21.09.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 21.09.2016
Updated: 05.01.2017

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❖ भगवान् महावीर कौन थे? और जैन कौन होते हैं? must read

भगवान महावीर जैन धर्म में 24 वे तीर्थंकर हुए। तीर्थंकर वह होते है जो धर्म तीर्थ को चलाते हैं। उस समय धर्म का अर्थ किसी संप्रदाय से नहीं था। धर्म तो वह होता है जो धारण किया जा सके, उसे किसी समुदाय से नहीं बाँट सकते । यह सभी जीवों पर समान रूप से लागू होता है। इसमें कुछ कर्म कांड निहित नहीं है। इनका जन्म ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व वैशाली नामक नगर में राजा सिद्धार्थ के यहाँ हुआ था। जैन धर्म में जैन "जिन" का परिवर्तित नाम है। "जिन" का अर्थ होता है जिन्होंने राग द्वेष को जान लिया है और उस पर विजय पा ली है तथा जिन्होंने खुद मोक्ष गए व अनेक जीवों को मोक्ष मार्ग का ज्ञान दिया। ऐसे कई व्यक्ति हुए होंगे जो "जिन" बने। महावीर उनमे से एक थे। जिन्होंने "जिन" के सिद्धांतो को अपनाया वह जैन कहलाये। पर समय के बदलाव में जो उन सिद्धांतो को नहीं भी मानता और जैन के घर पैदा हुआ वह भी जैन कहलाने लगा। भले ही ज्ञान रत्ती भर भी ना हो। बहुत से लोग अंध भक्ति भी करने लगे और धर्म के वास्तविक स्वरुप को उन्होंने जाना ही नहीं। ऐसा सभी सम्प्रदायों में हुआ और ऐसे में कई जैनो ने भी जिन धर्म को संप्रदाय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु आज भी बहुत लोग है जो धर्म का निर्वहन करते हैं। धर्म का आशय "जिन" सिद्धांतो से है और उन्हें मानने से। भगवान महावीर ने राग द्वेष पर विजय प्राप्त की इसलिए अपने शारीर से वस्त्रों का भी त्याग किया। एवं 30 साल की उम्र में दीक्षा ली। जैन धर्म के अनुसार आज हम भगवन महावीर के शासन काल में रहते हैं। शासन का अर्थ शिक्षा व उपदेशों से है। उनके दिए हुए मार्ग पर हम चलकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । समय के साथ साथ सभी सम्प्रदायों में कई कर्मकांड जुड़े इनका भगवन महावीर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। क्युकी साधू संत कुछ भी कर्म कांड नहीं करते वह तो खुद की साधना में लीन रहते है और दुसरो को भी मार्ग दिखाते हैं। महावीर ने अहिंसा, सत्य, चोरी नही करना, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का उपदेश दिया। जियो और जीने दो का उपदेश भी अहिसा से प्रेरित होकर निकला। जैन धर्म में अहिंसा का तत्व बहुत ही जोर शोर से बढ़ा। इसमें भाव हिंसा (अपने भावों द्वारा किसी दुसरे को दुःख पहुँचाना) एवं जीव हिंसा ना करने पर जोर दिया। इसलिए जैन रात्रि होने से पूर्व खाना खाते है एवं ज़मीन के निचे उगी हुए चीजे एवं अन्य न खाने योग्य चीजे नहीं खाते क्युकी इनमे छोटे छोटे जीव होते हैं। पानी भी छान कर पीते हैं। साधुओं के लिए कुछ मूलगुण होते है जो उन्हें पालन करने होते हैं। ऐसे ही श्रावक जो ग्रहस्त जीवन जीते हैं उनके लिए भी कुछ नियमो का पालन करना होता है। और यह नियम कर्म कांड नहीं होते अध्यात्मिक होते हैं। जैसे दशलक्षण धर्म (पर्युषण पर्व) जो हमें अपने जीवन उतरना चाहिए वो इस प्रकार हैं (क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौंच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रहमचर्य) ये वही पर्व हैं जिनमे महाराष्ट्र में मॉस बंद हुआ था। जिसकी निंदा हुई थी। अगर भगवन महावीर होते तो वह अहिंसा का पाठ पढ़ाते पर किसी बैन के लिए नहीं कहते। साधुओं पर हमले या उपसर्ग होना भी कोई नयी बात नहीं,भगवन महावीर पर भी उपसर्ग हुए पर उन्होंने किसी से द्वेष नही किया । करुणा के साथ क्षमा दान दिया। उन्होने 72 वर्ष की आयु में लगभग 12 वर्ष तपस्या करके दीपावली की रात निर्वाण प्राप्त किया। मोक्ष का मार्ग सभी के लिए एक जैसा है एवं प्रकृति के नियम सभी पर एक जैसे लागू होते है चाहे कोई अपने आप को किसी भी धर्म का कहे। जैसे क्रोध करने से मन अशांत होगा ही और करुणा, मैत्री, प्रेम से अच्छे विचार आयेगे ही। अब नग्नता और विश्वानियता पर बहस करना समझदारी नहीं होगी। आज जैन साधू उनके ही सिद्धांतो पर चलने का प्रयत्न करते हैं अगर आप उनकी चर्या को जाने तो पायेगे की वह हमेशापैदल चलते हैं भोजन पानी भी एक ही बार लेते हैं। अपने पास कुछ नहीं रखते। केश लोंच भी खुद ही करते हैं। न धर्म और साधना को छोड़ किन्ही विषयों में अशक्ति रखते हैं। प्रवचन भी सबके लिए होते हैं। तरुण सागर जी के पति पत्नी वाले उस व्यान का समर्थन तो हम नहीं करते पर उनके बारे में प्रतिक्रिया देने से पहले हमें उनके बारे में जानना चाहिए। उनके प्रवचन व कार्यों को देखना चाहिए। वह कितना तप करते हैं और दुसरो के कल्याण में सहायक होते हैं। महावीर स्वामी ने लोगो को धर्म का ज्ञान दिया इसलिए उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। सब कुछ तो यहाँ शब्दों के माध्यम से नहीं बता सकता पर आशा है की कुछ बात समझ में आई होगी।

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Ach vimalsagar ji live aarti @ shikhar ji!!!!

प्रतिभास्थली जबलपुर से पधारी हुई बहनो ने की #आचार्यश्री की पूजन:) #AcharyaShri #Vidyasagar #Digambra #Nirgrantha

आचार्यश्री ने प्रवचन मे कहा " समवशरण मे 12 सभाएँ होती है जिनमे से 8 सभाओ मे 4-4 प्रकार के देवी देवता बैठते है. बचे हुए 4 कोठो मे 1 मे मुनिराज, 1 मे तिर्यन्च, ओर शेष 2 कोठे रह जाते है. इन 2 कोठो मे श्रावक, श्राविका ओर आर्यिका के बैठने की व्यवस्था ऐसे होती है की पुरुष एक ओर तथा महिलाए एक ओर. जब धर्म सभा मे देविया भी देवो से अलग बैठती है, तथा मनुष्यो मे भी स्त्री ओर पुरुष अलग अलग बैठते है तो फिर कर्म भूमि मे हमे इस बात का ओर अधिक ध्यान रखना चाहिए. बालिकाओ की शिक्षा बालको के साथ नही होना चाहिए जिससे की आगे जाकर जब ये ग्रहस्त आश्रम मे प्रवेश करे तब जीवन निर्माण हो नाकी जीवन को काटा जाए. अँग्रेज़ी मे एक ही शब्द है shut the door. जब आप दरवाज़ा हमेशा बंद रखेंगे तो लक्ष्मी का प्रवेश कहा से होगा? हिन्दी का प्रयोग करेंगे तो दरवाज़ा लटकाएँगे या अटकाएँगे. इसलिए हमे चाहिए की सभी विद्यार्थियो की शिक्षा का मध्यम एक सा हो|

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शंका समाधान - 21 Sept.' 2016
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१. मरते समय अगर किसी व्यक्ति के समीप कोई गुरु या ज्ञानी का सानिध्य नहीं हो तो उसको ये उद्बोधन जरूर देना की देह यहीं छूट जाता है और आत्मा चली जाती है, मोह को दूर करके अपना कल्याण करिये!

२. जैसे सिग्नल पर रेड लाइट पर ना चाहते हुए भी रुकना पड़ता है और वह लाइट आपके लिए हितकारी है क्योंकि वह आपको एक्सीडेंट से बचाती है! इसी प्रकार माँ-बाप की टोका टाकी बच्चों के लिए रेड लाइट की तरह हितकारी ही होती है भले ही वह आपको अच्छी लगे या नहीं!

३. ये नियम है की देवायु को छोड़कर जिसने अन्य गति बंध कर लिया है उसको सपने में भी व्रत - संयम लेने के भाव नहीं बन पाते!

४. शंका समाधान सुनकर एक व्यक्ति जो १६ साल से पटाखों का business करता था, उसने वो business करना छोड़ दिया है!

५. दानी की प्रशंसा और त्यागी की पूजा होती है! त्याग से पवित्रता बढ़ती है!

६. दुनिया को नरक बनाने से रोकना है तो नारी हिंसा रोककर उनका सम्मान करिये!

७. धनाड्य बनिए धनानंद नहीं! गृहस्थ के लिए धन कमाने का निषेध नहीं है लेकिन धन की बाढ़ से बचिए!

- प. पू. मुनि श्री १०८ प्रमाण सागर जी महाराज

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Live Pushpdant Bhagwan click @ 13 panthi kothi.. sammed shikhar ji!!:)

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जिस प्रकार जिनालय के निर्माण में द्रव्य की अपेक्षा भावों को प्रमुखता देनी चाहिये उसी तरह जिनालय के अतिशयों से प्रभावित होकर सांसारिक सुखो की इच्छा करने की बजाय जिनालय में जाकर अपने जीवन को निर्मल और पवित्र बनाने का हमारा प्रयास होना चाहिये। यही शिक्षा आज मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज हमें दे रहे हैं।

The real importance of visiting a Jinalaya is not in the miracles and material gains we hope for but in the purity of faith and feelings that we achieve. Munishri Kshamasagarji encourages us to drench in the rain of this purity every time we visit the Jinalaya.

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