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❖ संयम जीवन को अनुशासित और संकल्पित करने का अवसर है. हमने जीवन में सच्चाई लाने का मन बनाया है, इसके लिए जरुरी है की हम अपने जीवन को विभिन्न संकल्पों द्वारा संयमित करे जैसे कांच की एक चिमनी दीपक की लौ को जलाये रखती है उसे बुझने नहीं देती, ठीक ऐसे ही यदि हमने अपने जीवन में सत्य-ज्योति हासिल कर ली है तो हमारा कर्त्तव्य है की हम उस पर संयम की एक चिमनी रख दें जिससे सच्चाई की ज्योति कभी बुझ न पाये. संयम एक बंधन होते हुए भी जीवन को ऊंचा उठाने में मदद करता है, जैसे एक कुशल माली किसी लता में हल्का सा बंधन डाल देता है जो उसके विकास में सहायक सिद्ध होता है.
नदी के किनारे मजबूत न हो तो वह नदी यहाँ वहां फैलकर नष्ट हो जायेगी. ऐसे ही संयम/ अनुशासन हमारा जीवन ऊंचा उठाता है. हम सामान्य जीवन में भय से, स्वार्थवश कभी स्वास्थ्य रक्षा के लिए बहुत-से अनुशासन अंगीकार कर लेते है पर ये अनुशासन जीवन को ऊंचा नहीं बना पाते इसलिए संयम के मायने केवल अनुशासन ही नहीं आत्मानुशासन है, आत्मनियंत्रण है.
यदि द्दृष्टि आत्मउत्थान की है तो अपने ऊपर लगाये सारे अंकुश हमें ऊंचा उठा देंगे. व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर अंकुश लगा ले, अपने को अनुशासित कर ले तो वह अनुशासन अपने को ऊंचा उठाने में मदद करता है.
संयम के मायने है - अपनी संकल्प शक्ति को अपने विल-पॉवर को भी बढ़ाना है. आज नयी पीढ़ी की शिकायत है की हममें आत्मविश्वास एवं संकल्प शक्ति की कमी है. कमी क्यों नहीं होगी? हमने अपने जीवन को संयमित करने का प्रयत्न ही नहीं किया है. यदि हम अपने जीवन को संयमित करे तो मालूम होगा अपनी संकल्प शक्ति का. जिसकी संकल्पः शक्ति जितनी अधिक होगी वह अपने जीवन को उतना अधिक संयमित कर सकता है. जीवनभर के लिए कोई नियम लेने के लिए बहुत साहस चाहिए. यह बंधन दूसरों के द्वारा नहीं बांधा जा सकता बल्कि स्वयं का साहस होना जरुरी है. यह साहस यदि हम जुटा लेते है तो ऐसे संकल्पों से ऐसे नियंत्रणों से हमारा जीवन धीरे-२ ऊंचा उठता है और हमारा आत्मविश्वास बढता चला जाता है.
संयम से हमारे संस्कारो का परिमार्जन होता है हमारे भीतर असंयम के, असावधानी के, अव्यवस्थित जीवन जीने के जो संस्कार पढ़े हुए है वे सब व्यवस्थित और परिमार्जित हो जाये यह संयम का काम है. एक बार भर्तहरी मुनि विरक्त होकर जंगल में साधना कर रहे थे अचानक एक हीरा देख कर उनका मन एक क्षण को डोल गया लेकिन अगले ही क्षण दो घुड़सवार वहां आये और हीरे पर अपने अधिकार के लिए लड़ने लगे और दो मिनिट में ही दोनों के सिर जमीन पर पड़े हुए थे और हीरा भी. भर्तहरी फिर से ध्यान में लीन हो गए और सोचने लगे यदि में भी चूक गया होता तो मेरी भी यही दशा होनेवाली थी. संस्कारो की ऐसी प्रबलता को हम संयम से आसानी से छोड़ सकते है.
संयम एक तरह का स्वस्थ और संतुलित जीवन है - क्या खाना - कैसे खाना- कब खाना - क्या सोचना - क्या करना - क्या नहीं करना आदि है. आचार्य भगवन्तो ने संयम की परिभाषा बनायीं है कि इदं कर्तव्यम - इदं न कर्तव्यम, इदं आचरणीयम्, इदं न आचरणीयम्, इति प्रतिज्ञाय और दूसरी परिभाषा बनाते है कि व्रत और समिति का पालन करना अपने मन, वचन और इन्द्रियों को संयमित कर लेना- नियमित कर लेना- नियंत्रित कर लेना इसी का नाम संयम धर्म है.
स्वस्थ और संतुलित जीवन जीने के लिए यह चार बातें हमेशा करे- कब? -कैसे? - क्यों? और क्या? कब खाएं, २४ घंटे खाते रहे क्या? क्या जहाँ चाहें - चलते - फिरते - आते
- जाते खाना? नहीं, शांति से बैठकर भगवान का स्मरण करके कोई चीज खाना, कोई चीज करना. हम दुनिया भर कि चीजों के बारे में ये प्रश्न करते हैं? पर अपने चीजों के बारे में यह प्रश्न क्यों नहीं करते. अतः जो अपने मन और इन्द्रियों को मलिन करे वह नहीं करना यदि हम इतना विचार कर लेवें तो हमारा जीवन आसानी से संतुलित हो जायेगा.
इन्द्रियों और मन का सदुपयोग करना और उन्हें ठीक दिशा देना भी संयम है.इन्द्रियों घोड़ा के सामान है और घोड़ा तेज तर्रार होना चाहिये. ऐसे ही मन को मर लेने से, इन्द्रियों को नष्ट कर लेने से हमारे जीवन का उद्धार नहीं होगा बल्कि मन को ठीक दिशा देने एवं इन्द्रियों की लगाम अपने हाथ में रख लेने से ही हमारा जीवन ऊंचा होगा मतलब मन से अच्छे विचार करना, आँखों से अच्छा देखना, और वाणी से हित मित प्रिये कहना इत्यादि,
इन्द्रियों का सदुपयोग करना है. इन्द्रियों का सदुपयोग करना ही उन्हें नियंत्रित कर लेना है. कोई कठिन चीज़ नहीं है. यदि हमारे जीवन में थोड़ा सा अभ्यास और विरक्ति आ जाये तो हम अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकते है और सदुपयोग कर सकते है.जिसके मन में दृष्टि कि निर्मलता है, जिसको सम्यकदृष्टि प्राप्त हो गयी है उसके जीवन में ज्ञान
और वैराग्य दोनों ही आ जाते है,हमें भी ज्ञान और वैराग्य द्वारा अपने जीवन को नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए.
यदि हम एक बार तय कर लेवें कि अपने मन को अपनी इन्द्रियों को, अपनी वाणी
को, अपने जीवन को एक दिशा देनी है, नियंत्रित करना है,अनुशासित करना है तो हमारा जीवन जरूर से संयमित होगा.
(मुनि क्षमासागर महाराज की जय)
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❖ हम आनंद लें उस चीज़ में जो हमें प्राप्त है| यह ना देखें की दूसरे के पास क्या है, जो हमारे पास है,उस में खुश रहे अन्यथा मुश्किलें पैदा होती हैं |अपनी ऐसी ही मुश्किलों को आसान करने के लिए हमारे मन में सरलता होना चाहिए, ईमानदारी होना चाहिए,हमारे भीतर उन्मुक्त ह्रादयता होनी चाहिए. और इतना ही नहीं हम स्पष्टवादी होवें, बहुत सीधा-सादा जीवन जीने का प्रयास करें, जितना बन सकें भोलापन लावें| बच्चों में भी होता है भोलापन, पर वह अज्ञानतापूर्वक होता है |
लेकिन ज्ञान हासिल करने के बाद का भोलापन ज्यादा काम का होता है | निशंक होकर, बहुत सहज होकर, भोलेपन से जियें तो हमारा जीवन बहुत ऊँचा और बहुत अच्चा बन सकता है | जो
मलिनताएँ हमारे भीतर हैं उन्हें कैसे हटायें और कैसे हम अपने जीवन को, अपनी वाणी को, अपने मन को, अपने कर्म को पवित्र बनाएं |
जो आतंरिक सुचिता या आतंरिक निर्मलता का भाव है वही शौच धर्म है |लोभ के अभाव में शुचिता आती है |हम लोभ के प्रकार देखते हैं -
पहला है वित्तेषणा -> यह है धन- पैसे का लोभ | धन कितना ही बढ़ जाए कम ही मालुम होता है| धन का लोभ कभी रुकता नहीं है, बढ़ता ही चला जाता है |
दूसरा है पुत्रेषणा-लोकेषणा -> यह है अपने पुत्र और परिवार का लोभ |
तीसरा है समाज में अपनी प्रतिष्ठा का लोभ | यह तीन ही प्रकार के लोभ होते हैं, इन तीनों का लोभ हमें मलिन करता है | बस इन तीनों पे नियंत्रण पाना ही हमारे जीवन को बहुत निर्मल बना सकता है | लोभ की तासीर यही है की आशाएं बढ़ती हैं, आश्वासन मिलते हैं और हाथ कुछ भी नहीं आता | जो अपने पास है वह दिखने लगे तो सारा लोभ नियंत्रित हो जायेगा | व्यक्तिगत असंतोष, पारिवारिक असंतोष, सामाजिक असंतोष - कितने तरह के असंतोष हमें घेर लेते हैं | अगर हम समझ लें दूसरे के पास जो है वह उस में खुश है, और जो अपने पास है उस में हम आनंद लें तोह जीवन का अर्थ मिल जायेगा |
जीवन में निर्मलता के मायने हैं - जीवन का चमकीला होना | निर्मलता के मायने हैं - मन
का भीगा होना | निर्मलता के मायने हैं- जीवन का शुद्ध होना | निर्मलता के मायने हैं -जीवन का सारगर्भित होना | निर्मलता के मायने हैं - जीवन का निखालिस होना | इतने सारे मायने हैं पवित्रता के, निर्मलता के | जब मुझे मलिनतायें घेरें तो उनपे मियंत्रण रखना ज़रूरी है | हमारा मन जितना भीग जाता है उतना ही निर्मल हो जाता है |
अगर किसी की आँख भर जाए तो वह कमज़ोर माना जाता है | आज कोई रोने लगे तो बिलकुल बुद्धू माना जाए |
आज अगर मन भीग जाए तो हम आउट ऑफ़ डेट माने जायें | बहुत कठोर हो गए हैं हम, हमारी निर्मलता हमारे कठोर मन से गायब हो गयी | जबकि हमारा मन इतना निर्मल होना चाहिए था की दूसरो के दुःख को, संसार के दुखों को देखकर द्रवित हो जाएँ उसमें डूब जाएँ |इसी तरह हमें जो प्राप्त है हम उसमें संतुष्ट होंगे और जो हमें प्राप्त नहीं है उसे पाने का शांतिपूर्वक सद्प्रयास करेंगे तोह हम जीवन में सदेव आगे बढ़ते जायेंगे |
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धन आते ही सुख मिलेगा... इसमें कोई गारंटी नहीं।
किन्तु
धर्म आते ही आपका... जीवन सुखमय बनेगा,
!!!!इसमें कोई संदेह नहीं।!!!!
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❖ जीवन में उलझनें दिखावे और आडम्बर की वजह से हैं. हमारी कमजोरियां जो मजबूरी की तरह हमारे जीवन में शामिल हो गयी हैं, उनको अगर हम रोज़ -रोज़ देखते रहे और उन्हें हटाने की भावना भाते रहे तो बहुत आसानी से इन चीज़ों को अपने जीवन में घटा बढा सकते हैं. हमारे जीवन का प्रभाव आसपास के वातावरण पे भी पड़ता है.जब हमारे अंदर कठोरता आती है तो आसपास का परिवेश भी दूषित होता है. इसीलिए इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए की हमारे व्यव्हार से किसी को कष्ट न हो.
दुसरे के साथ हम रूखा व्यव्हार करेंगे, दुसरे के साथ छल -कपट करेंगे, धोखा देंगे और इसमें आनंद मानेंगे तो हमारी विश्वसनीयता और प्रमाणिकता दोनों ही धीरे -धीरे करके ख़तम हो जायेगी. वर्तमान में ये ही हो रहा है. हम कृत्रिम हो गए हैं,दिखावा करने लगे हैं जिससे लोगों के मन में हमारे प्रति विश्वास नहीं रहा,एक -दुसरे के प्रति संदेह ज्यादा हो गया, यहाँ तक की परिवार में भी एक -दुसरे के प्रति स्नेह ज्यादा है -विश्वास कम है. लेकिन रिश्ते तो सब विश्वास से चलते हैं. रिश्ता चाहे भगवान् से हो या संसार के व्यक्तियों से या वस्तुओं से, सभी विश्वास और श्रध्दा के बल पे ही हैं. यदि हम श्रध्दा और विश्वास बनाये रखना चाहते हैं तो हमारा फ़र्ज़ है की हम आडम्बर से बचें, अपने मन को सरल बनाने की कोशिश करें.
सरलता के मायने हैं - इमानदारी,सरलता के मायने हैं - स्पष्टवादिता,सरलता के मायने हैं - उन्मुक्त ह्रदय होना, सरलता के मायने हैं - सादगी, सरलता के मायने हैं - भोलापन, संवेदनशीलता और निष्कपटता.
हमें इन बातों को धीरे -धीरे अपने जीवन में लाना होगा, या फिर इनसे विरोधी जो चीज़ें हैं उनसे बचने का प्रयास करना होगा. इमानदार और सरल होने पे यह मुश्किल खड़ी हो सकती है की लोग हमें हानि पहुंचायें. यह मुश्किल थोडी बढेगी पर इसके बाद भी हमें अपनी इमानदारी बनाये रखना है. किसी ने हमको ठग लिया तो हम भी उसे ठग लें यह बात गलत है. यह बात मनुष्य जीवन में सीख लेना है की -
"कबीरा आप ठगाइए,और न ठगिये कोए
आप ठगाए सुख उपजे,पर ठगिये दुःख होए "
कोई अपने को ठग ले तो कोई हर्ज़ नहीं पर इस बात का संतोष तो रहेगा की मैंने तो किसी को धोका नहीं दिया. एक बार धोका देना,या छल -कपट करने का परिणाम हमें सिर्फ इस जीवन में नहीं बल्कि आगे आने वाले कई भवों तक भोगना पड़ेगा.
बाबा भारती के घोडे की बात तो सबको मालूम है. बाबा भारती से डाकू ने घोड़ा छीन लिया लेकिन बाबा भारती ने डाकू से यही कहा की -'यह बात किसी से कहना मत नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जायेगा की दीन -हीन की मदद नहीं करना चाहिए '. एक बार हम धोखा दे देते हैं तो हमारी इमानदारी पर संदेह होने लगता है,इसलिए सरलता वही है जिसमें हम इमानदार रहते हैं, दूसरों के साथ छल नहीं करते, विश्वास और प्रमाणिकता बनाये रखते हैं. हम कहीं भी हो,हमारा ह्रदय उन्मुक्त होना चाहिए
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❖ हम सभी अपने जीवन को अच्छा बनाने का निरंतर प्रयत्न करते हैं. कुछ चीज़ें हमारे अज्ञान की वजह से हमारे जीवन में इतना घुल-मिल जाती हैं. जैसे की क्रोध - जो न हम अपने जीवन में चाहते हैं, न ही दुसरे को ऐसा देखना चाहते हैं. बस ऐसे ही चीज़ों का आभाव कैसे कर सकते हैं, यही हमें सीखना है पर्युषण पर्व में. ❖
जब दूसरे का तिरस्कार करने का भाव, दुसरे के गुणों को सहन न करने का भाव, या दूसरों से इर्ष्या करने का भाव आये - तो समझना यही अंहकार है. और ऐसे ही अंहकार के अभाव का दिन है उत्तम-मार्दव. हमारे अन्दर दूसरो के गुणों को देखके हे ईर्ष्या के भाव आना ही अहेंकार को जनम देता है.अक्सर ऐसा लगता है की मान श्रेष्ठता की भावना से आता है, पैर ऐसा नहीं है. मान को हीन भावना की वजह डेवेलोप हुआ एगो ही जनम देता है.हम अपनी योग्यता को जान केर उसका सम्मान करेंगे,तोह बहार से सम्मान पाने की या दूसरे का तिरस्कार करने की भावना ही नहीं होगी.
यह हमपे निर्भर करता है की हम किस प्रकार का जीवन जीना चाहते है. हमारे पास दो रास्ते हैं- पहला यह की हम समुद्र में पड़ी की एक बूँद की तरह समुद्र में एकमेक होकर रहे या फिर दूसरा यह की हम समुद्र में द्वीप की तरह अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सबसे अलग - थलग अकेले खड़े रहे. हमारे साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है की हमें इसकी चिंता नहीं है की कोई हमारा सम्मान करे या न करे,पर इसकी ज़रूर है की हमारे सामने दुसरे का सम्मान न हो जाये.
"दुसरे का हो रहा सम्मान, हमें लगता है जैसे हो रहा हमारा अपमान "
और इसी को तो अहेंकार कहते हैं.लेकिन हमारे गुण तभी बढेंगे जब हम दुसरे के गुणों की प्रशंशा में शामिल हो सकेंगे जब दुसरे के गुण सुनके, उसकी प्रशंशा सुनके हमें हर्ष हो, तब समझना की हमारे अंदर मार्दव धर्म की शुरुवात हुई है.
मेरेपन का भाव भी अंहकार को जनम देता है. 'मैं हूँ' यह कहने मैं दिक्कत नहीं है, पर 'मैं कुछ हूँ' यह भाव अपने साथ अनेक व्याधियां लेके आता है. जब 'मैं कुछ हूँ' तो मेरे पास ये होना चाहिए, वोह होना चाहिए और इसी तरह हम संसार के प्रपंचों में पड़ते जाते हैं. हमारे पास चीज़ें होने और उन चीज़ों का उपयोग करना बुरी बात नहीं है, लेकिन उन चीज़ों के माध्यम से अपने आप को बड़ा मानना, बड़ा दर्शाना ही हमारी कमजोरी है. जब भी हम कुछ हासिल करें तो अपने जीवन में उसका आनंद लें, इसमें आनंद न मानें की वह दुसरे लोग देखें. आचार्य भगवंतों ने कहा है- क्रोध कषाय हो तोह नरक गति मिलती है, मान कषाय के साथ मनुष्य पैदा होता है, मायाचारी को तिर्यंच गति मिलती है, और लोभी को देव पर्याय प्राप्त होती है.
सम्मान तो 'गुणवत्ता' और 'श्रेष्ठता' का होता है. इसीलिए यदि हम अपनी योग्यता और श्रेष्ठता बढाएं तोह हम साधारण होके भी उस असाधारणता को प्राप्त कर सकते हैं.
जो जितना साधारण है, वो उतना ही असाधारण है और जो जितना असाधारण बनने की कोशिश करता है, वोह उतना ही साधारण होता है. अगर हम अहेंकार के स्थान पे गौरव करने लगें तोह हमारा जीवन और सरल हो जायेगा. जैसे हम उस काल में पैदा हुए जो तीर्थंकर का है, हमें जिनवाणी का समागम मिला,में तोह ज्ञान-स्वभावी जीव तत्त्व हूँ, मुझे रत्नत्रय धर्म की आराधना करने मिल रही है इत्यादि. अपने अंदर विनय लाने के लिए हम तीन उपाय कर सकते हैं-
पहला यह की दूसरों की प्रशंसा करें, दूसरा यह की भगवान् के गुणगान करें,
और तीसरा यह की हमपे जिनके उपकार हैं, उन्हें हम याद करें और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें.
एक बार राजा साहब की सवारी जा रही थी, रस्ते में राजा को एक पत्थर आके लगा, सिपाही यहाँ-वहाँ देखने लगे और सबने देखा की एक छोटा सा बालक हाथ में कुछ पत्थर लिए खडा हुआ है. सब अचंभित हो गए. वोह बालक और उसके पास में खड़ी हुयी उसकी माँ दोनों डर गए. गलती करने पर भी माँ-बेटे दोनों विनय के साथ खड़े रहे. सैनिक लड़के को राजा के पास ले आये.
राजा ने पूछा - बेटे, तुमने पत्थर फेका था?
बच्चे ने कहा - 'हाँ, मैंने ही फेका था'
राजा ने फिर पुछा - 'क्या मुझे मारने के लिए फेंका था?'
बच्चा बोला - 'नहीं आपको मारने के लिए नहीं, मैंने तो इस पेड़ में लगे हुए आम को तोड़ने के लिए फेंका था'.
राजा बहुत खुश हुआ उसकी सच्चाई और विनय से और उसको इनाम दिया.
ऐसे ही कोई हमें चोट पहुंचाए, और हम सहज परिणाम रखें तोह हम सबको जीवन का अलग ही आनंद आएगा. ऐसे ही हम अपने जीवन को अच्छा बना पाएंगे.
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