09.05.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 09.05.2016
Updated: 05.01.2017

Update

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today kundalpur exclusive:)) आचार्य श्री ने आज प्रवचन में कहा-कुंडलपुर में वैशाख माह होने के बावजूद 1-2बजे के बाद ही घटा छा जाती है जबकि वैशाख का महिना भीषण गर्मी का होता है और आज अक्षय तृतीया के दिन तो सुबह सुबह ही सूर्य के सामने काले बादल छा गये और हलकी बुंदाबांदी हुई तात्पर्य यह की इस वर्ष मानसून अच्छा रहेगा चारो ओर सुभिक्ष रहने का बड़े बाबा का इशारा है!!

आ. श्री जी की मंगल देशना
अक्षय तृतीया...
०९-०५-२०१६-सोमवार...

विजय अजमेरा...नंदुरबार...

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acharya vardhmansagar ji exclusive:))

आपके ही वंश से भटका हुआ हूँ देवता,
आत्म तत्त्व छोड़ कर में जगत को देखता,
यह अनादि काल की भूल का ही करत्य है,
सिद्ध नाम सत्य हैं अरिहंत नाम सत्य है

News in Hindi

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special news #update: 🙏🙏दुर्लभ सुचन:))

• आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के परिवार के 8 सदस्यो मे से 7 सदस्यों ने दीक्षा लेकर, आदि तीर्थंकर त्रश्र्षभदेव के परिवार के समान दीक्षा लेकर श्रमण संस्कृति की विलुप्त हुई परम्परा (लगभग पूरे परिवार का मुनि दीक्षा लेना) को संजीवनी प्रदान की ।

विद्यासागर जी महाराज के सबसे बड़े गृहस्थ भाई महावीर को छोडकर सभी 7 सदस्यो ने दीक्षा ले ली थी किन्तु अब बडे़ भाई महावीर ने भी मोक्षमार्ग की ओर अपने क़दम बढ़ा लिए हैं ।

आचार्य श्री के बड़े भाई महावीर की दीक्षा कल दिनांक 09/05/2016 को अक्षय तृतीया के पावन दिन कम्बोज मे होगी ।

• विद्यासागर जी महाराज के सदस्यों के गृहस्थ एवं मुनि दीक्षा के पश्चात् नाम इस प्रकार है:-

पिताश्री मलप्पा जी - मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज

माताजी श्रीमती जी - आर्यिका समय मति माताजी

विद्याधर जी-संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज

भाई शान्ति जी-मुनि श्री समयसागर जी महाराज

भाई अनन्त जी-मुनि श्री योगसागर जी महाराज

बहन शान्ता जी-ब्र शान्ता जी ओर बाद मे आर्यिका पद से सुशोभित हुई

बहन सुवर्णा जी-ब्र शान्ता जी ओर बाद मे आर्यिका पद से सुशोभित हुई

ऐसे मलप्पा परिवार एवं माताश्री
श्रीमती जी को जियो ग्रुप परिवार शत् शत् बार प्रणाम करता है

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अक्षय तृतीया पर्व की महिमा • today celebration

भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव का जब छह माह का योग पूर्ण हो गया तब वे यतियों-मुनियों की आहार विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के लिये निर्दोष आहार हेतु निकल पड़े। महामेरू भगवान ऋषभदेव ईर्यापथ से गमन कर रहे हैं, अनेकों ग्राम नगर शहर आदि में पहुँच रहे हैं। उन्हें देखकर मुनियों की चर्या को न जानने वाली प्रजा बड़े उमंग से साथ सन्मुख आकर उन्हें प्रणाम करती है। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते हैं कि हे देव! प्रसन्न होइये और कहिये क्या काम है? हम सब आपके किंकर हैं, कितने ही भगवान के पीछे-पीछे हो लेते हैं। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान् के सामने रख देते हैं और कहते हैं कि हे नाथ! प्रसन्न होइये, तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये, कितने ही सुन्दरी और तरुणी कन्याओं को सामने करके कहते हैं प्रभो! आप इन्हें स्वीकार कीजिये, कितने ही लोग वस्त्र, भोजन, माला आदि अलंकार ले-लेकर उपस्थित हो जाते हैं, कितने ही लोग प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! आप आसन पर विराजिये, भोजन कीजिये इत्यादि इन सभी निमित्तों से प्रभु की चर्या में क्षण भर के लिए विघ्न पड़ जाता है पुनः वे आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जगत को आश्चर्य में डालने वाली गूढ़ चर्या से विहार करते हुए भगवान के छह माह व्यतीत हो जाते हैं।

राजा श्रेयांस के सात स्वप्न

एक दिन रात्रि के पिछले भाग में हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांसकुमार सात स्वप्न देखते हैं। प्रसन्नचित्त होते हुए प्रात: राजासोमप्रभ के पास पहुंचकर निवेदन करते हैं कि हे भाई! आज मैंने उत्तम-उत्तम सात स्वप्न देखे हैं सो आप सुनें-

प्रथम ही सुवर्णमय सुमेरूपर्वत देखा है,

दूसरे स्वप्न में जिनकी शाखाओं पर आभूषण लटक रहे हैं ऐसा कल्पवृक्ष देखा है,

तृतीय स्वप्न में ग्रीवा को उत्पन्न करता हुआ सिंह देखा है,

चतुर्थ स्वप्न में अपने सींग से किनारे को उखाड़ता हुआ बैल देखा है,

पंचम स्वप्न में सूर्य और चंद्रमा देखे हैं,

छठे स्वप्न में लहरों से लहराता हुआ और रत्नों से शोभायमान समुद्र देखा है और

सराजा ातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य को हाथ में लेकर खड़ी हुई ऐसी व्यंतर देवों की मूर्तियां देखी हैं । सो इनका फल जानने की मुझे अतिशय उत्कंठा हो रहाजा सोमप्रभ द्वारा स्वप्नों का फलबताना?

भाई के स्वप्नों को सुनते हुए राजा सोमप्रभ कुछ अकल्पित ही श्रेष्ठ फलों की कल्पना करते हुए पुरोहित की तरफ देखते हैं कि पुरोहित निवेदन करता है-

हे राजकुमार! स्वप्न में मेरूपर्वत के देखने से यह स्पष्ट ही प्रकट हो रहा है कि जिसका मेरूपर्वत पर अभिषेक हुआ है ऐसा कोई देव आज अवश्य ही अपने घर आयेगा और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों की उन्नति को सूचित कर रहे हैं। आज उन भगवान के प्रति की गई विनय के द्वारा हम लोग अतिशय पुण्य को प्राप्त करेंगे। आज हम लोग जगत में बड़ी भारी प्रशंसा, प्रसिद्धि और संपदा के लाभ को प्राप्त करेंगे इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं है और कुमार श्रेयांस तो स्वयं ही इन स्वप्नों के रहस्य को जानने वाले हैं। इस तरह से पुरोहित के वचनों से प्रसन्न हुए दोनों भाई स्वप्न की और भगवान की कथा करते हुए बैठे ही थे कि इतने में योगिराज भगवान ऋषभदेव नेहस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया।

भगवान ॠषभदेव का हस्तिनापुर में प्रवेश

उस समय भगवान के दर्शनों की इच्छा से चारों तरफ अतीव भीड़ इकट्ठी हो गई। कोई कहने लगे-देखो-देखो, आदिकर्ताभगवान ऋषभदेव हम लोगों का पालन करने के लिए यहां आए हैं, चलो जल्दी चलकर उनके दर्शन करें और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करें। कोई कह रहे थे कि संसार का कोई एक पितामह है ऐसा हम लोग मात्र कानों से सुनते थे सो आज प्रत्यक्ष में उनके दर्शन हो रहे हैं। अहो! इन भगवान के दर्शन करने से नेत्र सफल हो जाते हैं, इनका नाम सुनने से कान सफल हो जाते हैं और इनका स्मरण करने से अज्ञानी जीवों के भी अन्तःकरण पवित्र हो जाते हैं। कोई कहने लगे ओहो! ये भगवान् तीन लोक के स्वामी होकर भी सब कुछ छोड़तेकर इस तरह अकेले ही क्यों विहार कर रहे हैं?

कोई स्त्री बच्चे को दूध पिलाते हुए भी अपने से अलग कर धाय की गोद में छोड़कर भगवान के दर्शन के लिए दौड़ पड़ी, कोई स्त्री कहने लगी सखी! भोजन करना बन्द कर, जल्दी उठ और यह अर्घ्य हाथ में ले, अपन चलकर जगतगुरु भगवान की पूजा करेंगे। इत्यादि कोलाहल के बीच से निकलते हुए भगवान मनुष्यों से भरे हुए नगर को सूने वन के समान जानते हुए निराकुल छोड़ कर वाँद्री चर्या का आश्रय लेकर विहार कर रहे हैं। इसी बीच सिद्धार्थ नाम का द्वारपाल आकर गदगद् वाणी से बोलता है-

राजा सोमप्रभ और राजा श्रेयांस द्वारा भगवान का नवधा भक्ति पूर्वक आहार कराना

महाराज! तीन जगत् के गुरू भगवान ऋषभदेव स्वयं ही अकेले इधर आ रहे हैं।’ इतना सुनते ही राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस दोनों ही भाई अन्तःपुर सेनापति और मंत्रियों के साथ तत्क्षण ही उठ पड़े और राजमहल के आंगन तक बाहर आ गए। दोनो भाइयों ने दूर से ही भगवान को नमस्कार किया। उनके चरणों में अर्घ्य सहित जल समर्पित किया। भगवान के मुखकमल को देखते ही कुमार श्रेयांस को अपने कई भवों का जातिस्मरण हो आया, उनको रोमांच हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो मेरे घर में तीन लोक की सम्पदा ही आ गई है-उन्हें आहार देने की सारी विधि याद आ गई। शीघ्र ही पड़गाहन विधि को करते हुए भगवान की तीन प्रदक्षिणायें दीं। अन्दर ले गये, उन्हें उच्च आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया-

भगवान! उच्च आसन पर विराजमान होइये। पुन: प्रभु के चरणों का प्रक्षालन करके मस्तक पर गंधोदक चढ़ाकर अपना जीवन धन्य माना और अष्ट द्रव्य से पूजा की। पुन: पुन: प्रणाम करके मन, वचन, काय की शुद्धि का निवेदन किया, पुनः आहार जल की शुद्धि का निवेदन करके भक्ति से हाथ जोड़कर बोल

सर्वप्रथम इक्षुरस का आहार

नाथ! यह प्रासुक इक्षुरस है इसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए। भगवान् ने उस समय खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुली बनाई और उसमें आहार लेना शुरू किया।

राजकुमार श्रेयांस भगवान के हाथ की अंजुली में इक्षुरस दे रहे हैं। राजासोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती भी प्रभु के करपात्र में इक्षुरस देते हुए अपने आप को धन्य समझ रहे हैं। इसी बीच गगनांगण में देवों का समूह एकत्रित हो गया और रत्नों की वर्षा करने लगा, मंदार पुष्पों को बरसाने लगा, मंद सुगंध पवन चलने लगी, दुंदभि बाजे-बजने लगे और अहोदान, महादान, आदि ध्वनि से आकाशमंडल शब्दायमान हो गया।

आहार दान देकर अपने आपको कृतकृत्य मानना

इस समय दोनों भाइयों ने अपने आपको बहुत ही कृतकृत्य माना क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान ऋषभदेव स्वयं ही उनके घर को पवित्र करने वाले हैं। उस समय दान की अनुमोदना करने वाले बहुत से लोगों ने भी परम पुण्य को प्राप्त किया था। भगवान ऋषभदेव आहार ग्रहण कर वन की ओर प्रस्थान कर गये। राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी कुछ दूर तक भगवान् के पीछे-पीछे गये पुन: भगवान् को हृदय में धारण किये हुए ही वापस लौटते समय उन्हीं के गुणों की चर्चा करते हुए और प्रभु के पद से चिन्हित पृथ्वी को भी नमस्कार करते हुए आ गये। उस समय पूरे हस्तिनापुर में एक ही चर्चा थी कि राजकुमार श्रेयांस को प्रभु को आहार देने की विधि कैैसे मालूम हुई। यह आश्चर्यमयी दृश्य देवों के हृदय को भी आश्चर्यचकित कर रहा था। देवों ने भी मिलकर राजाश्रेयांस की बड़े आदर से पूजा की।

भरत महाराज भी वहाँ आ गये और आदर सहित राजकुमार श्रेयांस से बोले-

हे महादानपते! कहो तो सही तुमने भगवान के अभिप्राय को कैसे जाना? हे कुरुराज! आज तुम हमारे लिए भगवान के समान ही पूज्य हुए हो, तुम दानतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हो और महापुण्यवान हो, इसलिये मैं तुमसे यह सब पूछ रहा हूँ कि जो सत्य हो वह अब मुझसे कहो।

इस प्रकार सम्राट के पूछने पर श्रेयांस कुमार बोलते हैं- राजन्! जिस प्रकार प्यासा मनुष्य सुगंधित स्वच्छ शीतल जल के सरोवर को देखकर प्रसन्न हो उठता है वैसे ही भगवान् के अतिशय रूप को देखकर मेरी प्रसन्नता का पार नहीं रहा कि मुझे उसी निमित्त से जातिस्मरण हो आया जिससे मैंने भगवान् का अभिप्राय जान लिया।

राजा श्रेयांस द्वारा अपना पूर्व भव बताना

वह क्या? मुझे भी सुनाओ। महाराज! आज से आठवें भव पूर्व विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती ने बड़े ही प्रेम से वन में चारणऋद्धिधारी युगल मुनियों को आहारदान दिया था। उस समय राजा के मंत्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ भीआहारदान की अनुमोदना कर रहे थे और पास में कुछ ही दूर से देखते हुए नेवला, वानर, व्याघ्र और सूकर ये चार पशु भी आहार देखकर प्रसन्नमन होते हुए उसकी अनुमोदना कर रहे थे। आहार होने के अनंतर कंचुकी ने कहा- राजन्! ये दोनो ही मुनि आपके ही युगलिया पुत्र हैं। महाराज वज्रजंघ को अतीव हर्ष हुआ। वे उनके चरणों के निकट बैठकर अपनी रानी श्रीमती के, अपने मंत्री आदि चारों के तथा नेवला आदि चारों के भी पूर्व भव पूछने लगे। मुनिराज ने भी अपने दिव्य अवधिज्ञान के द्वारा क्रम-क्रम से सभी के पूर्व भव सुना दिये;

अनंतर बतलाया कि-

आप इस भव से आठवें भव में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की अयोध्यानगरी में राजा नाभिराय की महारानी मरूदेवी की कुक्षि से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेंगे। आपकी रानी श्रीमती का जीव हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार होगा। आपके ये मंत्री आदि आठों जीव भी अब से लेकर आठ भव तक आपके साथ सम्बन्ध स्थापित करते हुए आपके तीर्थंकर के भव में आपके ही पुत्र होवेंगे और उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति करेंगे।

हे चक्रवर्तिन्! आप उस समय राजा वज्रजंघ के मतिवर नाम के महामंत्री थे, सो इस भव में भगवान् के ही पुत्र होकर चक्रवर्ती हुए हो। उस समय के राजा वज्रजंघ के जो आनंद नाम के पुरोहित थे; उन्हीं का ही जीव आज आपके भाई बाहुबली हुए हैं जो कि कामदेव हैं। अकंपन सेनापति का जीव ही आपका भाई ऋषभसेन हुआ है जो कि आज पुरिमतालपुर नगर का अधीश्वर है, धनमित्र सेठ का जीव आपका अनंतविजय नाम का भाई है। दान की अनुमोदना से ही उन्नति करने वाले व्याघ्र का जीव आपका अनंतवीर्य नाम का भाई है, शूकर का जीव अच्युत नाम का भाई है, वानर का जीव वीर नाम का भाई है और नेवला का जीव वरवीर नाम का भाई है अर्थात् राजा वज्रजंघ के आहारदान के समय जो मतिवर मंत्री आदि चार लोग दान की अनुमोदना कर रहे थे और जो व्याघ्र आदि चारों जीव अनुमोदना कर रहे थे वे दान की अनुमोदना के पुण्य से ही क्रम -क्रम से मनुष्य के और देवों के सुखों का अनुभव करके अब इस भव में तीर्थंकर के पुत्र होकर महापुरूष के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और सब इसी भव से प्रभु के तीर्थ से ही मोक्षधाम को प्राप्त करेंगे। मैं भी भगवान का गणधर होकर अंत में मोक्षधाम को प्राप्त करूंगा।

दान की महिमा

सम्राट भरत! यह दान की महिमा अचिन्त्य है, अद्भुत है और अवर्णनीय है। देव भी इसकी महिमा को नहीं कह सकते हैं पुनः साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है? राजन! जो दाता, दान, देय और पात्र इनके लक्षणों को समझकर सत्पात्र में दान देता है वह निश्चित ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। देखो! इस आहारदान के बिना मोक्षमार्ग चल नहीं सकता है; अतः आहार, औषधि, शास्त्र और अभय इन चारों दानों में भी आहारदान ही सर्वश्रेष्ठ है और वही शेष दानों की भी पूर्ति कर सकता है।’ इस प्रकार से विस्तृत भवावली और अपना या भगवान ऋषभदेव का व राजकुमार श्रेयांस के कई भवों तक पारस्परिक सम्बन्ध सुनकर भरत चक्रवर्ती अत्यधिक प्रसन्न हुए और बोले-

कुरूवंशशिरोमणे! भगवान ऋषभदेव जैसा ना तो कोई उत्तम सत्पात्र होगा और न आप जैसा महान दातार होगा, न आप जैसी नवधाभक्तिकी विधि ही होगी, न आपके जैसा उत्तम फल को प्राप्त करने का अधिकारी ही हर कोई बन सकेगा। आप इस युग में दानतीर्थ के प्रथम प्रर्वतक कहलाओगे। युग-युग तक आपकी अमर कीर्ति यह भारत वसुन्धरा गाती ही रहेगी। इत्यादि प्रकार से राजकुमार श्रेयांस का सत्कार करके राजा भरत अयोध्या नगरी की तरफ प्रस्थान कर गये।

अक्षय तृतीया नाम क्यों पड़ा

जिस दिन भगवान का आहार हुआ था उस दिन वैशाख सुदी तृतीया थी। अतः उस दान के प्रभाव से ही वह अक्षय तृतीया इस नाम से आज तक इस भारत भूमि में प्रचलित है क्योंकि जहां पर भगवान का आहार होता है वहां पर उस दिन भोजनशाला में सभी वस्तु अक्षय हो जाती है अत: इसका यह नाम सार्थक हो गया है तथा वह दिन इतना पवित्र हो गया कि आज तक भी बिना मुहूर्त देखे शोधे भी बड़े से बड़े मांगलिक कार्य इस अक्षय तृतीया के दिन प्रारम्भ कर दिये जाते हैं। सभी सम्प्रदाय के लोग भी इस दिन को सर्वोत्तम मुहूर्त मानते हैं। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। यह है आहार दान का माहात्म्य जो कि सभी की श्रद्धा करने योग्य है।

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आज ही के दिन दानतीर्थ का प्रवर्तन हुआ था।
युग के आदि में परम दिगम्बर महामुनिराज प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी को राजा श्रेयांस जी ने इक्षु रस आहार दान में दिया । जैन धर्म में इस वर्ष का विशेष महत्व है।
अक्षय तृतीया पर्व की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।

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भोजन को औषधि के रूप में लेवें: मुनि सुधासागर

मुनिसुधासागर ने कहा कि पशु पेट भरने के लिए भोजन करते हैं। जबकि ज्ञानी (मुनिजन) भोजन को भी औषधि मानकर ग्रहण करते हैं। अगर भोजन सबसे मनभावन चीज होती तो एक समय बाद भी इससे मन नहीं भरता। भोजन को जरूरत जितना ग्रहण करना भी संयम का एक रूप है। तपस्वी, संत-साधु धर्म का आलोक प्रज्वलित रखने के लिए भोजन को भी औषधि के रूप में ही ग्रहण करते हैं। गृहस्थ के लोगों को भी इस बात से सीख लेनी चाहिए। मुनिश्री नेमीनाथ जैन मंदिर में प्रवास के दौरान रविवार को हुई धर्मसभा को संबोधित कर रहे थें। मुनिश्री ने कहा कि लोग अपने जीवन में राजनीति या अन्य क्षेत्रों से सन्यास ले लेते हैं, लेकिन आध्यात्म का आकर्षण ही ऐसा है कि वे कभी इससे सन्यास नहीं लेते। ताउम्र लोग धर्म-कर्म से जुड़े रहते हैं। लोगों का जीवन धर्म रूपी सरिता में हर वक्त डूबा रहता है। यदि केवल गृहस्थ जीवन ही अच्छा होता तो लोग इससे भी क्यों संन्यास लेते। हर एक पंच अणुव्रत अवश्य ग्रहण करना चाहता है। यह इसी का प्रतीक उदाहरण है।
दीप प्रज्वलन, चित्र अनावरण किया
कार्यक्रम के दौरान दीप प्रज्वलन और मुनि विद्यासागर के चित्र का अनावरण गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, महेन्द्र टाया, प्रमोद चौधरी, डाॅ. एसके लुहाड़िया ने किया। प्रवचन सुबह 8 बजे से नेमीनाथ दिगंबर जैन मन्दिर में होंगे

विवरण सहित अभिषेक जैन लुहाडिया रामगंजमंडी

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