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जैनधर्म एक विशेष प्राचीन धर्म-
हमारे भारत देश में अनेक धर्म प्रचलन में है लेकिन सब में, सब से अलग अहिंसा और सत्य पर आधारित हमारा जैन धर्म प्राचीन धर्मो में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्युकी इस धर्म के जरिये देश दुनिया में एक सन्देश जाता है और इस धर्म के मूल आधार पञ्च महाव्रत के नियमो का कोई विरोद्ध भी नहीं कर सकता क्युकी ये मानवता के लिए उनके मूल स्वरुप को सात्विक बनाये रखने के लिए एक मजबूत आधार है,
24 तीर्थंकर
ऋषभदेव, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभु, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी।
महावीर स्वामी
महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम में एक क्षत्रिय राजपरिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी सत्य की खोज में घर-परिवार छोड़ निकल पड़े। 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद जम्भिय ग्राम के निकट ऋजुपालि की सरिता के तट पर इन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। इन्द्रियों को जीतने के कारण ये जिन तथा महान पराक्रमी होने के कारण महावीर कहलाए। 30 वर्षों तक इन्होंने धर्म का प्रचार किया और अंत में 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावापुरी में इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई।
शिक्षाएं: जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि अनादि काल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं। कर्म फल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। कर्म फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। जैन धर्म में संसार दु:खमूलक माना गया है। दु:ख से छुटकारा पाने के लिए संसार का त्याग आवश्यक है। कर्म फल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है।
त्रिरत्न: सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न हैं। सम्यक ज्ञान का अर्थ है शंका विहीन सच्चा व पूर्ण ज्ञान। सम्यक दर्शन का अर्थ है सत् तथा तीर्थंकरों में विश्वास। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख के प्रति समभाव सम्यक आचरण है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों का पालन करके व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। त्रिरत्नों के पालनार्थ आचरण की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। इसके लिए पांच महाव्रतों का पालन जरूरी बताया गया है।
पंचमहाव्रत
1: अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त प्रमुख है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति दया का व्यवहार अहिंसा है। इस सिद्धांत के आधार पर ही जियो और जीने दो का सिद्धांत परिकल्पित हुवा है |
2: सत्य: जीवन में कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्रोध व मोह जागृत होने पर मौन रहना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार भय अथवा हास्य-विनोद में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए और न ही बिना अनुमति के किसी की कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिए।
4: अपरिग्रह: किसी प्रकार के संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। संग्रह करने से आसक्ति की भावना बढ़ती है। इसलिए मनुष्य को संग्रह का मोह छोड़ देना चाहिए।
5: ब्रह्मचर्य: इसका अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना। ब्रह्मचर्य का पालन संतो के लिए अनिवार्य माना गया है।
महत्वपूर्ण बिन्दु
महावीर स्वामी सभी चेतन प्राणियों में आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। प्रत्येक जीव में आत्मा स्थायी अजर-अमर होती है। मृत्यु हो जाने पर उसकी आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है। जैन धर्म कर्म की प्रधानता में विश्वास करता है। जैन दर्शन मे कर्म बंधन तीन बलों- मन बल, वचन बल व कार्य बल के द्वारा स्वीकार किया गया है। मन के विचार से ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंधन हो जाता है। तपस्या व अहिंसा पर अधिक बल दिया जाता है। इस धर्म में तीर्थंकरों को सर्वाधिक महत्व दिया है। जैन धर्म वेदों को प्रामाणिक नहीं मानता तथा कर्मकाण्डों का विरोधी है। धर्म में पंचपरमेष्टि को माना गया है, अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पंचपरमेष्टि हैं, अत: इनकी पूजा आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण के द्वारा ही मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होता है।