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by Ashok Jain
उत्तम मार्दव
19-09-2015
मुनि श्री सौरभ सागर जी महाराज ने कहा कि मन को मारना ही मार्दव धर्म है आज मनुष्य के सारे प्रयास अहंकार के है । यह अहंकार की भावना छिपकली की भावना है जो कि छत पर चिपककर सोच रही है कि मेरी बदोलत यह छत टिकी है । अहंकारी की सोच मुर्गे की होती है कि मै जब तक बांग नहीं दूंगा तब तक सवेरा नहीं होगा और यह अहंकार की भावना ही मनुष्य को मनुष्यत्व के गुणो से रिक्त रखती है ।
मुनि श्री ने कहा कि अहंकार को मिटाना ही ओंकार को पाना है,अहम शिखर पर बैठा व्यक्ति कभी भी समर्पण की भाषा नहीं बोल सकता,अहंकार के सम्पूर्ण विसर्जन के बाद ही प्रभुता के दर्शन होते है ।
उन्होने कहा कि दुनिया मे जितनी भी लड़ाईया द्वेष,ईर्षा,प्रतिष्ठा,प्रदर्शन प्रतिस्पर्धा है वह सब अहंकार की ही दें है ।
मुनि श्री ने बताया कि मुछ और पुछ दोनों झगड़ा कराती है जब कही जाते हो सम्मान की आकांक्षा से उचित सम्मान नहीं मिला तो कहते हो किसी ने पूछा ही नहीं और मुछ के कारण दूसरे से इन्सान कंपीटिशन करता है और मुछ की चिंता आदमी को खर्चीला बना देती है ।
मार्दव धर्म पर मुनि श्री ने कहा कि दांत बाद मे आते है और पहले चले जाते है वह यही संदेश देते है कि अकड़ोगे तो टूट जाओगे,जल्दी और जीभ जीवन भर साथ रहती है और कहती है कि म्रदुता का साथ है । मनुष्य मन मे जितना ताना है उतना ही अपमान पाता है इसलिए अहंकार मत करो,विनम्र बनो झुको सरल बनो तभी मार्द्व धर्म भीतर अवतरित होगा ।