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अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
धर्मदान के तीन अंग: ज्ञानदान, संयतिदान और अभयदान
-श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने बताया लौकिक और आध्यात्मिक दान का महत्त्व
-बाल साधु-साध्वियों को आचार्यश्री ने दी विशेष प्रेरणा
-साधु-साध्वियों ने किया हाजरी वाचन, संघ के प्रति समर्पण और निष्ठा के संकल्पों को दोहराया
15.09.2016 गड़ल (असम)ः जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा के प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने वीतराग समवसरण के पंडाल में गुरुवार को उपस्थित श्रद्धालुओं को दान के लौकिक और आध्यात्मिक महत्त्व का पाठ पढ़ाया और धर्मदान के तीन अंगों का भी साक्षात्कार करावाया। इसके साथ ही चतुर्दशी तिथि होने के कारण हाजरी वाचन भी हुआ तो आचार्यश्री ने लेख पत्र का उच्चारण कर साधु-साध्वियों को गण की मर्यादाओं का भान कराया। आज आचार्यप्रवर ने बाल साधु-साध्वियों के अध्ययन की भी जानकारी ली और उन्हें अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करने की भी प्रेरणा प्रदान की।
आचार्यश्री ने अपने मंगल प्रवचन में धर्मदान की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दान का व्यवहारिक और आध्यात्मिक महत्त्व होता है। धर्मदान का आध्यात्मिक महत्त्व होता है। धर्मदान के तीन महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं-ज्ञानदान, संयतिदान और अभयदान।
आचार्यश्री ने तीनों दानों को विवेचित करते हुए कहा कि ज्ञानदान धर्मदान का अंग है। किसी को आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करना ज्ञानदान होता है। ज्ञानदान अध्यापन के द्वारा या प्रवचन आदि के माध्यम से भी प्रदान किया जाता है। किसी के पास यदि ज्ञान है तो उसे उसका दान करना चाहिए। ज्ञान देने से बढ़ता है और ज्ञान का संचय करने से ज्ञान विलुप्त हो सकता है। ज्ञान बहुत बड़ा दान होता है। ज्ञानी आदमी को ज्ञान दान देना चाहिए। आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपने ज्ञानपुंज से कितनों के जीवन को प्रकाशित किया होगा। ज्ञान का प्रकाश आदमी के भीतर की बुराई रूपी अंधकार को समाप्त कर आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला होता है। आचार्यश्री ने संयतिदान का महत्त्व बताते हुए कहा कि शुद्ध साधु को उसके संयम की साधना की पुष्टता हेतु किया गया आहार-पानी का दान उसके संयम की साधना में सहभागी बनना संयतिदान होता है। आचार्यश्री ने साधुओं को भी दान देने के प्रति प्रेरित करते हुए कहा कि आहार-पानी आदि में रुग्ण और बाल साधु-साध्वियों का ध्यान रखना चाहिए कि आहार पहले उन्हें प्राप्त हो जाए। अभयदान को आचार्यश्री ने श्रेष्ठ दान बताते हुए कहा कि संकल्प पूर्वक किसी को क्षमा प्रदान कर देना महादान होता है। आदमी न किसी से डरे और न किसी डराए बल्कि अभय का दान प्रदान करे।
इसके उपरान्त आचार्यश्री ने चतुर्दशी तिथि होने के कारण लेखपत्र का वाचन कर साधु-साध्वियों को धर्मसंघ की मर्यादाओं के प्रति जागरूक रहने के लिए अभिप्रेरित किया। वहीं बालमुनि केशी कुमारजी ने हाजरी वाचन करवाया और तथा सभी बालमुनियों और बाल साध्वियों के अध्ययन करने, सिखणा करने, चितारना करने का ज्ञान प्रदान किया। साध्वीवर्याजी ने ‘मर्यादा गण नंदन वन मंदार है’ गीत का सुमधुर संगान किया।
चन्दन पाण्डेय
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