31.03.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 31.03.2016
Updated: 05.01.2017

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❖ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दुर्लभ प्रवचन हिंदी संस्करण!! -त्यागवृत्ति ❖

त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहचान जब हो जाती है तब विषय सामग्री निरर्थक लगती है और त्याग सहज सरलता से हो जाता है।

यथाशक्ति त्याग को ‘शक्ति-तस्त्याग’ कहते हैं। “शक्ति अनुलंघ्य यथाशक्ति” अर्थात शक्ति की सीमा को पार न करना और साथ ही अपनी शक्ति को नहीं छिपाना। इसे यथाशक्ति कहते हैं और इस शक्ति के अनुरुप त्याग करना ही शक्ति-तस्त्याग कहा जाता है।
भारत में जितने भी देवों के उपासक हैं, चाहे वे कृष्ण के उपासक हों, चाहे वे राम के उपासक हों अथवा बुद्ध के उपासक हों, सभी त्याग को सर्वाधिक मह्त्व देते हैं। ऐसे ही महावीर स्वामी के उपासक हैं। किंतु महावीर स्वामी के उपासको की विशेषता यही है कि उसके त्याग में शर्ते नहीं हैं, हठग्राहिता नहीं हैं। यदि त्याग में में कोइ शर्ते हैं तो वह त्याग महावीर स्वामी का कहा हुआ त्याग नहीं है।

सामान्य रुप से त्याग की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। रोग की निवृत्ति के लिए स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए, जीवन जीने के लिए और इतना ही नहीं, मरण के लिये भी त्याग की आवश्यकता है। जो ग्रहण किया है उसी का त्याग होता है। पहले ग्रहण, फिर त्याग, यह क्रम है। ग्रहण होने के कारण ही त्याग का प्रश्न उठता है। अब त्याग किसका किया जाए? तो अनर्थ की जड का त्याग अर्थात हेय का त्याग किया जाए। कूडा-कचरा, मल आदि ये सब हेय पदार्थ हैं। इन हेय पदार्थो के त्याग मे कोइ शर्त नहीं होती, न ही कोई मुहूर्त निकलवाना होता है, क्योंकि इनके त्याग के बिना न सुख है, न शांति। इन्हें त्यागे बिना तो जीवन भी असंभव हो जायेगा।

त्याग करने में दो बातो का ध्यान रखना अपेक्षणीय है। पहला यह की दूसरों की देखा-देखी त्याग नहीं करना और दूसरा ये कि आपनी शक्ति की सीमा का उल्लंघन नहीं करना क्योंकि इससे सुख के स्थान पर कष्ट की ही आशंका अधिक है।

त्याग में कोइ शर्त नही होनी चहिए किंतु हमेशा से आप लोगो का त्याग शर्तयुक्त रहा है। दान के समय भी आप लोगों का ध्यान आदान में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति सौ रुपये के सवा सौ रुपये प्राप्त करने के लिये त्याग करता है तो यह कोई त्याग नहीं माना जायेगा। यह दान नहीं है, आदान है। एक विद्वान ने लिखा है की दान तो ऐसे देना चहिये जो दूसरे हाथ को भी मालूम न पडे। यदि त्याग किये हुए पदार्थ में लिप्सा बनी रही, इच्छा बनी रही या उस पदार्थ को भोगने की वासना हमारे मन में चलती रही और अधिक प्राप्ति की आकांक्षा बनी रही तो यह त्याग नही कहलायेगा।
बाह्म मलों के साथ-साथ अंतरंग में रागद्वेष रुपी मल भी विद्यमान है जो हमारी आत्मा के साथ अनादि काल से लगा हुआ है। इसका त्याग करना/छोड़ना ही वास्तविक त्याग है। ऐसे पदार्थो का त्याग करना भी श्रेयस्कर है जिसके राजद्वेष या विषय-कषायोंकी पुष्टि होती है।

अजमेर में एक सज्जन मेरे पास आये और बोले, “महाराज, मेरा तो भाव-पूजा में मन लगता है, द्रव्य-पूजन में नही”। तो मैंने कहा-भैया ये तो दान से बचने के लिए पगडण्डियां हैं। पेट-पूजा के लिए कोई भाव-पूजा की बात नहीं करता। इसी तरह भगवान की पूजा के लिए सस्ते पदार्थो का उपयोग करना और खाने-पीने के लिये उत्तम से उत्तम पदार्थ लेना, यह भी सही त्याग नहीं है। कई लोग तो ऐसा सोचते हैं कि भगवान महावीर ने तो नासा-इन्द्रिय को जीत लिया है। अब उनके लिए सुरभित सुगन्धित पदार्थ क्यों चढ़ाना, ये हमारे मन की विचित्रता है। पूजा का मतलब तो यह है कि भगवान के सम्मुख गद्-गद् होकर विषयों और कषायों का समर्पण किया जाये। जब तक ऐसे प्रकार का समग्र-समर्पण नही होता तब पूजा की सार्थकता नहीं है।

त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहचान जब हो जाती है, उस समय विषय-सामग्री कूडा-कचरा बन जाती है और उसका त्याग सहज हो जाता है। इस कूडे-कचरे के हटने पर अंतरंग की मणि अलौकिक ज्योति के साथ प्रकाशित हो उठती है। त्याग से ही आत्मारुपी हीरा चमक उठता है। जैसे कूडा-कचरा जब साफ हो जाता है तब जल निर्बाध प्रवाहित होने लगता है, इसी प्रकार विषय-भोगों का कूडा-कचरा जब होता जाता है तो ज्ञान की धारा निर्बाध रुप से अन्दर की ओर प्रवाहित होने लगती है।
“आत्म के अहित विषय-कषाय इनमें मेरी परिणित न जाये” और
यह राग आग दहै सदा तातें समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निज पद वेइये॥

राग तपन पैदा करता है। विषय-कषाय हमे जलाने वाले हैं। यह हमारा पद नहीं है। यह ‘पर’ पद है। अपने पद मैं आओ। आज तक हम आस्त्रव में जीवित रहे हैं। निर्जरा कभी हमारा लक्ष्य नही रहा। इसलिए दु:ख उठाते रहे। जब तक हम भोगों का विमोचन नही करेंगे, तब तक उपास्य नही बन पायेंगे।

योग जीवन है, भोग मरण है। योग सिद्धत्व का मार्ग प्रशस्त करनेवाला है और भोग नरक की ओर ले जाने वाला है। आस्था जागृत करो। विश्वास/आस्था के आभाव में ही हम स्व-पद की ओर प्रयाण नहीं कर पाये हैं। त्याग के प्रति अपनी आस्था मजबूत करो ताकि शाश्वत सुख को प्राप्त कर सको।

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kal Bade Baba ka Janma/Tap Kallyanak Bade DhumDham se Chote Baba ke sanidhye me Kundalpur ma manaya jayega:))

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रंग माँ रंग माँ रंग माँ रे, प्रभु तारा ही रंग माँ रंग गयो रे ॥

आज के जिन दर्शन और त्याग / नियम
तारीख 23-03-2016, आज के दिन “ “ज” (A) जलेबी खाने का त्याग (B) जूस पीने का त्याग

आप अपनी इच्छा शक्ति अनुसार कोई एक या दो या सभी नियम लेने का भाव रखे ।
अगर आप आज एक दिन का जो त्याग/ नियम/ पच्चखाण करना चाहते हैं!!
1 नवकार मंत्र गिनकर आत्मसाक्षी से नियम ग्रहण करके प्रति उत्तर में “ णमो जिणाणम” - “त्याग है “ (Namo Jinanam and tyag Hai)" लिखकर के वापिस पोस्ट कर देवें!!

सावधान - रात्री शयन से पूर्व नियम के बारे में चिंतन अवश्य करें - नियम भंग होने की स्थिति में 11 नवकार मंत्र का का ध्यान करें ।
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प्रतिदिन छोटे छोटे नियम और त्याग द्वारा संयम साधना करने वाले सभी कल्याण मित्रों की अनुमोदना

~~ छोटे छोटे नियम एक दिन बडा बनाते है जीवन की नैया को ये ही पार लगाते हैं ~~

~~ त्याग करने से एकाग्रता बढ़ती है, संकल्प शक्ति मजबूत होती है और कर्म निर्जरा सहज ही होती है ~~

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Bade Baba our Chote baba.. Bus aapka hi sahara hai mujhe!! kal ki pic

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