19.12.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 19.12.2015
Updated: 05.01.2017

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✿ सूत्र ७: प्रसिद्धी की चाह विष है। बालक की तरह प्रसिद्धी की चाह से बचे।

हमारे जीने के मकसद की दिशा भी विचित्र तरीको से निर्धारित होती है। हम अपने जीवन में क्या करते हैं - इसमें अनेको कारण बनते हैं। इनमें से एक मुख्य कारण रहता है हमारी इच्छा कि हम दूसरो के सामने अच्छे दिखे।

लोक मे प्रसिद्धी की चाह एक विष के समान है जो अध्यात्मिक सन्त को मोक्षमार्ग से च्युत कर संसारमार्गी बना देती है। साधक साधना निज कल्याण के लिये करता है, और निजकल्याण के साथ-साथ पर कल्याण (ज्ञान दान) में भी जागरूक हो सकता है। परकल्याण करते हुये कई बार प्रसिद्धी का रस चखने के बाद, निजकल्याण से साधक च्युत हो जाता है। कई बार तो निजकल्याण करते हुये भी प्रसिद्धी की चाह अन्दर ही अन्दर पनपने लग जाती है।

सन्त का जीवन तो बालक की तरह है- जैसे बालक को मात्र अपनी इच्छा पूरी करनी होती है, उसे कोई परवाह नहीं कि लोग क्या कहते हैं। सन्त भी वीतरागता की इच्छा से साधना करता है, बिना किसी प्रसिद्धी की आकांक्षा के। और एकदम बालक की तरह सादा जीवन जीता है। यहां तक की वस्त्र भी नहीं पहनता, इससे सादा और क्या हो सकता है।

दूसरी तरीके से देखे - हमें क्या मतलब कि लोग हमारे बारे में अच्छा कहें या बुरा। लोग तो हमें अच्छा बुरा उनके विवेक के अनुसार कहेंगे। मगर वास्तविकता यह है कि मेरा अच्छा बुरा का मापदण्ड तो श्रीगुरू के द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार ही हो सकता है। फ़िर मैं क्यों भागूं लोगो के मापदण्ड के आधार पर। मुझे तो अपना सही बुरे का मापदण्ड श्रीगुरू द्वारा बताये गये सिद्धान्त के अनुसार बना लेना है और उसी अनुसार कार्य करना है।

बाहर में जीव संसारी है, और मुख्यतः संसार मार्ग को ही अच्छा मानते हैं। अगर मैने उनके अनुसार कार्य करने शुरू कर दिये तो संसार में कल्याण होना असंभव ही है। अतः हम लोक में प्रसिद्धी की चाह से बचे।

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✿ Revolutionary transformation ✿ Jainism -the Philosophy

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✿ सूत्र ६: मेरा मरण नहीं

मात्र शरीर का मरण होता है, आत्मा का नहीं। इस सूत्र को बार बार भावना करने से शरीर के जन्म, मरण, रोग से भय शोक समाप्त हो जाते हैं, और जीव सुखी हो जाता है।

आत्मा किस प्रकार से शारीर में है, इसे समझते हैं। जिस प्रकार से दूध में कोई मणि हो और उसका प्रकाश पूरे दूध में फ़ैला हो, उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर में फ़ैली हुई है।

अगर हम उस दूध को उबाल दे तो उफ़नते हुये दूध में भी प्रकाश पूरा फ़ैला रहता है, और उस दूध को अलग आकृति वाले बर्तन में डाल दे तो मणि का प्रकाश भी उसी आकार का हो जाता है। एकदम उसी प्रकार आत्मा भी जैसा शरीर हो वैसा ही आकार ले लेती है। छोटी चींटी में जाये तो उसका छोटा आकार ले लेता है, बढे हाथी में जाये तो वैसा आकार ले लेती है। वो प्रकाश दूध के हर प्रदेश में है; दूसरे शब्दो में दूध में ऐसा कोना नहीं जहां प्रकाश ना हो, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में फ़ैली है।

जिस प्रकार से हम प्रकाश को दूध से भिन्न मानते हैं जबकि वो दोनो एक साथ है, उसी प्रकार जानने वाली आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर आंखो से दिखाई देता है, किसी ना किसी रंग को धारण किये होता है, मगर आत्मा बिना किसी रंग, गंध की है। जिस प्रकार से दूध में प्रकाश को हम उसकी रोशनी से दूध से भिन्न जानते हैं, उसी प्रकार आत्मा अपने ’जानने वाले गुण’ से ही शरीर से भिन्न जाना जाता है। आत्मा हमें अलग से आंखो से दिखाई दे जाये, ऐसा नहीं है। वरन आत्मा को हम उसके जानने के गुण से शरीर से भिन्न अनुभव कर पाते हैं। आत्मा के बारे हम कल्पना करे कि वो श्वेत रंग की है, अमूक आकार ही है- ऐसा भी नहीं। आत्मा के समझ तो उसके जानने के गुण से ही हो पाती है।

एक और उदाहरण लें - जैसे बल्ब में चमक होती है, वो उसके अन्दर बिजली के प्रवाह से होती है। अगर बिजली बल्ब में प्रवाहित ना हो तो चमक भी समाप्त हो जायेगी। उसी प्रकार से आत्मा शरीर में है, और मरण पर आत्मा के शरीर से निकल जाने पर शरीर कोई काम का नहीं रहता।

इस प्रकार आत्मा को शरीर से भिन्न जानने पर व्यक्ति का दृष्टिकोण ही बदल जाता है। जैसे कोई व्यक्ति लाल चश्मा लगाये तो समस्त दुनिया अब अलग प्रकार से दिखती है, उसी प्रकार जब शरीर से भिन्न आत्मा को जानता है तो पूरी दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना शरीर जिसे ’मेरा’ कहता था, अब पराया लगने लगता था। शरीर रूपी घर में अपने को मेहमान समझने लगता है। पहले शरीर के जन्म के साथ अपना जन्म और मरण के साथ अपना विनाश मानता था, अब अपने को अविनाशी मानने लगता है। मरने का अब उसे भय नहीं लगता। पहले बिमारी होने पर सोचता था ’हाय मरा’, अब बिमारी होने पर उसे पङोसी बीमार हुआ ऐसा लगता है। पहले जीवन के निर्णय अपने 70-80 साल की जिन्दगी की आधार पर लिया करता था, अब निर्णय भव-भवान्तर को सोच कर लेता है। पहले शारीरिक गुणों के आधार पर अपने को अच्छा - बुरा, बङा-छोटा समझता था, अब आत्मिक गुणों के आधार पर अपना मापदण्ड करता है। पहले भाई, बन्धु, माता, पिता स्त्री को अपना सब कुछ मानता था। अब उन्हे ऐसा मानता है - जैसे कि हम लोगो से ट्रेन के सफ़र में कुछ समय के लिये मिलते हैं और फ़िर सदा के लिये छोङ देते हैं, उसी प्रकार इन सम्बन्धीयों को भी सदा के छोङ देना है इसीलिये ये सम्बन्धी किस बात के । इस प्रकार से आगे बढते बढते शरीर से भी समस्त प्रकार के राग द्वेष को जीत लेता है, और परम निर्मल पवित्र सिद्ध दशा को प्राप्त करता है।

इसी से सम्बन्धित और सूत्र भी समझने हैं: मेरा जन्म नहीं, मेरे को रोग नहीं, मैं काला-गोरा नहीं इत्यादि

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✿ सूत्र ५: अपने अन्दर शक्ति रूप प्रभु का ध्यान करें।

ध्यान मे बढी ताकत है। यह गलत दिशा में हो तो जीव को खूंखर दरिंदा बना देता है, और सही दिशा में हो तो तीर्थंकर बना देता है, सिद्ध बना देता है। इसी ध्यान के परिणाम स्वरूप ही जीव के विभिन्न चित्र-विचित्र इस ३ लोक के Canvass पर दिखाई पङते हैं। विज्ञान के जगत में जिस प्रकार मात्र ३ मौलिक कणो (प्रोटान, न्यूट्रान, इलेक्ट्रान) से ही सम्पूण जगत के अनगिनत पुद्गल दिखाई पङती हैं- जैसे लकङी, अनेक प्रकार की धातुयें, प्लास्टिक इत्यादि। उसी प्रकार से मात्र १४८ प्रकृतियों के कर्मो के संयोग से अनेको प्रकार के अवस्थायें जीव में पायी जाती हैं जैसे मच्छर, बैक्टीरिया, देव, नारक, नर, सीप इत्यादि

इन सब अवस्थाओं से विलक्षण, सर्वत्र सुन्दर, अनुपम, तीन लोक में पूज्य जीव की स्वतन्त्र अवस्था है। जिसमें कर्मो या किसी भी अन्य द्रव्य का कोई हस्तक्षेप नहीं और जब कोई जीव समस्त कर्मो से मुक्त होता है तो ऐसी अवस्था प्राप्त करता है। दूसरे शब्दो में सभी संसारी जीवो में सम्पूर्ण स्वतन्त्र होने की शक्ति है। इसी शक्ति का ध्यान करने को आचार्यो ने शास्त्रो में बताया है।

पहले समझते हैं शक्ति का मतलब क्या? जैसे एक पहलवान को जंजीरो मे जकङा हुआ है, और वह अब कुछ भी करने मे समर्थ नहीं। जैसे ही जंजीरे खुलती हैं तो वह अकेले २-३ पहलवानो को चित करने में समर्थ हो। तो हम कहेंगे कि जंजीरो में बंधे हुये पहलवान के दूसरे पहल्वानो को चित्त करने की शक्ति है मगर अभी व्यक्त रूप में नहीं है, एक बार जंजीर खोल के देखो तो सारी शक्ति समझ में आयेगी। उसी प्रकार कर्मो के बन्धन में आत्मा का ज्ञान, वीर्य, सुख संकुचित है, मगर है उसमे शक्ति अनन्त ज्ञान, वीर्य और सुख की। जो एक बार कर्म नष्ट हो जाते तो एकदम प्रकट हो समझ मे आती हैं जैसे पहलवान के उदाहरण मे हमने समझा।

लोक में भी शक्तिओं का ध्यान करके ही कार्य बनता है। अगर एक राजा दूसरे राजा से युद्ध करे, और उसकी सेना को अपने जीतने की शक्ति पर विश्वास ही ना हो तो क्या राजा जीत सकता है? इसी प्रकार हमारे मन के विकार जीतने हो और अपने अन्दर वीतराग शक्ति का ध्यान ना हो, तो विकार भी जीता नहीं जा सकता।

जैसे हमें क्रोध जीतना हो तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम विपरीत अवस्थाओं में शान्त रह सकूं। हमें लोभ जीतना है तो हम ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि हम समस्त लोभ रहित हो सकते हैं। बाहर में विषय को देखकर चित्त डगमगा जाये, तो ध्यान करें कि हम विषयों को जीतने की शक्ति से युक्त हैं। दसलक्षण के अवसर पर हमारे अन्दर धर्म रूप परिणत होने की शक्ति का ध्यान करें। अरहंत भगवान की भक्ति करें तो साथ में अपने अन्दर अरहंत होने की शाक्ति का भी ध्यान करें। साधू सन्तो के दर्शन करें तो हमरे अन्दर तप, परिषह में वीतरागता धारण करने की शक्ति का ध्यान करें। इस प्रकार का ध्यान करें कि हमारे अन्दर शक्ति है कि उनोदर करें और फ़िर भी वीतरागे रह सके, क्षुधा आदि परिषह हो तो फ़िर भी वीतरागी रह सके। हम सब जीवो के अन्दर ये शक्तियां समान रूप से विद्यमान हैं। इस प्रकार हम विभिन्न शक्तियों का ध्यान चलते फ़िरते कर सकते हैं। या फ़िर बैठकर कर सकते हैं, अगर मन ना लगे तो मंत्र ध्यान के साथ भी कर सकते हैं। ऐसा practical हम खुद अपने पर करे।

इस प्रकार उस शक्ति का ध्यान करने से चमत्कार हो जाता है। कर्मो की अवस्था पर परिवर्तन होने लगता है। समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुकूल हो जाते हैं। और शीघ्र ही वो शक्तियां व्यक्त होने लग जाती है।

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