12.10.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 13.10.2015
Updated: 05.01.2017

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❖ क्या सांस लेने में भी हिंसा हैं? --- मंदिर में भगवान की प्रतिमा के दर्शन कैसे करें? --- क्या स्तोत्र का अर्थ नहीं जानने पर भी उसका पठन करने से कुछ लाभ होता है?--- विश्व की शुरुवात कब हुई? --- धर्म क्या है? क्या सिर्फ मंदिर जाना और प्रवचन सुनना ही धर्म है? आदि प्रश्नों के उत्तर सिर्फ एक क्लिक पर जानिये: http://www.jinvaani.org/qa.html

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❖ कैसे उतारे गये धवला ताड़पत्रों से कागज पर? ❖

गुजराती संवत् 1940 में सर्दी का आगमन हो गया था। बम्बई में गुजराती सेठ सौभागषाह मेघराज रहते थे। ये बड़े धार्मिक थे। इनके भाई सूरत गद्दी के चन्द्रकीर्ति भट्टारक थे। इन्होंने एक दिन मंदिर में समाज के लोगों से कहा कि हमारी इच्छा श्री जैनबिद्री और मूलबिद्री की यात्रा करने की है, जिनकी इच्छा हो साथ चलें। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमिटी के संस्थापक दानवीर सेठ श्री माणिकचन्द हीराचन्द ज़वेरी तुरन्त तैयार हो गये। कुल 125 यात्रियों का संघ बन गया। इन जोहरियों ने बहुत रुपया खर्च करने का विचार बनाया। यात्रा का प्रबंध सेठ माणिकचन्द को सौंपा गया । पहले यात्री संघ जैनबिद्री पहुँचा। गोमट्ट स्वामी का पहाड़ एक ही चट्टान का देखा। पर्वत पर चढ़ते हुए सेठ जी का षरीर छोटा व भारी होने से बहुत कष्ट हुआ। पवर्त चिकना व ढालु होने से वृद्ध पुरूष व महिलाओं के पैर फिसल रहे थे। यह सब जानकर पर्वत पर चढ़ते हुए सेठ जी विचारने लगे कि यदि इस पर्वत पर सीढि़याँ बन जावे तो सदा के लिए यात्रियों का कष्ट दूर हो जायेगा। आपने संघ की बैठक कर के निष्चय किया कि पहाड़ पर 2000 सीढि़याँ बनवा देनी चाहिए। 5000 हजार रूपयों की पानड़ी में आपने 1000 रुपये की रकम खुद की ओर से भरी। रुपया पट्टाचार्य जी को सौंप दिया। सेठ माणिकचन्द जी की पहल से सीढि़याँ बनाने का जो महत्वपूर्ण कार्य हुआ, उसका लाभ आज तक भी यात्रियों को पहुँच रहा है।

यहाँ से यात्री संघ मूलबिद्री पहुँचा। यहाँ 18 जिन मंदिर के दर्षन किये। यहीं रत्नों के जिन बिम्ब व धवल, जयधवल तथा महाधवल नाम के ग्रंथ ताड़पत्री पर देखें। इन सब की रक्षा के लिए 1 कोंडे पदमराज षेट्टी 2 राजा कुंजम षेट्टी 3 गुम्मण षेट्टी 4 नेमिराज उपाध्ये की कमेटी थी। इन चारों के सामने रत्न बिम्बों व धवलादि के दर्षन यात्रियों को कराये जाते थे। सेठ माणिकचंद संघ सहित यात्रा में अच्छी रकम दान करते हुए बम्बई लौट आये। इनके द्वारा प्रदान की गयी भेंट को देखकर मूलबिद्री के पंच और भट्टारक जी बहुत प्रसन्न हुए। दर्षन करते समय माणिकचंद को मन में विचार हुआ कि प्राचीन ग्रंथ जिन ताड़पत्रों पर हैं, वे बहुत जीर्ण हो गये हैं। वहाँ के लोगांे से सेठजी ने कहा कि इनकी प्रति करानी चाहिये तो लोगों ने बताया कि ये तो इसी प्रकार बहुत दिनों से है। हम तो दर्षन करके व कराके कृतार्थ होते हैं। हम गृहस्थी तो इन्हें पढ़ नहीं सकते। भट्टारक जी भी इस प्राचीन लिपि को पढ़ नहीं सकते हैं। हाँ, जैन बिद्री में ब्रह्मसूरि शास्त्री हैं, वे ही इनको पढ़ना जानते हैं।

यात्रा से लौटने के बाद माणिकचंद के मन में उन प्राचीन ताड़पत्रों के उद्धार की बात जमी रही। इस विचार को पूरा करने के लिये आपने सोलापुर के सेठ हीराचंद नेमचंद को चिट्ठी लिखी। चिट्ठी में प्रेरणा दी की आप स्वयं यात्रा करें, उन ताड़पत्रों के ग्रंथों को देखें और उनके उद्धार का उपाय करें। हीराचंद ने उत्तर में लिखा कि हम संवत् 1941 के जाड़े (सर्दी) में श्री मूलबिद्री की यात्रा को यथा संभव अवष्य जावेंगे। (गुजराती संवत दीपावली से शुरू होता है)

अपनी चिट्ठी में लिखे अनुसार सेठ हीराचंद जैनबिद्री और मूलबिद्री की यात्रा को शोलापुर से मगसर सुदी 6, संवत 1941 को रवाना हुए और गुजराती तिथि पोष बदी 11 को लौट आये। यात्री पहले बैंगलोर पहुँचे। यहाँ के एक जिन मंदिर में कनड़ी भाषा में द्वादषानुप्रेक्षा ग्रंथ को छपा हुआ देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। मालुम हुआ कि यहाँ ग्रंथों के छपने की परंपरा है। ग्रंथों की छपाई का कोई विरोध नहीं करता है। श्रवण बेलगोला में भी अपने साथ के यात्रियों से मंदिर आदि की मरम्मत/जीर्णोद्धार के लिए रूपये एकत्रित करके प्रदान किये। इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। यहाँ पर प्राचीन कनड़ के जानकार एकमात्र विद्वान ब्रह्मसूरि शास्त्री ने सबको अपना शास्त्र भण्डार दिखाया, जिसकी सूची ‘जैन बोधक’ अंक 29 जनवरी सन् 1888 में प्रकाषित हुई थी।

ब्रह्मसूरी शास्त्री को अनेक आवष्यक काम थे। परन्तु सेठ हीराचंद के प्रेमपूर्ण व्यवहार, आग्रह और धवला आदि ग्रंथों को पढ़ने की उत्कंठा को देखते हुए शास्त्री जी अपने परिवार सहित मूलबिद्री चलने को राजी हो गये। वहाँ पहुँचने के बाद श्री पाष्र्वनाथ स्वामी के मंदिर जी में यात्रियों के सामने धवलादि सिद्धान्त ग्रंथ के ताड़पत्र दर्षनार्थ वहाँ के पट्टाचार्य और पंचो ने निकाले, जिन्हें देखकर सभी को बड़ा आनंद हुआ। पुराने ताड़पत्रों पर लिखे हुए कुछ पत्रों का संग्रह भण्डार के अंदर से पंच लाते थे और यात्रियों को उनका दूर से दर्षन कराने तथा भेंट चढ़वाने के बाद बिदा कर देते थे। ब्रह्मसूरि शास्त्री ने जब इन ताड़पत्रों को पढ़ा तो इनमें कुछ और ही वर्णन पाया। धवलादि ग्रंथों का कुछ भी अंष न था। वयोवृद्ध विद्वान ब्रह्मसूरी शास्त्री को इतनी जानकारी अवष्य थी कि धवलाग्रंथों मंे गुणस्थान मार्गणास्थान आदि संबंधी सूक्ष्म चर्चा है तथा श्री गोमट्टसार इन्हीं के अंष लेकर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा है। इस पर ब्रह्मसूरि जी को बड़ा आष्चर्य हुआ। उन्होंने पट्टाचार्य जी से कहा कि यह तो सिद्धान्त ग्रंथ नहीं है। आप भीतर से और ताड़पत्री ग्रन्थ की निकलवाईये, उनमें से धवलादि को ढू़ढेंगे। ऐसी असमंजस की स्थिति बन जाने से पंच लोग कुछ लज्जित हो गये। इसके बाद भण्डार में से और जीर्ण ताड़पत्रों पर लिखे हुए ताड़पत्रे लाये गये। शास्त्री जी ने अब धवल और जयधवल के ताड़पत्रों को छांट कर अलग-अलग किया। अति विनय के साथ शास्त्री जी ने अपनी मीठी आवाज में सबसे पहले मंगलाचरण पढ़ा। उसका अर्थ बताया तथा कुछ और भी सुनाया।

शास्त्री जी से ताड़पत्रों की जानकारी पाकर सभी यात्री बहुत आनन्द से भर गये थे। सेठ जी ने पंचों से निवेदन किया कि यदि आप और हम सभी लोग शास्त्री जी से ग्रम्थो के बारे में दो - तीन दिन तक और सुने तो सभी को विशेष लाभ होवेगा। ग्रंथ का थोड़ा-सा वर्णन सुनने से सभी को जो आनंद हुआ था, उस कारण किसी से भी न नहीं हो सकी। सभी राजी हो गये। दूसरे व तीसरे दिन सभी ने शास्त्री जी से श्री धवल और जयधवल के इधर-उधर के कई भाग सुने और बहुत संतोष प्राप्त किया। हीराचंद जी के अनुसार ताड़पत्रों पर लिखी हुई लिपि जूनी (प्राचीन) कनड़ी थी। सुनते समय कुछ श्लोक लिख भी लिये गये थे। इस तरह जब सेठ हीराचंद जी को पक्का विश्वास हो गया कि ताड़पत्रों पर लिखा धवल तथा जयधवल ही है तथा ये अति जीर्ण हो गये हैं। मन में सोचा कि इनकी नकल होनी चाहिये। यह भावना अपने मन मंे रखी। ब्रह्मसूरि शास्त्री से चर्चा की कि आप इनकी प्रति कर देवें, तो बहुत अच्छा रहेगा। इतना मालुम पड़ चुका था कि उस जूनी कनड़ी लिपि को उस प्रान्त में पढ़ सकने वाले सिवाय वृद्ध सूरि शास्त्री जी के कोई और नहीं था। सूरि शास्त्री ने कहा कि यह काम बहुत काल (समय) लेवेगा। यहाँ के भाईयों को सिखाना - समझाना होगा। इस काम को करने में कई वर्ष लगेंगे। मुझे व एक-दो अन्य को कई वर्षों तक यहाँ ठहरना होगा, तब ही इन ताड़पत्रों की नकल हो सकेगी, क्योंकि इनमें क्रम से 60,000 और 72,000 श्लोक हैं।

सेठ हीराचंद बम्बई आकर एक दिन रूके और सेठ माणिकचंद को ब्रह्मसूरि शास्त्री के साथ रहकर जो कुछ हुआ था सब कुछ बता दिया। दोनों ने परस्पर विचार किया कि किसी उपाय से इन धवला ग्रंथों की ताड़पत्रों से प्रतिलिपि हो और प्रतिलिपि बालबोध में भी करवाई जाय ताकि हम सबको लाभ मिले। यह बहुत आवश्यक काम हो जायेगा हीराचंद जी बहुत गंभीर थे। सेठ जी से बोले की हम कोई न कोई उपाय करेंगें, आप चिंता न करें।
इतने में सेठ माणिकचंद जी की दक्षिण की यात्रा का तथा सेठ हीराचंद जी की यात्रा का हाल जैन बोधक मंे छपा जो अजमेर के सेठ मूलचंद जी सोनी को ज्ञात हुआ। आप भी संवत 1948 में पण्डित गोपालदास बरैय्या जो आपके यहाँ मुनीम थे, साथ लेकर जैनबिद्री-मूलबिद्री की यात्रा को गये। मूलबिद्री में आपने भी धवला ग्रंथों की जीर्ण दशा देखकर उनकी प्रति कराने के लिये ब्रह्मसूरि शास्त्री से आग्रह किया। इस समय तक शास्त्री ने 300 के लगभग श्लोक लिख लिये थे, ऐसी सूचना सेठ साहब को भेजी थी।

संवत 1952 सेठ माणिकचंद जी ने सेठ हीराचंद नेमचदं से पूछा कि आपके जैन बोधक से मालुम हुआ कि अजमेर के सेठ मूलचंद सोनी के प्रयत्न से 300 श्लोक लिखे जा चुके हैं। अब आगे का काम चल रहा है या बंद हो गया है। तब सेठ हीराचंद ने बताया कि काम बंद हो गया है। कारण यह रहा कि सेठ मूलचंद धवला की प्रति को अजमेर के लिये चाहते हैं, और मूलबिद्री वालों ने इंकार कर दिया है। इस पर सेठ माणिकचंद चिंतित हुए तथा कहा वे धवला के ताड़पत्र के ग्रंथ सड़ जायेंगे, तो फिर कहाँ से आएंगे? दूसरा ब्रह्मसूरि शास्त्री के सिवाय लिपि दूसरा कोई जानता नहीं है। इधर शास्त्री की उम्र 55 वर्ष की है। यदि वह कालवश हो गए, तो प्रतिलिपि भी न हो सकेगी। यदि मूलबिद्री वाले दूसरे स्थान पर प्रतिलिपि देना नहीं चाहते, तो अभी यह प्रबंध कीजिये कि धवला की वहीं पर दो नकलें हो जाए एक कनड़ी लिपि में व एक बाल बोध हिन्दी (देवनागरी) लिपि में। इतना काम बहुत शीघ्र होना चाहिये। सेठ हीराचंद को सुझाव पसंद आया। उन्होंने कहा कि सूरि शास्त्री के साथ 2 प्रवीण लेखक और रखना पडे़ंगे जो कनड़ी व बालबोध में लिख सकें। इसके लिये कम से कम दस हजार रूपयों का प्रबंध होना चाहिये। तब सेठ माणिकचंद ने कहाँ सौ-सौ रूपये के 100 भाग कर लिये जावें। पहले दस-दस रूपये करके एक हजार रू. एकत्रित करके काम शुरू किया जावे। जब काम चलने लगे तब फिर 25-25 रू. एकत्रित किये जावें। इस तरह काम पूरा हो जायेगा। हीराचंदजी ने सुझाव को उसी समय ब्रह्मसूरि शास्त्री को लिख भेजा। वहाँ से उत्तर आया कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। मूडबिद्री वाले खुशी से स्वीकार करेंगे तथा मैं (ब्रह्मसूरि) पूर्ण परिश्रम करके प्रतिलिपि का प्रबंध कर दूंगा।

सेठ हीराचंद जी ने जैन बोधक अंक 129 मई 1896 में आर्थिक सहयोग देने के लिये सौ सहयोगदाताओं की माँग प्रकाशित करादी। इस अपील को देखते ही सेठ माणिकचंद जी ने 101 रू. की स्वीकृति भेज दी। उनके अनुशरण मंे धरमचंद अमरचंद, शोभागचंद मेघराज, माणिकचंद लाभचंद, सेठ जवारमल मूलचंद, गुरूमुख राय सुखानंद आदि 13 व्यक्ति बम्बई के व गाँधी हरीभाई देवकरण आदि 19 शोलापुर के तथा फलटन, दहीगांव, इंडी आलंद व सेठ हरमुखराय फूलचंद आदि 11 कलकत्ता को मिलाकर अक्टूम्बर 1896 तक 14,229 रू. की स्वीकृति हो गयी। जैन गजट से जानकारी देख कर लाला रूपचंद सहरानपुर ने 100 रू. की सहायता का पत्र जुलाई में पण्डित गोपालदास बरैय्या जी को बम्बई भेज दिया रूपयों की स्वीकृति मिल जाने पर सेठ हीराचंद जी ने बात पक्की करने के लिये ब्रह्मसूरि शास्त्री को शोलापुर बुलाया। वे मार्गसिर सुदी 4 को आ गये, तब सेठ माणिकचंद जी, सेठ माणिकचंद गाँधी रामनाथा के साथ सुदी 6 को शोलापुर पहुँच गये। इन सभी के सामने ब्रह्मसूरि शास्त्री से 125 रूपये महिने व आने-जाने का खर्च देने का ठहराव पक्का हो गया ब्रह्मसूरि शास्त्री ने पोष माह से मूलबिद्री जाकर प्रतिलिपि लिखना मंजूर किया। शास्त्री के साथ प्रतिलिपि कार्य करने के लिये गजपति उपाध्याय को भी नियत किया गया। दोनों महाशयो ने फागुन सुदी 7, बुधवार को लिखने का कार्य प्रारंभ कर दिया। फिर शके 1827 चेत्र सुदी 10 को शोलापुर वालों के नाम ब्रह्मसूरि शास्त्री का पत्र आया कि जयधवल के 15 पत्रे से 1,500 श्लोक लिख लिये गये हैं। इनमें मंगलाचरण, मार्गणास्थल और गुणस्थान की चर्चा का निरूपण है। पुष्पदंत आचार्य ने प्राकृत भाषा मंे सूत्र बनाये, उन पर गुणधर महाराज ने ललितपद न्याय से संस्कृत और प्राकृत में टीका बनाई है।

सेठ माणिकचंद जी व सेठ हीराचंद जी आदि के पुरूषार्थ तथा सूझ-बूझ से रूपया इकट्ठा हो गया था। ब्रह्मसूरि शास्त्री ने कई वर्ष तक काम किया। किन्तु वे ग्रंथों की प्रतिलिपि पूर्ण किये बिना ही काल के वश हो स्वर्ग सिधार गये। उनके बाद गजपति उपाध्याय ने धवल व जयधवल दोनों की प्रति लिखकर पूर्ण कर ली। तीसरे महाधवल की प्रति पूर्ण कराने का काम सेठ हीराचंद जी ने मूलबिद्री जाकर प्रारंभ कर दिया। साथ-साथ यह कोशिश की जाती रही कि इन ग्रंथों की कई प्रतियां कराकर भिन्न-भिन्न स्थानों में रख दी जाये, जिससे उनका पठन-पाठन होता रहे। परन्तु इसके लिये मूलबिद्री के पट्टाचार्य पंच भाई वृथा ममत्व के कारण ऐसा करने पर राजी नहीं हुए।

श्री धवल ग्रंथ के जीर्ण ताड़पत्र के 592 पत्रे थे। उसके कनड़ी में 2,800 व बालबोध (देवनागरी) लिपि में 1,323 पत्रे बने। कुल श्लोक 73,000 थे।

मंगलाचरण का प्रथम श्लोक यह हैः-
गाथा:सिद्धमणंत भणिंदिय मणुवममप्युत्थ सोक्खमण वज्जं।
केवल यहोह णिजिज्जयदुण्णय तिमिरं जिणं णमह।।
भावार्थ: स्वकार्य सिद्ध करने वाले, अतीन्द्रिय अनुपम व स्तुत्य सुख को प्राप्त करने वाले तथा केवलज्ञान रूपी सूय्र्य से मिथ्यातम के अंधकार को हरने वाले जिनेद्र को नमस्कार हो।
श्री जयधवल ग्रंथ के कनड़ी जीर्ण पत्रे 518 हैं उसकी कनड़ी कॉपी में 2,100 व हिन्दी कॉपी में 750 पत्रे हैं, इसके 60,000 श्लोक हैं। इसके प्रारंभ मंे एक श्लोक का मंगलाचरण यह हैः-
गाथाःतित्थयण न उवीस विकेवल णाणेण दिट्ठ सव्वट्ठा।
अविरत पेज 5 पर……..
पसियंतु सिवसरोवा तिहुवण सिर सेहरा मज्झं।।
भावार्थ: केवलज्ञान से सर्व पदार्थों को देखने वाले, मुक्ति पाने वाले व तीन भवन के शिरोमणी ऐसे 24 तीर्थंकर मेरे पर प्रसन्न होहु।
जीवन के अन्तिम समय तक जिस माणिकचंद जवेरी ने धर्म तथा समाज के लिये दिन-रात एक किया वह महामना श्रावण वदी 9 वीर संवत 2440 तद्नुसार 16 जुलाई 1914 को अपने जीर्ण शरीर को त्याग कर अर्हंत-सिद्ध जपते-जपते स्वर्गधाम पधार गये।
इसके बाद वीर संवत 2442 तद्नुसार 7-8-9 अप्रैल को सिद्धक्षेत्र गजपंथा जी में दिगम्बर जैन प्रान्तिक सभा, बम्बई का चैदहवां अधिवेशन हुआ। सेठ माणिकचंद मोतीचंद जी, आलंदकर सभापति थे। सेठ माणिकचंद जी के भतीजे नवलचंद हीराचंद जवेरी, अधिवेशन के सभापति थे। आपने धवल, जयधवल और महाधवल शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ प्राप्त करने के विषय में मूड़बिद्री के पट्टाचार्य जी को और पंचों को लिखने बाबद् प्रस्ताव पास कराया था।

इस प्रकार 24 साल के प्रयास के परिणामस्वरूप धवलाग्रंथों की ताड़पत्री से प्रतिलिपि लिखे जाने का यह अल्पज्ञात इतिहास है।

इसके पश्चात् धवला सिद्धान्त ग्रंथों के प्रकाशन का सन् 1936 से 1956 तक का कालखण्ड अगला प्रयास हुआ।

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