पर व्यासजी बोले— 'मेरे समधी बहुत समझदार हैं। वे जानते हैं कि उनकी लड़की को सामायिक करनी होगी। इसलिए उन्होंने दहेज में सामायिक के उपकरण दिए हैं।'

व्यासजी तेरापंथ के तत्त्वज्ञ श्रावक थे। वे व्यापार के लिए सुदूर प्रदेशों में जाते और मौका देखकर धार्मिक चर्चा भी करते। मांडवी बंदर (कच्छ) के टीकमजी डोसी को तेरापंथ की ओर आकृष्ट करने वाले वे ही थे। व्यासजी के द्वारा आचार्य भिक्षु के कर्तृत्व का परिचय पाकर उन्होंने उनको गुरु रूप में स्वीकार किया। विक्रम संवत 1853 में मारवाड़ आकर उन्होंने आचार्य भिक्षु के दर्शन किए, गुरु धारणा की और कच्छ के अनेक परिवारों को समझाकर तेरापंथ के प्रति श्रद्धालु बनाया।

*पाली के रहनेवाले स्थानकवासी और तेरापंथ के आलोचक विजयचंदजी पटवा कैसे तेरापंथ के श्रद्धालु श्रावक बने...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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Page glossary
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  1. आचार्य
  2. आचार्य भिक्षु
  3. आचार्य महाप्रज्ञ
  4. ज्ञान
  5. दर्शन
  6. दस
  7. पूजा
  8. भाव
  9. राम
  10. वीणा
  11. श्रमण
  12. सम्यक्त्व
  13. स्मृति
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