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Gadal, Dharapur, Guwahati, Assam, India
अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
वर्तमान अनुशास्ता ने अष्टम आचार्य के पदारोहण दिवस पर अर्पित की श्रद्धांजलि
-आज के दिन हुआ था अष्टम आचार्य कालूगणीजी का पदाभिषेक
-उनके काल में धर्मसंघ में संस्कृत भाषा का हुआ था उन्नयन: आचार्यश्री
-मुख्यमुनिश्री ने श्रद्धालुओं को प्रमोद भावना का दिया ज्ञान
-देश भर से लगभग आठ सौ युवा पहुंचे आचार्य सन्निधि में, आचार्यश्री से मंगल पाठ लेकर आरम्भ हुआ अभातेयुप का 50वां राष्ट्रीय वार्षिक सम्मेलन
16.09.2016 गड़ल (असम)ः शुक्रवार को गड़ल, धारापुर स्थित चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अधिशास्ता, महातपस्वी, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा तिथि को तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टम अनुशास्ता आचार्य कालूगणी के पदारोहण दिवस पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनके जीवन वृत्त से सभी को प्रेरणा मिलती रहे, इसकी मंगलकामना भी की। आचार्यश्री ने उपस्थित श्रद्धालुओं को विनय भाव को जागृत करने की प्रेरणा प्रदान की तो वहीं मुख्यमुनिश्री ने संगठन को मजबूत बनाने के लिए संगठन के लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्रमोद भावना को बनाए रखने की प्रेरणा प्रदान की। वहीं अखिल भारतीय युवक परिषद के 50वें राष्ट्रीय वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से लगभग 800 युवाओं का दल आचार्यश्री के सन्निधि में पहुंचा। आचार्यश्री से मंगलपाठ लेकर अधिवेशन का शुभारम्भ किया गया।
शुक्रवार को भाद्रपद की पूर्णिमा तिथि होने के कारण अपने मुख्य मंगल प्रवचन में पूज्यप्रवर ने धर्मसंघ के अष्टम आचार्यश्री कालूगणीजी के पदारोहण दिवस पर उन्हें याद करते हुए कहा कि वे धर्मसंघ के आठवें आचार्य थे। उनके काल में संघ में संस्कृत भाषा का बहुत उन्नयन हुआ। वे आचार्य बनने के बाद भी खुद संस्कृत भाषा को सीखते थे और साधु-साध्वियों को भी इसके लिए उत्प्रेरित करते थे। उनके समय में कितने-कितने साधु-साध्वियों ने संस्कृत भाषा मंे विद्वता अर्जित की। आचार्यश्री ने आचार्य को चन्द्रमा के रूप मंे परिभाषित करते हुए कहा आचार्य ज्ञान देने वाला, शीतलता के साथ प्रकाश देने वाला होता है। इसलिए उसे चन्द्रमा के समान कहा गया है। जिस प्रकार चन्द्रमा शीतल, निर्मल होता है उसी प्रकार आचार्य का स्वभाव भी शीतल और निर्मल होता है। चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रह, नक्षत्र, तारों के अपने परिवार के बीच शोभायमान होता है, उसी प्रकार आचार्यश्री अपने साधु-साध्वियों के परिवार के बीच शोभायमान होता है। पूज्यप्रवर ने लोगों को विनय भाव का ज्ञान प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के भीतर अपने पूज्यों के प्रति विनय का भाव होना चाहिए। विनय भावना होने से वह कुछ सीख सकता है, जान सकता है, प्राप्त कर सकता है। शिष्य भले ही कितना ज्ञानी क्यों न हो जाए, फिर उसे अपने गुरु के प्रति विनय भाव रखना चाहिए। आचार्यश्री ने दसवेंआलियं के नवें अध्याय में विनय शब्द पर विशेष रूप से डाले गए प्रकाश का वर्णन कर लोगों को विनय भाव जागृत करने की प्रेरणा प्रदान की।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन में उपरान्त मुख्यमुनिश्री ने श्रद्धालुओं को प्रमोद भावना की अवगति प्रदान करते हुए कहा कि समाज में बहुत सारे व्यक्तियों का एक संगठन होता है। संगठन को चलाने के लिए बहुत सी चीजों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक होता है उनमें से एक है प्रमोद भावना। जिस संघ या संगठन में प्रमोद भावना होती है, वह संगठन विकास को प्राप्त होता है और जिस संगठन में प्रमोद भावना का अभाव हो जाए वह विनाश को भी प्राप्त कर सकता है। समाज में एक-दूसरे के गुणों का बखान करना चाहिए। संगठन को चलाने के लिए धन-संपदा की भी आवश्यकता होती है, लेकिन एक-दूसरे के प्रति जब तक प्रमोद भावना न हो संगठन मजबूत नहीं बन सकता है। इसलिए आदमी को संगठन को मजबूत बनाने के लिए प्रमोद भावना रखने का प्रयास करना चाहिए।
चन्दन पाण्डेय
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