24.04.2017 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 25.04.2017
Updated: 25.04.2017

News in Hindi

मुझे मौत मेँ जीवन के फूल चुनना है।
अभी मुरझाना टूटकर गिरना और अभी खिल जाना है।
कल यहाँ आया था, कौन कितना रहा इससे क्या?
मुझे आज अभी लौट जाना है।
मेरे जाने के बाद लोग आएँ, अर्थी संभाले, कांधे बदलें, इससे पहले मुझे खुद संभल जाना है।*_
मौत आए और जाने कब आए, अभी तो मुझे संभल-संभलकर रोज रोज जीना ओर रोज रोज मरना है|

✍ मुनि क्षमा सागर जी महाराज

समाधि दिवस: चैत्र कृष्ण अष्टमी

Source: © Facebook

हे #विद्यासागर... तू तो औरों से कितना निराला है... -Mr. Zaheed Ansari #Special_Sharing 😍⚠️ एक मुस्लिम मित्र.. आचार्य श्री के प्रति भावना..

मैंने हर युग में एक से एक महान तपस्वी देखें हैं। भगवान देखे हैं, देवता देखे हैं। महानतम साधु-संत देखे हैं। बहुतेरे ऐसे हुए हैं जिन्हें आज भी मानव आस्थापूर्वक पूजते हैं। मैंने अपने जन्म से लेकर अब तक कई युग देखे हैं। विद्वान-ज्ञानी तो सिर्फ़ सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग के साथ कलयुग ही जानते हैं। इसके पहले के युगों को भी मैं जानती हूँ। सृष्टि निर्माण तथा विनाश का भी ज्ञान मुझे है। हर सदी में मैंने एक से एक तपस्वियों को जन्मा है। मेरी गोद इतनी विशाल है कि इसमें सदियों से करोड़ों जीव रहते आ रहे हैं। भाँति-भाँति प्रकार के जीव। सब की नियति निर्धारित है। समय काल अनुसार ये आते-जाते रहते हैं। कोई मुझे सुख दे जाता है तो कोई दुःख, फिर भी मैं धरती माँ का धर्म निभाते हुए सबकुछ सह जाती हूँ।

हे विद्यासागर....
उस दिन मेरी गोद के उस हिस्से पर जाने क्यों बहुत तपन महसूस हो रही थी, जहाँ तुम बैठ गए। हालाँकि उस दिन का तापमान क़रीब 41-42 सेंटी ही ग्रेड था। मैं तो इससे ज़्यादा तापमान झेलती आ रही हूँ। मेरी इस विशाल गोद में अलग-अलग तापमान पर आँच लगती है। कहीं-कहीं तो झुलसा देने वाली तपिश होती है, फ़िर भी मैं नियति का उपहार समझकर स्वीकार कर लेती हूँ। सूर्य देवता मुझसे इसी तरह प्रेम और स्नेह करते हैं। मेरी विशालकाय गोद को वो अपने तरीक़े से तपाते रहते हैं। ख़ैर, ये मेरा और उनका रिश्ता सृष्टि की पैदाईश से है और अंत तक रहेगा।

हाँ तो मैं कह रही थी उस दिन जब डोंगरगढ जाते वक़्त साले टेकरी के पास डामर की सड़क पर चिलचिलाती धूप में एकदम से तुम बैठ गए थे तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था। चले तो तुम सुबह थे, तुम्हें थकावट भी न थी, ऊर्जा से भरे थे, फिर भी तुम उसी जगह पद्मासन लगाकर बैठ गए जहाँ मुझे तकलीफ़ हो रही थी। तुमने मेरे कष्ट को भाँप लिया। तुम्हारे बैठने से मुझे बड़ा सुकून मिला। तुम चाहते तो आगे बढ़ जाते, पर तुमने मेरी पीड़ा को समझा और ठहर गए। मेरी गोद के भारतीय हिस्से में यूँ तो ढेरों तपोनिष्ठ हैं। वे सभी ईश्वर की आराधना, जनकल्याण और जनसेवा के ज़रिए मोक्ष का मार्ग खोज रहे हैं। इनमें से कई तो एयरकंडिशंस में विश्राम करते हैं। एयरकंडीशन व्हीक़ल्स में चलते हैं। धन्य हो कि तुम आज के कलयुग में भी पहले तीर्थंकर आदि भगवान ऋषभदेव की स्थापित दिगंबरी परंपरा के साथ नंगे पाँव विचरण करते हो। आदि नियमों के अनुरूप अपनी दिनचर्या का निर्वाह करते हो। तुम श्रेष्ठ ही नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ हो।

हे विद्यासागर....
तुम बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ साधक और तपोनिष्ठ हो। तुम्हारी उस दयालुता पर मैं तुम्हें नमन करती हूँ। मैं तुम्हें अपने आशीष वचनों से अभिसिंचित करती हूँ। तुम्हें मोक्ष मिले, सांसारिक आवागमन से सदा के लिए मुक्ति मिले। विश्व क्षितिज पर तुम्हारे नाम का पताका फहराए। तुम्हारे बताए मार्ग पर चलने वाले अनुयायियों का भी कल्याण हो।

तुम्हारी पृथ्वी
(सनातनी मुझे धरती माता भी कहते हैं)

Article written by Mr. Zaheed Ansari, EMS news agency.

www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse.

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