27.05.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 27.05.2017
Updated: 29.05.2017

Update

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Source: © Facebook

*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

👉 *विषय - कायोत्सर्ग भाग 4*

👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*

*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482

संप्रेषक: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

*पूज्यवर का प्रेरणा पाथेय*

👉 वर्धमान होती अहिंसा यात्रा, वर्धमान के प्रतिनिधि संग पहुंची वर्धमान
👉 ज्योतिचरण ने वर्धमान पहुंचने के लिए किया सत्रह किमी का प्रलंब विहार, प्रतिकूल मौसम बना अनुकूल
👉 भव्य स्वागत जुलूस के साथ श्रद्धालुओं ने किया आराध्य का अभिनन्दन
👉 *रवीन्द्र भवन में आयोजित हुआ मुख्य प्रवचन कार्यक्रम, अनुकंपा को जीवन में धारण करने मिला ज्ञान*
👉 *लोगों ने स्वीकार किए अहिंसा यात्रा के संकल्प, श्रीमुख से सम्यक्त्व दीक्षा भी की ग्रहण*

दिनांक 26-05-2017

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुचाएं

🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

Source: © Facebook

News in Hindi

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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*

अनुक्रम - *भीतर की ओर*

*विचार के नियम*

विचार की उत्पत्ति के चार हेतु है ---
1) वस्तुदर्शन ----- वस्तुदर्शन के समय ये प्रश्न उपस्थित होते हैं ---- यह क्या है? यह किसकी है? यह कैसी है? इसका क्या उपयोग है? आदि - आदि ।
2) स्मृति --- अतीत में दृष्ट, श्रुत या अनुभूत विषय जब स्मृति में आता है, विचार का प्रवाह शुरु हो जाता है ।
3) कल्पना ---- किसी वस्तु का निर्माण और रचना के लिए योजना बनाई जाती है, वह भी विचार की उत्पत्ति का हेतु बनती है ।
4) परिस्थिति ---- भावजनित और ऋतुजनित परिस्थिति विचार को उत्तेजना देती है ।

27 मई 2000

प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*

प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 66* 📝

*आगम युग के आचार्य*

*भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु*

*जीवन-वृत्त*

*साहित्य*

आचार्य भद्रबाहु श्रुतधर एवं आगम रचनाकार थे। उन्होंने छेदसूत्रों की रचना की। आगम में छेद आगम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार शुद्धि के लिए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित संबंधी विधि-विधान मुख्यतः इन सूत्रों में वर्णित हैं। छेद नामक एक प्रायश्चित के आधार पर संभवतः इनका नाम छेदसूत्र हुआ है। दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ इन चार छेदसूत्रों की रचना आचार्य भद्रबाहु की मानी गई है। इनका परिचय इस प्रकार है—

*दशाश्रुतस्कंध (आचारदशा)*

छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कंध प्रथम छेदसूत्र है। इसकी दस दशाएं (अध्ययन) हैं। अध्ययनों कि संख्या दस होने के कारण इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। मुनि की आचार-संहिता का वर्णन होने के कारण इसका नाम आचारदशा भी है। वर्तमान में उपलब्ध कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कंध के पज्जोषणा नामक आठवें अध्ययन का ही विस्तार है। इस छेदसूत्र के प्रथम अध्ययन में 20 असमाधि स्थानों का, द्वितीय अध्ययन में 21 प्रकार के सबल दोषों का, तृतीय अध्ययन में 33 प्रकार की आशातनाओं का, चतुर्थ अध्ययन में 8 प्रकार की गणी संपदाओं का, पंचम अध्ययन में 10 प्रकार के चित्तसमाधि स्थानों का, षष्ठ अध्ययन में 11 प्रकार की उपासक प्रतिमाओं का, सप्तम अध्ययन में 12 प्रकार की भिक्षु प्रतिमाओं का, अष्टम अध्ययन में पर्यूषण कल्प का, नवम अध्ययन में 30 मोहनीय स्थानों का, तथा दसवें अध्ययन में विभिन्न प्रकार के निदान कर्मों का वर्णन है।

*वृहत्कल्प*

छेदसूत्रों में इसका द्वितीय स्थान है। आचार्य भद्रबाहु कि यह गद्यात्मक रचना है। इसके छह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक के 50 सूत्र हैं, द्वितीय उद्देशक के 25 सूत्र हैं, तृतीय उद्देशक के 31 सूत्र हैं, चतुर्थ उद्देशक के 37 सूत्र हैं, पंचम उद्देशक के 42 सूत्र हैं, षष्ठ उद्देशक के 20 सूत्र हैं।

प्रथम उद्देशक में पावस-काल के अतिरिक्त एक गांव में रहने के लिए श्रमणों के मासकल्प और द्विमासकल्प की चर्चा है तथा श्रमणों को किस स्थान पर रहना चाहिए और श्रमणियों को किस स्थान पर रहना चाहिए इसका विस्तृत वर्णन है। इसी उद्देशक में श्रमण-धर्म का सार उपशम बताया गया है।

द्वितीय उद्देशक में मुख्यतः श्रमण-श्रमणियों के लिए पांच प्रकार के वस्त्र का एवं पांच प्रकार के रजोहरण का उल्लेख है।

तृतीय उद्देशक में भी साधु-साध्वियों के वस्त्र धारण करने संबंधी विविध विधि-विधान हैं तथा शय्यातर दान नहीं ग्रहण करने का बोध दिया गया है।

चतुर्थ उद्देशक में गुरु-प्रायश्चित, पारांचित और अनवस्थाप्य प्रायश्चित के कारणों का उल्लेख है तथा क्लीव व्यक्ति को प्रव्रज्या के आरोग्य बताया गया है। कालातिक्रांत और क्षेत्रातिक्रांत आहार ग्रहण करने पर श्रमण लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित का भागी होता है। यह उल्लेख भी इसी उद्देशक में है।

पंचम उद्देशक में मुख्यतः आहार विषयक मुनिचर्या का बोध दिया गया है।

छठे उद्देशक में नाना प्रकार की प्रायश्चित विधियों का निर्देश है।

छह उद्देशकों के इस लघुकाय ग्रंथ में साध्वाचार की अनेक मर्यादाएं और विधान हैं। साध्वाचार की मर्यादाओं का नाम कल्प है। यह जैन का पारिभाषिक शब्द है अतः इस सूत्र का नाम कल्पसूत्र है।

*व्यवहार-सूत्र और निशीथ* के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 66📝

*संस्कार-बोध*

*प्रेरक व्यक्तित्व*

(नवीन छन्द)

*31. जय युवाचार्य...*

गतांक से आगे...

सरदारांजी ने घर का भोजन करने का प्रत्याख्यान कर दिया। साधु की तरह भिक्षा में प्राप्त भोजन करने लगीं, फिर भी आज्ञा नहीं मिली। उन्होंने अपने हाथ से केश लुंचन कर साध्वी का वेश पहन लिया, तो भी आज्ञा नहीं मिली। उनकी आज्ञा में सबसे प्रमुख बाधक थे उनके जेठ बादरमलजी ढड्ढा। आज्ञा पाने के सब उपाय निष्फल हो गए, पर सरदारांजी का मनोबल कमजोर नहीं हुआ। उन्होंने आज्ञा प्राप्त न हो तब तक चारों आहार करने का त्याग कर दिया। नौ दिन पूरे हो गए। दसवें दिन शरीर की गर्मी बढ़ने के कारण मुंह से खून आने लगा। जेठजी का मन नहीं पिघला। उनकी दादी सास और जिठानी उनके पक्ष में थीं। जिठानी ने सरदारांजी की सहानुभूति में अन्न-जल का परित्याग कर दिया। और दादी सास ने अफीम एवं पानी के उपरांत कुछ भी खाने-पीने का त्याग कर दिया। बादरमलजी को विवश होकर आज्ञा-पत्र लिखकर देना पड़ा।

एक लंबे संघर्ष के बाद विक्रम संवत 1897 उदयपुर में युवाचार्य अवस्था में जयाचार्य ने उनको दीक्षित किया। दीक्षा का प्रथम केश लुंचन सरदारांजी ने अपने हाथ से किया। उदयपुर से नागौर पहुंच कर उन्होंने आचार्य ऋषिराय के दर्शन किए। सरदारांजी के कर्तृत्व से प्रभावित हो ऋषिराय ने उनको साध्वी ऋद्धूजी की निश्रा में अग्रगण्य बना दिया। तीन वर्ष बाद सूत्रों का अध्ययन कर वे स्वतंत्र रूप से विहार करने लगीं।

विक्रम संवत 1908 में जयाचार्य आचार्य पद पर आसीन हुए। विक्रम संवत 1910 में उन्होंने सरदार सती की साध्वीप्रमुखा के रूप में नियुक्ति कर दी। साध्वियों की व्यवस्था का दायित्व हाथ में आने के बाद उन्होंने साध्वियों के रहन-सहन, वेशभूषा, कार्यकलाप आदि में आवश्यक परिवर्तन कर एक नए युग का सूत्रपात कर दिया। उस समय तक साधुओं के सिंघाड़े काफी व्यवस्थित हो चुके थे। साध्वियों के सिंघाड़े व्यवस्थित नहीं थे। किसी सिंघाड़े में दस, बारह, पंद्रह और ऊपर से तेईस तक साध्वियां थीं। किसी सिंघाड़े में साध्वियों की संख्या तीन-चार ही थी।

जयाचार्य ने विक्रम संवत 1915 में साध्वियों के सिंघाड़े व्यवस्थित करने का निश्चय किया, पर वह काम इतना सरल नहीं था। उन्होंने पहले सब सिंघाड़ों को साध्वीप्रमुखा सरदारांजी की निश्रा में लाने की व्यवस्था की। कुछ वर्षों में प्रायः सिंघाड़े उनकी निश्रा में आ गए। फिर भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया। विक्रम संवत 1926 में जयाचार्य ने साध्वीप्रमुखा को सिंघाड़े व्यवस्थित करने का निर्देश दिया। उस समय संघ में 174 साध्वियां थीं। 53 साध्वियों के दस सिंघाड़े व्यवस्थित थे। उनको यथावत् रखा गया। शेष 121 साध्वियों को 23 सिंघाड़े बनाकर सरदार सती ने अपने व्यवस्था कौशल का अनूठा परिचय दिया। साध्वीप्रमुखा सरदारां जी का जीवन अनेक दृष्टियों से प्रेरक और पठनीय है। साधु समाज पर भी सरदार सती का विशेष प्रभाव था। वे जब संतों के ठिकाने जातीं तो संत उनके पैरों तले कंबल बिछाते थे। सरदार सती का विस्तृत जीवन परिचय जयाचार्य की अमर कृति *'सरदार सुजश'* में दिया गया है।

*पापभीरु, आचार निष्ठ और अनुशासनकुशल साध्वीप्रमुखा गुलाब के प्रभावशाली व्यक्तित्व* से प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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  1. Preksha
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