30.09.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 30.09.2016
Updated: 05.01.2017

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UPDATE LATEST PRAVACHAN @ #Bhopal भारत ऐसा वटवृक्ष जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी

विचारों को साकार किया जा रहा है ऐंसा लगता है हम सक्रीय होते जा रहे हैं विचारों के पैर नहीं होते परंतु जो संयोग होता है तो मूक भी बोलने लग जाता है । उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने 20 सितम्बर को श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर हबीबगंज में प्रतिभा स्थली के लगभग 1200 छात्राओं और दीदीयों की बिशेष उपस्थिति में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किये।

उन्होंने कहा कि पंगु व्यक्ति भी चलने लगता है, बुद्धिहीन व्यक्ति की बुद्धि भी चलने लग जाती है,लोग संगीत की स्वर लहरियों में तल्लीन हो जाते हैं जब सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की पूजन होती है। गुरुकुल परंपरा भारत की मूल संस्कृति का एक हिस्सा रहा है और पुनः इस संस्कृति को जागृत करने के लिए मंगल दीप प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है। सूरज आसमान में है और नीचे टिमटिमाता दीपक है । बहुत सारे विचारों को सपनों को साकार करने के लिए पुरुषार्थ रुपी दीपक जल दिया जाय तो सूरज की तरह तेज उत्पन्न हो सकता है।प्रकृति में गति पुरुष के माध्यम से आती है प्रकृति को खिलौना समझकर उससे खेलने का उपक्रम किया जा रहा है जिसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हम तोते की तरह रटने का प्रयास कर रहे हैं जबकि ज्ञान रटने से नहीं बल्कि अध्ययन से जाग्रत होता है। हम अपनी भूलों को भूलकर यदि सही उपक्रम की और दृष्टि करेंगे तो सही दिशा की और अग्रसर हो सकेंगे।

उन्होंने कहा कि भारत तो भारत के रूप में विद्यमान है उसे उसके वास्तविक स्वरुप में उद्घाटित करने की आवश्यकता है। अपने विचारों को संयोजित करके हम आपदा विपदाओं से मुक्त हो सकते हैं लेकिन श्रम के आभाव में ऐंसा नहीं हो पा रहा है, हम श्रमिक न बनकर आलस्य का पुतला बने रहे तो रुग्णता को प्राप्त होते गए। भारत एक ऐंसा बृक्ष है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं परंतु विदेशी संस्कृति के रोपण से इस बृक्ष की सूरत हमने बिगाड़ ली है। आज प्राचीन भारत की कृषि लुप्तप्रायः हो रही है क्योंकि विदेशी यूरिया ने उर्वरा शक्ति को कमजोर बना दिया है। अलंकार और आभूषण रहित और नवरंग विहीन संस्कृति हमने बना ली है, हम विदेशी नक़ल के आदी बनते जा रहे हैं। हम जो बोल रहे हैं बह लय विहीन होता जा रहा है। भाबना बनाके और विश्वास को सुदृढ़ बनाने पर हम पुनः प्राचीन वैभव को प्राप्त कर सकते हैं बस अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक हमें इस विचार को पहुँचाने की जरूरत है। जब जीव अजीव से मिल जाता है तो सात शत्रु आ जाते हैं और आत्मतत्व कहीं खो जाता है। जीव से जीव मिले और दीप से दीप मिले तो विकास रुपी प्रकाश अवश्य फैलेगा, मोक्ष तत्व तक पहुँचने के लिए धर्म के बीज को सुरक्षित करना पड़ता है तब बट बृक्ष खड़ा होता है और मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। बिश्राम करते रहेंगे तो राम से वंचित रहेंगे क्योंकि आराम तो हराम बताया गया है। बिश्राम को तजकर काम (पुरुषार्थ) करेंगे तो जरूर राम से साक्षात्कार होगा।

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Rare pic @ आचार्य श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री क्षमासागर जी, क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी आदि:) #kshamasagar #vidyasagar #dhyansagar

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UPDATE LATEST PRAVACHAN @ #Bhopal ❖ आज के प्रवचन
(आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज)

धर्मसभा में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि आज व्यक्ति को जो सुख प्राप्त हुआ है बो उसे न देखकर, उसे न भोगकर पडोसी के सुख को देखकर दुखी हो रहा है। किसी ने मकान बनाया और कम समय में सूंदर मकान बन गया तो उसका खुद का घर कितना ही सूंदर क्यों न हो उसके मन में ये भाव जर्रूर आते हैं की इसका मकान इतनी जल्दी और इतना सुन्दर कैंसे बन गया। ऐंसे ही दान के क्षेत्र में कुछ लोगों को दूसरों का दान देखकर ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होते हैं और मन में मलिनता उत्पन्न होती है। यदि किसी ने दान दिया है और उस दान की अनुमोदना अच्छे मन से आपने की है तो पुण्य का संचय आपको भी अवश्य होगा।
उन्होंने कहा कि देवलोक में सूंदर सूंदर अकृतिम भवन बने होते हैं उधर किसी को बनाने की जरूरत नहीं होती,सारे सुख वैभव,सारे संसाधन उपलब्ध हो जाते हैं। आप लोग उलझनों में उलझने की अपेक्षा सुलझने की तरफ कदम बढ़ाओ तो आपको भी देवों जैंसे वैभव प्राप्त हो सकते हैं।
उन्होंने कहा कि में जब ग्राम और कस्बों में विहार करता हूँ तो छोटे छोटे रस्ते भी सुगम होते हैं जबकि भोपाल में चौड़े चौड़े रास्ते होते हुए भी पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलती है। महानगर का जीवन ऐंसे ही भीड़ भाड़ और आपा धापी में निकल जाता है।
उन्होंने कहा कि बड़ी दूर दूर से आप लोग संतों के दर्शन करने आते हो परंतु अच्छे से दर्शन नहीं हो पाते तो उसमें मन आपका खिन्न हो जाता है परंतु न तो तो आप इसमें कुछ कर सकते हो न संत इसमें कुछ कर सकते हैं, आप सबका मन भारत नहीं है। संसार की ही समस्या है की मन कभी नहीं भरता,उस मन को ठन्डे बस्ते मेडाल दीजिये क्योंकि ठन्डे बस्ते में मन को रखना ही मोक्ष मार्ग है। कल से आप अपने साथ एक बस्ता लेकर आओ और अपना मन उस बस्ते में रखकर संतों के सानिध्य में जाओ आपके भीतर खिन्नता नहीं आएगी। सबसे ज्यादा महत्व संयम का है क्योंकि इसके बिना मोक्ष मार्ग की यात्रा प्रारम्भ ही नहीं होती है । शहर की अपेक्षा ग्रामों में ज्यादा संतोषप्रद जीवन होता है क्योंकि उधर जीवन की आपा धापी और भागदौड़ कम होती है । जो संतोष का जीवन जीता है उसका हर पल,हर क्षण सुखमयी होता है। जो परंपरा से धर्म के संस्कार आपको प्राप्त हुए हैं उन्हें सहेजने और सँवारने की आवश्यकता है । मन की मांग को पूरा करना कोई बुरी बात नहीं है परंतु जायज मांग और फालतू मांग में फर्क का ज्ञान होना तो जरूरी है। सोच बिचार कर अपने मन की मांग का प्राथमिकता से निर्धारण करना चाहिए। आमदनी के हिसाब से खर्च का प्रबंधन करना जरूरी होता है। आमद कम खर्चा ज्यादा लक्षण है मिट जाने का, कूबत कम गुस्सा ज्यादा लक्षण है पिट जाने का। इसलिए अपनी चादर के अनुसार ही अपने पैर फैलाना चाहिए। यही धर्म है जिसे ज्ञानी लोग अच्छे से जानते हैं । मन से जो काम लेता है बो अच्छा होता है और जो मन का काम करता है बो अच्छा हो ही नहीं सकता। जो मन से काम लेता है बो सेठ होता है और जो मन का काम करता है बो नोकर होता है ।जो मन के नियंत्रण में चलता है उसकी कोई चिकित्सा हमारे पास भी नहीं है, उसका तो भगवान् ही मालिक है।


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