12.08.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 12.08.2016
Updated: 05.01.2017

Update

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#RakshaBandhan -रक्षा बंधन की स्टोरी तो आपने बहुत बार पढली होगी इस बार आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य क्षुल्लक ध्यानसागर जी के प्रवचन से ये पढ़े कुछ हटके:) रक्षा बंधन के Celibration में छुपा हैं 'साधू लोगो को आहार देने से Related एक गजब Logic' अगर आप भी ऐसी भावना से आहार देंगे तो आपका पुण्य भी डबल और आनंद भी डबल:)) MUST READ BEFORE CELIBRATE RAKSHA BANDHAN THIS TIME:)

अगर कभी देव-शास्त्र-गुरु पर कभी कोई संकट आये और उस भक्त में क्षमता है तो अपनी विवेक बुद्धि के अनुसार कदाचित रक्षा कर सकता है! अगर आप देव-शास्त्र-गुरु की रक्षा करेंगे तो आपकी रक्षा होगी संसार सागर से डूबने से बचने में! जैन ग्रंथो की अनुसार आहार दान की विधि अलग है, "मेरे यहाँ जो आहार बने वो ऐसा भोजन हो जिसमे से मैं साधु को दे सकू" ऐसी भावना श्रावक के है तो वो महान पुण्य कमा लेता है, और यदि श्रावक की ये भावना है की आज मैं स्पेशल महाराज जी ने लिए तैयारी करू, तो महाराज जी के संकल्प से आप भोजन तैयार करते है तो उसमे आपको भी दोष लगेगा और महाराज जी को भी दोष लगेगा, क्योकि महाराज जी को संकल्पित भोजन लेने का निषेध है, सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है, अगर कोई हमसे पूछे आहार वाले दिन की ये आप क्या कर रहे है तो आप बोलते है आज महाराज जी का आहार है हम उनके लिए ये सब घी, दूध, की व्यवस्था कर रहे है जबकि आपका भाव होना चाहिए मैं भोजन ऐसा बनाऊ अगर महाराज जी आये तो वो भी लेसके नहीं तो मैं तो भोजन करूँगा ही, क्योकि साधु का दोष तो हो सकता है साधु तपस्या से ख़तम भी करदे, लेकिन सही पुण्य का जो उपार्जन होता है वो सिर्फ अपने विचारो का खेल है, साड़ी व्यवस्था दोनों के करते है एक का विचार है "महाराज के लिए" दुसरे का विचार है "इसमें से महाराज को दिया जा सके" जिनवाणी बोलती है पुण्य तब लगता है जब अपनी चीज़ आप दान दो, एक बार ऐसी भावना के साथ आहार दे कर देखो तब आपको पता चलेगा, क्योकि सारी बाते सुनने से अनुभव में नहीं आसकती है, इधर भावना है की अपने आहार में से मैं साधु को आहार दू और दूसरी तरफ भावना ये है की साधु के लिए मैं आहार बना रहा हूँ!

हमें यहाँ पर विवेक से भी कार्य करना चाहिए, क्योकि यहाँ पर सिर्फ वैसा ही मान लिया की "सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है" तो औषधिदान की व्यवस्था नहीं बन पायेगी क्योकि परिस्थिति के कारण हमें विवेक को प्रयोग करना चाहिए, इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णुकुमार मुनि की कथा ही है, पूरी हस्तिनापुर नगरी में आहार के चोके लगे थे, सबको पता था यही मुनिराज आएंगे, और सबने वही खीर का आहार तैयार किया था...तो भी उनके कोई दोष नहीं था, फिर इसी तरह अगर कोई महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उनको उनके स्वास्थ्य के अनुकूल ही आहार देना चाहिए, और ऐसी भावना में तो मुनि के रत्न-त्रय के सुरक्षा की भावना ही है, तो इसमें उन् मुनिराज के निमित से औषधि को भोजन रूप में देने पर भी दोष नहीं लगेगा, फिर अगर कोई महाराज जी नमक नहीं लेते तो फिर कैसे होगा और सोचो अगर किसी मुनिराज को बुखार आगया तो हम उनके लिए औषधि के साथ उनके स्वास्थ्य के लिए संगत आहार तैयार करेंगे, तो दशा में उस आहार को भी दोषित मानना पड़ेगा क्योकि वो उन एक मुनिराज के लिए ही तैयार किया गया था लेकिन ऐसा नहीं होता.... तो इस तरह हमें विवेक से ही कार्य करना चाहिए!

ये लेख - क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज के शिष्य) के प्रवचनों से लिखा गया है! -Nipun Jain:)

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*लन्दन (UK)* स्थित जैन मन्दिर की आज 10 वीं बर्ष गाँठ मनाई गई:) #Jainism #London #Jaintemple pic shared by mr. rajat jain from london.

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❖ Sainthood Means Victory Over Desires -Acarya VishudhaSagar G ❖

O pure soul. What do you desire? O brother the conquer or of desire alone becomes the world conqueror. The mundane souls, who is immersed in desires lives in lust. He who conquers desires does really conquer lust. Hence O, consciousness! You crush your desire ness. The pit of desires is so large and deep that the entire universe looks like an atom therein. Under such circumstances, what can be give to mundane souls is the question asked by Acharya Shri Gun Bhadra Swami. Hence, sainthood is that in which the desires are subjected. #VishuddhaSagar #Jainism

|| I bow disembodied pure souls (Siddhas) and all the five supreme beings ||

From: 'Shuddhatma Tarnggini'
Author: Aacharya Vishudha Sagarji Maharaj
English Translator: Darshan Jain, Prof. P. C. Jain

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News in Hindi

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Yesterday Ultimate Pravachan #vidyasagar #Digambara MUST READ:))

बुधवार के प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा कि हर वस्तु का अपना स्वभाव होता है जो बदलता नहीं है, लेकिन दूसरी वस्तु के स्वभाव से प्रभावित हो सकता है। उन्होंने उदाहरण दिया कि अग्नि का स्वभाव उष्म है और जल का स्वभाव शीतलता है, लेकिन अग्नि के संपर्क में आकर जल भी गर्म हो जाता है। अग्नि में जल को गर्म करने की क्षमता है तो जल में भी अग्नि को बुझाने की क्षमता है। आचार्यश्री ने कहा कि दोनों वस्तु अपने-अपने स्वभाव में विद्यमान हैं। यह सूत्र आपके जीवन के लिए उपयोगी है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को अपनी प्रकृति को समझने का प्रयास करना चाहिए। दूसरों का प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन स्वयं के स्वभाव की और दृष्टिपात करने से और स्वयं के स्वभाव को समझने से ही जीवन सार्थक हो सकता है। आचार्यश्री ने कहा कि भगवान की भक्ति के लिए वीतरागता ही जरूरी नहीं है, राग के साथ की जा रही भक्ति से भी हम भगवान को पहचान तो सकते हैं। आचार्यश्री ने कहा कि भगवान को भूलो मत। उन्होंने कहा कि अनंतकाल से मनुष्य की स्थिति अग्नि के संपर्क में आए पानी की तरह है जो गर्म है, लेकिन उसका मूल स्वभाव न केवल शीतलता लिए हुए हैं, बल्कि उसमें अग्नि को बुझाने की क्षमता भी है। इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि स्वयं के स्वभाव को जाने बगैर धर्म का मर्म समझना मुश्किल है।

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❖ अनुभूत रास्ता... मुनि कुन्थुसागर [ आचार्य विद्यासागर जी की जीवन से जुडी घटनाएं व् कहानिया ] ❖ #vidyasagar #Jainism #Digambara

विहार करता हुआ पूरा संघ अकलतरा की ओर बढ़ रहा था. वहाँ जाने के लिए दो रास्ते थे एक पक्की सड़क से होकर और एक कच्चे रस्ते होकर जाता था. कच्चा रास्ता दूरी में कम पड़ता था. वहाँ पर अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से बताया. कुछ महाराज पहले हि बताये गए रास्ते से आगे निकल गये. एक वृद्ध दादाजी ने आकर बताया कि - "बाबाजी! आप लोग तो सीधे इसी रास्ते से निकल जाइये, आप जल्दी पहुँच जायेंगे और रास्ता भी ठीक है. मैं इस रास्ते से अनेकों बाए आया-गया हूँ". तब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी के साथ हम सभी महाराज उसी रास्ते पर चल दिये. आगे चलाकर देखा - रास्ता एकदम साफ़ सुथरा था एवं दूरी भी कम थी. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा - "देखो, उस वृध्द का बताया हुआ रास्ता एकदम सही है क्योंकि यह "अनुभूत रास्ता" है. इसी प्रकार मोक्षमार्ग में हर किसी के बताये रास्ते पर नहीं चलना चाहिए बल्कि, जो अनुभूत कर चुके है ऐसे ही वीतरागी गुरु के बताये रास्ते पर ही चलना चाहिए. तभी हम सुरक्षित और जल्द मोक्षमार्ग प्राप्त कर सकते हैं और जल्दी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं.

दुनियाँ में
न जाने कितने रिश्ते हैं,
और
न जाने कितने रास्ते हैं,
इसलिए यह प्राणी
सही रास्ता और सही रिश्ता
क्या है, इसे भूल गया है,
भगवान और भक्त का
गुरु और शिष्य का
रिश्ता ही दुनियाँ में सही
रिश्ता है एवं
भगवान और गुरु
जिस रास्ते पर है वही
सही रास्ता है - अनुभूत रास्ता

note* अनुभूत रास्ता' यह किताब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी के परम शिष्य मुनिश्री कुन्थुसागर जी महाराज जी की रचना है, इसमें मुनिश्री कुन्थुसागर जी महाराज जी ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी के अमूल्य विचार और शीक्षा को शब्दित किया है. इस ग्रुप में इसी किताब से रचनाए डालने का प्रयास है ताकि ज्यादा से ज्यादा श्रावक आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी के विचारों और शीक्षा का आनंद व लाभ ले सके -Samprada Jain -Loads thanks to her for typing and sharing these precious teachings.

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शंका समाधान
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१. परिस्थितियों से समझौता करने अच्छा है की अपने सिद्धांतों पर द्रण रहके शांति से उसको ठीक करने की कोशिश करिये!

२. जो व्रती, घर पर रहते हैं उनको सबसे पहले चाहिए की वो अवृतियों के कार्य में दखलंदाजी नहीं करें! उनको नियमित स्वाध्याय करना चहिये! कुछ करना है तो मार्ग दर्शक की भूमिका निभाइये! घर में मालिक की तरह नहीं मेहमान की तरह रहिये!

३. इन्द्रियजनित सुख भी ज्ञान की पर्याय है, मतलब सुख ज्ञान से है नाकि किसी भोग की सामग्री में! जैसे की रसगुल्ला खाने पर स्वाद तभी मिलता है जब जीभ से उसका ज्ञान होता है, अगर जीभ में से स्वाद चला जाए, या आपका मन कही और चला जाए तो फिर उसका स्वाद नहीं आता! यानि की सुख, केवल ज्ञान में ही होता है!

४. भगवान् की विनती, पूजा आदि जितना हो सके याद करने की कोशिश करिये! लानत है की २० फ़िल्मी गाने तो याद रहते हैं लेकिन भगवान् की विनती याद नहीं रहती! याद रखिये सद्गति में जाने के लिए अंत समय में जब इन्द्रियां काम करना बंद कर देंगी तब ये याद करी हुई विनतियाँ / पूजा / सूत्र आदि ही काम आती हैं!

५. श्रावक कैसा भी हो लेकिन साधू १००% सही होना चाहिए, ये भगवान् की मुद्रा है! आज हम साधू लोग भी बहुत परिषह नहीं सहते लेकिन भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए, मूल के साथ समझौता नहीं करना चाहिए! यानि की अगर गरमी. सर्दी, वर्षा सहन नहीं हो रही तो जिनवाणी कहती है की मकान में छत के नीचे रह लीजिये लेकिन इसके विपरीत AC, कूलर, हीटर आदि का उपयोग सर्वथा अनुचित है! अगर इतना भी परिषह सहन नहीं हो रहा तो श्रावक धारक अंगीकार करके उसका अच्छे से निर्वाह कर लीजिये!

श्रावकों को चाहिए की साधुओं के रहने की प्राकृतिक रूप से ऐसी व्यवस्था करे जहाँ उनको ये दिक्कते ना आये! जैसे गरमी में ठहरने की लिए तलघर आदि की व्यवस्था हो, इस तरह की चर्या के अनुरूप व्यवस्था प्रदान करने में महान सातिशय पुण्य बंध होता है! इसके विपरीत AC, कूलर, हीटर आदि जैसी सामग्री जोकि चर्या के विपरीत है, प्रदान करने पर बड़े पाप का ही बंध होगा!

- प. पू. मुनि श्री १०८ प्रमाण सागर जी महाराज

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