28.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 28.11.2015
Updated: 05.01.2017

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❖ निर्ग्रन्थ मुनियो के “मुनित्व” की सुरक्षा कैसे और क्यों? उपगूहन अंग और साथ में श्रावक [Society] का विवेक, Responsibly regarding recently happened unholy incident. MUST READ IT |

उपगूहन कथा --- जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा, श्रावक चर्या का मूल ग्रन्थ - रत्नकरंड श्रावकाचार से |पहले ये 2 paragraph में दी गयी story पढ़े फिर इस article को आगे continue read करे

सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनो के सुबीर नामक पुत्र था। सुबीर सप्तव्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरूष उसकी सेवा करते थे। उसने कानो कान सुना कि पूर्व गौङ देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्र भक्त सेठ के सात खण्ड वाले महल के ऊपर अनेक रक्षको से युक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पर जो छत्रत्रय लगा है उस पर एक विशेष प्रकार का अमूल्य वैडूर्यमणि लगा हुआ है। लोभवश उस सुबीर ने अपने साथियों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने मे समर्थ है? सूर्य नामक चोर ने गला फ़ाङकर कहा कि यह तो क्या मैं इन्द्र के मुकुट का मणि भी ला सकता हूं। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरो मे क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुंच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हुए जिनेन्द्रभक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर वन्दना कर तथा वार्तलाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पार्श्वनाश देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणि का रक्षक बनाकर वहीं रख लिया।

एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुंद्र यात्रा के लिये चला और नगर से बाहर निकलकर ठहर गया। वह चोर क्षुल्लक घर के लोगो को सामान ले जाने में व्यग्र जानकर आधी रात के समय उस मणि को लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकङने के लिये उसका पीछा किया। कोतवालो से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालो का कलकल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है परन्तु धर्म को उपहास से बचाने के लिये उसने कहा कि यह मेरे कहने से ही रत्न को लाया है, आप लोगो ने अच्छा नहीं किया जो इस महा तपस्वी को चोर घोषित किया। तदनन्तर सेठ के वचन को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिये।

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इसमें कोई doubt नहीं की सम्यक-चर्या में शिथिलता बढती ही जारही है चाहे फिर तो श्रावक चर्या हो या मुनि चर्या, श्रावक की आदर्श चर्या के मूलगुण आदि तो मुनिराज प्रवचन, शिविर में बताते ही है और हम में से लोग यथासंभव पालन भी करते है लेकिन समस्या अब सबसे बड़ी है की यदि श्रावक के आदर्श और जिनको सिद्धो सामान चलते फिरे तीर्थ कहा गया ऐसी तीर्थंकर मुद्रा की चर्या में विसंगतिया आने लगे तब क्या करे? सच्चे साधू इस पंचम काल में भी होते है और पंचम काल में अंत तक होते रहेंगे अब अगर किसी को कोई सच्चे साधू अगर नहीं मिल पाते तो यह नहीं बोल सकते की सच्चे साधू है ही नहीं, सच्चे साधू तो है लेकिन उनको नहीं मिलपा रहे ये अलग बात है, पहली बात तो है की इस विषय में श्रावक का अधिकार ना के बराबर है और दूसरी और अगर जो कुछ श्रावक कर सकता है तो सिर्फ विवेक से ही कर सकता है..

अपनी बात पर आते है की श्रावक को ऐसी किसी घटना का जिक्र Facebook, Orkut, TV [Electronic media], Video clips, Social networking sites, Newspapers पर क्यों नहीं करना चाहिए जिसमे साधू द्वारा कुछ गलत चर्या की गयी हो, actually हमें ऐसी घटनाओ को publicly नहीं share करना चाहिए क्योकि

1. ऐसा करने से जिनका धर्मं पर थोड़ी थोड़ी श्रद्धा अभी ही शुरू हुई है जो भटक सकते है
2. धर्मं की अप्रभावना होती है
3. अहिंसा के पुजारी द्वारा ही हिंसा ऐसा सन्देश जायेगा...
4. लोगो का सब मुनिराज पर संदेह हो जायेगा, लोग सच्चे वीतरागी मुनि को भी उसी द्रष्टि से देखंगे [एक दो मुनिराज के कुछ गलत चर्या का सबको पता चलने से पूरा साधू जगत बदनाम हो सकता है]
5. समाज में बटवारा हो सकता है, लोग विशेष पक्ष का साथ लेकर लड़ना प्रारंभ कर सकते है
6. कुछ लोग शायद आतारिक विशुद्धि की और बढ़ रहे हो तो उनका निर्मल भाव फिर पतन की और जा सकते है
7. अज्ञानतावश या कर्म उदय के कारण जो जिन धर्मं से विद्वेष करते है उनको मोका मिलेगा बोलने, जिससे धर्मं का नाम तो खराब होगा ही साथ में धार्मिक गुनीजनो पर विपत्ति भी आसक्ति है, और फालतू में उन विद्वेष करने वालो का भी कर्म बांध पढ़ेगा...भैया कर्म बांध किसी का भी पढ़े, कर्म बंध तो बंध ही है |
8. निंदा करने से व्यक्ति दो पक्षों में बट जाते है, एक पक्ष और दूसरा उसका विपक्ष, और मतभेद से शुरू होकर क्रिया मनभेद हो करके रुक जाती है क्योकि मतभेद होना इतना बुरा नहीं जितना मनभेद है...जिससे धर्मं नाम शब्द बदनाम हो जाता है की धर्मं तो लोगो को बटता है लेकिन सच्चाई ये है की "हम ही धर्मं के नाम पर बट जाते है और बदनाम होता है धर्मं"

जिनको जिनवाणी पर श्रवण और चिंतन/मनन से थोड़ी बहुत सम्यक बुद्धि उत्पन हुई है वे लोग जब देखते है की मुनिराज का स्वरुप शास्त्रों में कैसा मनभावन और पवित्र लिखा और कैसे अद्भुत होते है ये वीतरागी संत और वे फुले नहीं समाते और बड़े प्रसन्न होते है ऐसे जिनेन्द्र धर्म की शरण पाकर लेकिन जब वेही देखते है आज की ये कैसी चर्या मुनिराज कर रहे है और अचानक कुछ अधार्मिक चर्या किसी मुनिराज द्वारा देखि जाती है तो कुछ व्यक्ति अपने पर control नहीं कर पाते और जहा तहा उन बातो का वर्णन करते है लेकिन उनका अभिप्राय सिर्फ ये रहता है की ये चर्या की विसंगति कैसे ख़तम हो जाये |

अब बात आती है उपगूहन अंग की जिसका मतलब है किसी कारनवश चर्या से पतित होते हुए व्यक्तित्व की रक्षा करना, उनके भावो को दुबारा दृढ करना और उनको फिर धर्म मार्ग में लगाना, उनको उनका धर्मं याद दिलाना, धर्मं का प्रभाव सिद्ध करके धर्मं में श्रद्धा को बढ़ाना, जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मकी, अज्ञानी तथा असमर्थ जनोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई निन्दाको दूर करते हैं, अन्य पुरुषोंके दोषों को भी गुप्त रखना, जो दूसरोंके दोषोंको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नहीं करता | सम्पूर्ण रूप से गुण-ग्राही हो जाना, मतलब सिर्फ गुण ही गुण देखते चले जाना और अपने व्यक्तित्व को उन महावीर स्वामी जैसा होने का प्रयास करते चले जाना...

सबसे बड़ी बात श्रावक आजकल नाम के लिए श्रावक है उसको पता ही नहीं धर्मं वास्तविकता मैं है क्या? श्रावक किसको कहते है, महावीर स्वामी कौन थे और कैसे महावीर महावीर बने, ये संसार क्या है, nature क्या है...हम लोगो जिनवाणी का ज्ञान नहीं, कुछ लोग तो सिर्फ वो पूजा-पाठ में ही अटक गए...जिनवाणी जब तक हम लोग नहीं पढेंगे तब तक, कुछ नहीं पता चलने वाला, जिनवाणी मतलब जिनेन्द्र भगवान् की वाणी को पढना, ग्रन्थ पढना | कहते है जिसको धर्मं का सही मर्म समझ आजाये तो उसके जीवन में उसका प्रभाव ना झलके ऐसा संभव नहीं, कदाचित कर्म उदय से कुछ नियाम, त्याग आदि ना कर पाए वो अलग बात है |

इसमें अब अगर सिद्धांत की आँखों से देखे तो उन्होंने दीक्षा आत्म कल्याणक के लिए ही ली थी और मन में वैराग्य आदि भी था..लेकिन अब किसी पूर्व कृत कर्म उदय, वे अपना वैराग्य कायम नहीं रख पा रहे और साथ में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से उनका ऐसा योग बन गया की उनके द्वारा साधू के मूलगुण के सिद्धांतो के विपरीत चर्या उनके द्वारा हो जाती है, और ऐसा नहीं है की सिर्फ ये आगम के विपरीत चर्या इस पंचम काल में ही हुई हो, चोथे काल में भी आगम विपरीत चर्या जिसमे 28 मूलगुण में दोष लगे ऐसी चर्या हुई है और देखने में आया की उनमे से अधिकतर मुनिराज को जब अपने उस गलती का भान हुआ तो उनकी द्रष्टि ऐसी निर्मल हुई, उनके भाव ऐसे विशुद्ध हुए की एक एक क्षण में करोडो कर्मो को चूर चूर करते हुए, महान तपस्या की और सब कर्म को जला डाला...और आगामी भविष्य जो अन्धकार की और जाने वाला था तो संवर गया |

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शिथिलाचारी मुनि के साथ श्रावक का व्यवहार - चाo चo आo श्री शान्तिसागर जी मo से...
जिज्ञासा: यदि कोई शिथिलाचारी मुनि, जिनका आचरण आगम के विपरीत स्पष्ट देख रहा हो, अपने शहर में आजावे तो श्रावको को कैसा व्यवहार करना चाहिए?
समाधान: इसी प्रकार का प्रश्न चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ के तीर्थाटन अध्याय में प्र: 126 पर चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज से किया गया था वह यह है -
'शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए? महाराज ने कहा कि "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए! उनका स्थितिकरण करना चाहिए!" पुनः प्रश्न - समझाने पर भी यदि उस मुनि कि प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्त्तव्य है? क्या समाचार पत्रों में उसके सम्बन्ध में समाचार छपाना चाहिए या नहीं? महाराज कि उत्तर "समझाने से भी काम न चले तो उनकी उपेक्षा करो, और उपने उपगूहन अंग का पालन करो! पत्रों के चर्चा चलने से धर्म कि हंसी होने के साथ साथ अन्य मार्गस्थ साधुओ के लिए भी अज्ञानी लोगो से बाधा उपस्थित कि जाती है "

गथार्थ: "नग्न मुद्रा के धारक मुनि तिलतुष मात्र भी परिग्रह अपने हाथो में ग्रहण नहीं करते! यदि थोडा बहुत ग्रहण करते है तो निगोद जाते है" - सूत्रपाहुड
गथार्थ: "जो पाप से मोहित बूढी मनुष्य, जिनेंद्र्देव का लिंग धारण कर पाप करते है वे पापी मोक्षमार्ग से पतित है!" - मोक्षपाहुड
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ठीक है हम कही पर भी publicly इन बातो का वर्णन नहीं करेंगे | लेकिन ऐसे हम ऑंखें बंद करके तो नहीं बैठ सकते??? अगर किसी के घर में suppose उनके पिता जी किसी गलत राह पर चल पड़े और जिसका अंजाम बहुत बुरा होने वाला हो तो क्या उसके घर वाले पुरे area में शोर मचा देंगे और अपने ही घर की बदनामी करेंगे? इससे तो वो और उनके पिता जी अपने ही घरवालो से द्वेष करने लगेंगे और परिस्थिति इतनी बिगड़ जाएगी की फिर उनके किसी भी तरह समझाना भी मुश्किल हो जायेगा, क्योकि अपने से बड़े पूज्य व्यक्तियों से अलग प्रकार से व्यवहार किया जाता है और छोटो से अलग प्रकार से, ठीक यहाँ हमें मुनिराज के लिए apply करना है, हम पुरे नगर में शोर तो नहीं मचा सकते ना, और ना ही उनकी द्वारा की जारही गलतियों पर पर्दा ड़ाल सकते | हमें बिलकुल भी ऐसी निंदनीय चर्या पर पर्दा तो नहीं डालना चाहिए, उसका पूरा चर्चा होना चाहिए, लेकिन सिर्फ समाज के विद्वान वर्ग द्वारा और श्रेष्टि वर्ग जो ज्ञान से श्रेष्ठ हो ऐसा व्यक्तियों द्वारा पूरा चर्चा होना चाहिए की ऐसा क्यों हुआ या क्यों हो रहा है जिसमे जिम्मेदारी किसी है और आगे ऐसा ना हो क्या किया जाए, जहा ऐसा हो रहा है वहा पर physically जाकर इस पर अपने विवेक से काम करना चाहिए | और कुछ ऐसा विवेक से जरुर करना चाहिए की भविष्य में ये निर्ग्रन्थ चर्या निर्दोष रूप से चलती रही, क्योकि मुनि दीक्षा आत्म कल्याण के लिए ली जाती है और धर्मं प्रभावना तो उसके माध्यम से हुआ करती है, सिर्फ धर्मं प्रभावना मुनि का मकसद नहीं |

इसके लिए हमें खुद जागरूक होना होगा और लोगो को जागरूक करना होगा जिनवाणी का पठन करे, ग्रन्थ पढ़े और जाने की जिनेन्द्र भगवान् क्या थे और क्या कहना चाहते है, शब्द अपने आप में कुछ नहीं, बल्कि उनके माध्यम से निकलने वाला सार ही सब कुछ होता है, जब हम कुछ सुनते है या पढ़ते है तो सिर्फ उस लिखने वाले या सुनने वाले की द्रष्टि से ही पढ़ते सुनते है लेकिन अगर जिनेन्द्र भगवान् ने क्या कहा ये जानना है तो उनकी वाणी का सार समझना होगा... लेकिन प्रॉब्लम है की ऐसे समय पर व्यक्ति अपना विवेक भूल जाता है कहते है कभी भी किसी भी बात पर प्रतिक्रिया एकदम से नहीं देना चाहिए, बड़ा सोच समझकर ही देना चाहिए और अगर एकदम से कुछ बोलना पड़े भी तो वो एक दम रचनात्मक होना चाहिए..यही मेरे जीवन का मन्त्र है... -NIpun Jain

Concerned with 'elder-trio' - Mr. Manish Modi [Reknowned Jaina Scholar, Mumbai], Mr. Shrish Jain [www.jinvaani.org foundation member, USA] and Brahmchari Kapil Jain [Now Muni SaumyaSagarJi] Article written by Nipun Jain:)

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News in Hindi

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❖ अभिनन्दन जिनराज का आनंद कूट है जेह, मन वाच तन कर पूजहु, जाऊ कारन से छुट |

अयोध्या नगरी मे इक्ष्वाकुवन्शीय महाराज सन्वर राज्य करते थे | उनकी रानी का नाम सिद्धार्था देवी था | एक रात्रि मे महारानी ने 16 स्वपन देखे | भविष्य-वेत्ताओ से स्वपन फ़ल पूछा गया| उन्होने स्पष्ट किया महारानी एक एसे तेजस्वी पुत्र को जन्म देगी जो या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा, अथवा धर्मतीर्थ का संस्थापक तीर्थंकर होगा | स्वप्न - फ़ल ज्ञात कर सर्वत्र हर्ष फ़ैल गया |

एक अन्य विशेष प्रभाव यह हुआ कि राजपरिवार सहित समस्त नागरिको मे पा्रस्परिक अभिवादन - अभिनन्दन रुपी सदगुण का अतिशय विकास हुआ | सभी ने इसे महारानी के गर्भस्थ पुण्यशाली जीव का प्रभाव माना | माघ शुक्ल द्वितीया को महारानी ने एक तेजस्वी शिशु को जन्म दिया | देवो ओर मानवो ने प्रभु का जन्मोत्सव मनाया | नामकरण की वेला मे महाराज ने घोषणा की -हमारे पुत्र के गर्भ मे आते ही सर्वत्र अभिवादन - अभिनन्दन के सदगुन का प्रसार हुआ,इसलिए इसका नाम ‘ अभिनन्दन ‘ रखा जाता है |

अभिननदन कालक्रम से युवा हुए | पिता के प्रव्रजित होने पर इन्होने राज्य का सन्चालन भी किया | इनके कुशल शासन मे सर्वत्र सुख,सम्रद्धि ओर न्याय की व्रद्धि हुई | कालन्त्तर मे पुत्र को राजपद प्रदान कर, अभिनन्दननाथ ने प्रव्रजया अन्गीकार की | अठारह वर्षो तक प्रभु छ्दमस्थ अवस्था मे रहे | तत्पश्चात पोष शुक्ल चतुअर्दशी के दिन प्रभु ने केवल -ज्ञान प्राप्त किया | देवताओ ने उप्स्थित हो कैवल्य महोत्सव मनाया एवम समवसरण की रचना की | प्रभु ने धर्मोपदेश दिया | हजारो लोगो ने साधु,साध्वी, श्रावक ओर श्राविका -धर्म को अन्गीकार किया | इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई | सुदीर्घ काल तक भव्य प्राणियो को धर्माम्रत का पान कराने के पश्चात वैशाख शुक्ल अष्टमी को सम्मेद शिखर से भगवान मोक्ष पधारे |

भगवान के चिन्ह का महत्व --- बन्दर - यह भगवान अभिनन्दननाथ का चिन्ह है | बन्दर का स्वभाव चंचल होता है | मन की चंचलता की तुलना बन्दर से की जाती है | हमारा मन जब भगवान के चरणों मे लीन हो जाता है, तो वह भी संसार में वन्दनीय बन जाता है | श्रीराम का परम भक्त हनुमान वानर जाति में जन्म लेता है | अपने चंचल मन को स्थिर करके प्रभु के चरणों में मन लगाने से वह पूजनीय बन गया | इसी प्रकार हम भी तीर्थंकर अभिनन्दननाथ जी के चरणों में मन लगाने से अभिनन्दनीय, वन्दनीय बन सकते हैं |

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❖ दो प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं! एक कुत्ते की वृत्ति होती है और एक सिंह की वृत्ति होती है! दोनों मे बड़ा अन्तर होता है!कुत्ते और सिंह मे बड़ा अन्तर होता है! कुत्ते को यदि कोई पत्थर मारता है तो वह पत्थर की तरफ लपकता है और जब तक वह उस पत्थर की तरफ लपकता है उसे दो चार पत्थर और पड़ जाते हैं!लेकिन शेर के लिए यदि कोई गोली चलाता है तो शेर बन्दुक की तरफ न देखकर गोली चलाने वाले की तरफ वार करता है और शेर जीत जाता है! बस यही अन्तर है ज्ञानी और अज्ञानी मे! अज्ञानी निमित्त के पीछे भागता है जबकि फैंकने वाला तो हमारे भीतर का कर्म है! कर्म की तरफ जिसकी दृष्टि नही जाती वह निमित्त की तरफ भागता है तो उस पर दो चार पत्थर और पड़ जाते हैं और वह राग द्वेष कर दो चार कर्म और बाँध लेता है! लेकिन सम्यक दृष्टि निमित्तों को दोष कभी नही देता है! अगर उसके सामने कोई प्रतिकूल निमित्त आता है तो वह उस निमित्त को देख विचलित होने की जगह अपने कर्म की तरफ देखता है और समता के प्रहार से उस कर्म को जड से काट देता है! कर्म का ही अन्त कर देता है! सिंह की तरह अपनी दृष्टि बनाएँ! निमीत्तोंमुखी होने से बचें! हम बहुत जल्दी निमित्तों से प्रभावित हो जाते हैं! किसी ने जरा सी तारीफ़ कर दी तो खिल जाते हैं! किसी ने टिप्पणी की तो खौल गए! पल मे खिलना, पल मे खौलना! ये अज्ञान है! सम्यक दृष्टि वो होता है जो न तारीफ़ मे प्रसन्न होता है न टिप्पणी मे खिन्न होता है! ये एक दुर्बलता है! मुनिश्री 108 प्रमाण सागर जी की पुस्तक "मर्म जीवन का" से by Rajesh Jain

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