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#चैन्नई #चातुर्मास 2016
जीवन से विराधनाओं को विदा कर दो
आज दिनांक 24 जुलै 2017, को श्रमण संघीय उपाध्याय पू.श्री प्रवीणऋशि जी म.सा. ने श्री ए.एम.के.एम जैन ममोरियल सेंटर के प्रांगण में जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहा -
धन्ना ने पुरी जिंदगी में अपने भाईयों से प्यार नही पाया । धन्ना ने परंपरागत सोच नही रखी, हमेषा नये रास्ते पर चला । पिता का धन्ना पर पुरा भरोसा था ।
हम सारे गलत रास्ते पर चलते है,जो नही करना है वो करते है । हमारे पुर्वजो नें कभी हाॅटेल का खाना नही मंगवाया । कन्यादान कभी हाॅटेल में नही, घर के आंगण से ही किया । हम परमपिता महावीर को भूल गये । ना जाने कितने देवताओं की तसवीरे तथा मुर्तीयाॅ पुजाघर में रखी है ।
परिवार का सोच एक होना चाहिए । परिवार में पारदर्षिता होनी चाहिए ।
परिवार में व्यापार का महत्व समझाते हुए गुरूदेव ने कहा, जीवन से दस विराधनाओं को विदा कर दो तो आराधना षुरू हो जायेगी । सम्मुख आनेवाले को चोट पहुंचाना, मार्ग में बाधा पहुंचाना,उपेक्षा करना अभिहया कहलाती है । साथी सहचर, परिवार से राज छिपाना, किसी बात को ढांकना वत्तीया कहलाता है । प्रत्येक व्यक्ती का स्वतंत्र चरित्र है, उसे प्रकट करने का मौका मिलना चाहिए । सोच के दरवाजे खुले रखो, पाप के आश्रव के दरवाजे बंद रखो ।
दुसरें की भावनाओं को अस्त्त्वि को कुचलना लेसिया है । विरोधी आचार विचारों मे जब संघर्श होता है,संघाईया होती है । दो विपरित प्रकृती के आहार एकत्र किये तो संघाईया होती है । माता पिता के अरमान भिन्न रहे तो बेटे दिषाहिन हो जाते है, संघाईया है । अच्छे क्यक्ती एक दुसरे का सहयोग नही करते तो दुर्जनों से भी बुरे हो सकते है । संघाईया है । जिसके पास षस्त्र होगा उसके षत्रु भी होंगे, षास्त्रधारी को षत्रु बनानेवाले के षरण में जाने की आवष्यकता नही । ये संघाइया है । संघायिका के रहते सामायिक का आनंद नही आ सकता ।
ऐसा स्पर्ष जिसमें संघर्श का जन्म हो संघट्टा कहलाता है । ऐसा स्पर्ष नही करना चाहिए जिससे अपनी ओर स्पर्षित वस्तु की षक्ती नश्ट हो जाय । परियाविया - परेषान करना, किलामिया - क्लांत करना, थका देना, घोर परिश्रम करवाना । स्वयं परेषान होने से नकारात्मक उर्जा संचीत होती है । फलस्वरूप जीवन ओर साधना में प्रगती नही होगी । किसीको दुःशकार्य करने के लिए उत्तेजित करना उद्यविया कहलाता है । ऐसा वातावरण बनाना, स्थानांतरण कर देना की क्यक्ती कार्य ना कर सके उसे ठाणाओ ठाणं संकामिया कहते है । किसीकी आजीविका छिनना जिवीयाओ ववरोविया कहलाता है ।
इन दस रास्तों से हम नकारात्म उर्जा ग्रहण, निर्मीत व संग्रहित करते है । हमारे जिंदगी का एक भी कदम ऐसा ना हो जहाॅ मेरे भगवन् मेरे साथ ना हो । तिर्थंकर हर समय तीर्थ की करेंगे । जहाॅ तीर्थंकर नही वहाॅ अनर्थ ही होगा ।
श्रीमान षांतीलालजी सिंघवी ने मंच संचालन करते हुअे बताया सुश्र्रावक सुभाश जी कांठेड के आज 21 उपवास की तपस्या है । 27 जुलै से आचार्य पू. श्री आनंदऋशीजी म.सा. का जन्मोंत्सव सप्ताह में रविवार, 31 जुलै को भिक्षु दया का आयोजन किया है । एक दिन साधु बनने के लिए सबको आमंत्रण है । सभी श्रावकों को जादा से जादा संख्या में सम्मीलित होने आवाहन उन्होंने किया ।
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संडे स्पेशल स्टोरी
55 स्टूडेंट कर चुके हैं मात्र एक जैन संत पर पीएचडी
22 साल की उम्र में संन्यास लेकर दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज की एक झलक पाने लाखों लोग मीलों पैदल दौड़ पड़ते हैं। उनके प्रवचनों में धार्मिक व्याख्यान कम और ऐसे सूत्र ज्यादा होते हैं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन को सफल बना सकते हैं। वे अकेले ऐसे संत है जिनके जीवत रहते हुए उन पर अब तक 55 पीएचडी हो चुकी हैं।
ये है उनका जीवन वृत्त..
हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, कन्नड़, मराठी आदि भाषाओं के जानकार विद्यासागरजी का बचपन भी साधारण बच्चों की तरह बीता। गिल्ली-डंडा, शतरंज आदि खेलना, चित्रकारी स्वीमिंग आदि का इन्हें भी बहुत शौक रहा। लेकिन जैसे-जैसे बड़े हुए आचार्यश्री का आध्यात्म की ओर रुझान बढ़ता गया। आचार्यश्री का बाल्यकाल का नाम विद्याधर था। कर्नाटक, बेलगांव के ग्राम सदलगा में 10 अक्टूबर 1946 को जन्मे आचार्यश्री ने कन्नड़ के माध्यम से हाई स्कूल तक शिक्षा ग्रहण की। गांव के स्कूल में मातृभाषा कन्नड़ में उन्होंने पढ़ाई शुरू की और कक्षा नवमी तक की शिक्षा प्राप्त की। गणित के सूत्र हो या भूगोल के नक्शे विद्यासागर पलभर में सबकुछ याद कर लिया करते थे। विद्यासागर 20 वर्ष की उम्र में आचार्य देशभूषण महाराज से मिलने जयपुर पहुंचे थे। 22 वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर ने साधारण से दिखने वाले विद्यासागर को संत होने की दीक्षा दी। इसके बाद वे वैराग्य की दिशा में आगे बढ़े और 30 जून 1968 को मुनि दीक्षा ली। आचार्य का पद उन्हें 22 नवंबर 1972 को मिला।
शोध के लिए छात्र पढ़ते हैं मूक माटी
पुष्करवाणी ग्रुप ने जानकारी लेते हुए बताया कि जैन दर्शन पर कई पुस्तकें लिखने के साथ ही वे कविता लेखन भी करते रहे। उन्होंने माटी को अपने महाकाव्य का विषय बनाया और मूक माटी नाम से एक खंडकाव्य की रचना की। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित उनकी यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। विचारकों ने इसे एक दार्शनिक संत की आत्मा का संगीत कहा। इससे कई छात्र अपने शोध के लिए बतौर संदर्भ इसे उपयोग में ला रहे हैं। उनकी अन्य रचनाएं नर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत लगाओ डुबकी आदि हैं। आचार्य विद्यासागर संस्कृत सहित हिन्दी, मराठी और कन्नड़ सहित अन्य भाषाओं का भी ज्ञान रखते हैं। सैकड़ों शोधार्थियों ने उनके कार्य का मास्टर्स और डॉक्ट्रेट के लिए अध्ययन किया है। उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परीषह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक शामिल हैं।
#शिवाचार्य #भीलवाडा #चातुर्मास 2016
आनन्द ध्यान और शांति हमारे भीतर - ध्यानयोगी आचार्य श्री शिव मुनि
ध्यान शिविर का आधार तीन बातों से हे आनन्द, ध्यान और शान्ति ।आत्मानुभूति आत्म चिंतन और स्वंयं से परिचय करने का माध्यम ध्यान हे । कौन हूं मै, कंहा से आया हूं, क्या है मेरा असली स्वरूप इन सब सवालों के जवाब ध्यान शिविर के माध्यम से मिल सकते हे । इंसान जीवन भर दौड़ भाग करता है धन दौलत सब कुछ कमाता है लेकिन दुनिया में, हम क्यों आये, हम चाहते क्या है ये हमे मालुम नही होता है और ध्यान के माध्यम से इन पहलुओं को जान सकते हे । मनोरजन और आत्मरजन हमारे जीवन के दो पहलू है । मनोरंजन क्षणिक सुख हे और आत्मरंजन चीर सुख हे । बेसिक ध्यान के माध्यम से श्रावक श्राविकाओं की कुछ ऐसी ही जिज्ञासाओं का समाधान किया ध्यान योगी आचार्य श्री शिव मुनि ने । प्रथम बेसिक ध्यान शिविर में आचार्य श्री ने बेसिक ध्यान की अवस्थाएं ध्यान की प्रक्रियाओं आदि का जींवन्त अनुभव कराते हुए शंवास और सोहम द्वरा ध्यान की क्रियाएं समझाई । आचार्य श्री ने कहा कि ध्यान का एक छोटा सा प्रयोग हमारे जीवन को बदलने में सहायक है । शिविर में श्रमण संघ मंत्री शिरीष मुनि ने श्रावक श्राविकाओं को विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हुए उदबोधित किया । युवामनीषी शुभम मुनि ने शिविरार्थियों को आत्मा से कैसे परिचय करे, स्वयं को कैसे जाने विषयों पर उदबोधित किया ।
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#शिवाचार्य #भीलवाडा #चातुर्मास 2016
जीवन में जो धारण करते हे वो धर्म - आचार्य श्री शिव मुनि
24 जुलाई 2016 - भीलवाड़ा /
/ धर्म के हजारों अर्थ हो सकते हे जीवन में आप जो धारण करते हे वो धर्म है । जीवन में कोई परिस्तिथि हो धर्म के मार्ग डिगना नही चाहिए । । यह कहना है जैन श्रमण संघीय आचार्य श्री शिव मुनि का । आचार्य श्री शिवाचार्य समवसरण में रविवार को आयोजित चातुर्मासिक धर्मसभा में श्रावक श्राविकाओं को उदबोधित कर रहे थे । आचार्य श्री ने बताया कि धर्म के दो प्रकार हे साधू धर्म श्रावक धर्म । श्रावक यदि अपने श्रावक धर्म का निर्वाह करे तो मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ।
> आचार्य श्री ने पारिवारिक जीवन पर अपने उद्बोधन में कहा कि बच्चों को सुविधा तो देनी है लेकिन सुविधा के साथ अंकुश में रखना भी आवश्यक है वर्तमान समय में बच्चों के अनुशासनहींनता पर बोलते हुए आचार्य श्री ने कहा कि माता पिता बच्चों के मोह में उन्हें सभी सुविधा देते है लेकिन बच्चे कंहा जा रहे हे कब आर रहे इसका उन्हें पता नही होता जब उन्हें समझाने का दौर होता है तब वे बच्चों को समझाते नही और जब समय निकलने के बाद वे समझाते हे तब बच्चे मानते नही । हर घर परिवार की यही विडम्बना हे । बच्चों को धन के साथ संस्कार देना अतिआवश्यक हे । बेटा, बेटी और बहू की पहचान बताते हुए उन्होंने बताया कि जो माँ बाप को स्वर्ग ले जाए वो बेटा, जो घर को स्वर्ग बनाये वो बेटी, जो घर में स्वर्ग लाये वो बहु । जीवन में विश्वास का आधार सत्य हे । जीवन में सत्य होना आवश्यक है । परिवार में सुख शान्ति चाहते है तो विश्वास होना आवश्यक है । यदि घर में रह कर एक दूसरे से मनमुटाव हे तो वो घर कब्रिस्तान के समान है । रिश्तों में मधुरता होनी आवश्यक है ।