Updated on 25.07.2020 08:56
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
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Updated on 24.07.2020 19:28
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प्रस्तुति ~ 🌻 *संघ संवाद*🌻
Updated on 24.07.2020 09:08
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 91* 🕉️
*35. सूत्र विपदा से मुक्ति का*
गतांक से आगे...
सुनना एक कला है, विज्ञान है। उसके साथ पूरा दर्शन जुड़ा हुआ है। व्यक्ति कान से सुनता है पर उसे बोध नहीं होता। कान से सुना— गिलास में दूध पड़ा है, पर दूध क्या है? गिलास क्या है? कहां पड़ा है ? कान कुछ भी नहीं जानता। एक व्यक्ति हिन्दी भाषा को नहीं जानता, अंग्रेजी, जर्मन या रशियन भाषा को जानता है। उसे कहा जाए— गिलास में दूध पड़ा है। वह इस शब्द को सुन लेगा, किन्तु उसे पता कुछ भी नहीं चलेगा। वह भूखा है, प्यासा है, गिलास में दूध पड़ा है पर उसके लिए कुछ भी नहीं है। नितांत हिन्दीभाषी व्यक्ति से अंग्रेजी में कुछ कहा जाए तो वह सुन लेगा किन्तु वह उसके लिए कुछ भी काम का नहीं होगा। कान का काम केवल शब्द को सुन लेना है। किन्तु कोरे सुनने मात्र से काम नहीं होता। अगर कोरे सुनने को ही महत्त्व दिया जाए तो सारी दुनिया एकाकार हो जाए। व्यक्ति को केवल सुनने मात्र से कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। सुनने का एक क्रम निर्दिष्ट है—
*श्रवणमिन्द्रियेण स्याद्, मनसार्थोऽवगम्यते।*
*बुद्ध्या विविच्यते तावत्, सर्वांगं श्रवणं भवेत्।।*
इन्द्रियों से श्रवण, मन से अर्थ का बोध और बुद्धि के द्वारा उसका विवेचन सर्वांग श्रवण कहलाता है।
कान से केवल सुना जाता है। अर्थ का ज्ञान होता है मन के द्वारा। सुनने के साथ मन जुड़ा और शब्द के अर्थ का पता लग गया। बुद्धि के द्वारा विवेक होता है। अमुक चीज मेरे लिए उपयोगी है या नहीं, लाभदायी है या नहीं, लाभदायी है या नहीं, उपादेय है या नहीं— यह सारा विवेक बुद्धि के द्वारा होता है। यह मन का काम नहीं है। शब्द सुनना कान का काम है, शब्द के अर्थ को जानना मन का काम है और हेय तथा उपादेय का विवेक करना बुद्धि का काम है। जब ये तीनों एक साथ होते हैं तब सर्वांग श्रवण होता है।
भगवती सूत्र में पर्युपासना के दस फल बतलाए हैं—
*सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे।*
*अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी।।*
उनमें पहला है— सवणे— सुनना, दूसरा है— नाणे— ज्ञान करना, उसके साथ मन का योग करना, मन को जोड़ देना। जो सुना उसके अर्थ को समझ लेना। तीसरा है— विन्नाणे— बुद्धि से विवेक करना। विज्ञान का अर्थ है विवेक। इन्द्रिय से काम लेना, मन से काम लेना और साथ-साथ बुद्धि से काम लेना। इन तीनों के योग का अर्थ है श्रवण। कान में शब्द पड़ा और मन कहीं भटक रहा है तो सुना-अनसुना बन जाएगा, वह कला नहीं बन पाएगा। शब्द को सुन लिया, अर्थ भी समझ लिया किन्तु बुद्धि से काम नहीं लिया तो भी कोई लाभ नहीं होगा, सुनने का कोई फल नहीं मिलेगा। जब श्रवण, ज्ञान और विज्ञान होता है तब प्रत्याख्यान की बात आती है, हेय को छोड़ने की बात आती है। व्यक्ति का विवेक ही उसे त्याग के लिए प्रेरित करता है। वह सोचता है— मिठाई खाने से पेट खराब होगा। मेरी आंतें कमजोर हैं। गरिष्ठ भोजन मेरे काम का नहीं है। वह अनेक पदार्थों को छोड़ने के लिए उद्यत होगा। यह प्रत्याख्यान विज्ञान या विवेक से संभव होगा। जब बुद्धि के द्वारा हेय और उपादेय का विवेक होगा तब त्याग की बात संभव बनेगी। प्रत्याख्यान से संयम और संयम से तप की यात्रा होती है, तब सर्वांग श्रवण होता है।
उपनिषद् में तीन शब्द मिलते हैं— श्रवण, मनन और निदिध्यासन। सुनना, मन के द्वारा उस पर मनन करना और उसका निदिध्यासन करना, विवेक करना, अनुशीलन करना। आज एक बहुत बड़ा प्रश्न है— बहुत लोग सुनते हैं पर पूरा ज्ञान नहीं होता। इतने लोग धर्म सुनते हैं फिर भी उसका आचरण नहीं होता। इसका कारण है— कैसे सुनना चाहिए, इस तथ्य का बोध कम हो गया। आज सुनने का अर्थ कान का उपयोग करना मात्र रह गया है। ज्यादा से ज्यादा सुनना और मन का थोड़ा उपयोग करना, यह श्रवण की निष्फलता है।
*सुनने की प्रक्रिया क्या है...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 334* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*
*कितने आगम?*
युक्ति-संगत उत्तर देने में जयाचार्य प्रारम्भ से ही बिलकुल निपुण थे। कौन व्यक्ति किस दृष्टिकोण से पूछ रहा है, यह सब वे तत्काल भांप लिया करते थे। शास्त्रों के अस्खलित ज्ञान और उत्तर देने की निरुपम पद्धति ने उनको अजेय बना दिया था। अपनी अग्रणी अवस्था में विक्रम सम्वत् 1889 का चतुर्मास उन्होंने दिल्ली में किया। उससे पूर्व शेषकाल में जब वे दिल्ली में रहे तब एक बार मूर्तिपूजक समाज के बहुत सारे व्यक्ति मिलकर उनसे चर्चा करने के लिए आये। उन सबका नेतृत्व करते हुए किसनचन्दजी ओसवाल ने प्रश्न उपस्थित किया कि आप आगम कितने मानते हैं?
जैनों में यह एक विवादास्पद प्रश्न रहा है। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आगमों की विभिन्न संख्या स्वीकार करते हैं। दिगम्बर जहां मूल-आगमों का विच्छेद होना मानते हैं, वहां श्वेताम्बरों में आगमों की बत्तीस, पैंतालीस और चौरासी तक संख्या मानी जाती है। कुछ तो ऐसे भी हैं, जो निर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका और टब्बा— आगमों के इन पांचों व्याख्या ग्रन्थों को भी आगमवत् ही प्रमाण मानते हैं। मुनि जय इन विवादों के जंगल में बात को उलझाना नहीं चाहते थे, अतः एक नये ही मार्ग का अवलम्बन करते हुए उन्होंने आगम की भाषा में उत्तर दिया— 'हम तीन आगम मानते हैं : सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम।'
प्रश्नकर्ता किसनचन्दजी ओसवाल उस उत्तर से बहुत झंझलाये। बत्तीस, पैंतालीस और चौरासी आगमों की संख्या के विषय में वे अनेक तर्क प्रस्तुत करना चाहते थे, परन्तु मनि जय के उस उत्तर के आगे वे सब घरे-के-घरे ही रह गये। उन्होंने तब नये तर्क को टटोलते हुए पूछा— 'तो फिर आप निर्युक्ति, भाष्य आदि व्याख्या-ग्रन्थों को मानते हैं या नहीं ?'
मुनि जय ने कहा— 'सूत्रागम से मेल खाने वाली व्याख्या-ग्रन्थों की सभी बातें हमें मान्य हैं।'
प्रश्नकता ने अपने व्यंग्य पर धार देते हुए कहा— 'तब आपको चार आगम मानने होंगे? तीन तो अभी आपने बतलाए ही हैं। अब यह 'मिलतागम' चौथा और हो गया।'
मुनि जय भी कब चूकने वाले थे। उन्होंने कहा— 'तब फिर आप लोगों का तो चार से भी निस्तार नहीं होगा। एक 'अ-मिलतागम' और मानना पड़ेगा, क्योंकि निर्युक्ति, भाष्य आदि में अनेक ऐसे प्रसंग भी तो हैं जो मूल आगमों से विरुद्ध जाते हैं।'
इसके प्रत्युत्तर में कोई कुछ भी नहीं कह पाया। वे सब एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकते रह गये।
*खीर नहीं, रुपया*
सैद्धान्तिक विषयों को सैद्धान्तिक तर्कों के आधार पर सुलझाने में जयाचार्य अद्वितीय माने जाते थे। परन्तु प्रश्नकर्ताओं की पैंतरेबाजी से भी वे कभी झुंझलाते नहीं थे। 'जैसे को तैसा' उत्तर देकर वहां भी वे उन्हें निरुत्तर कर दिया करते थे।
विक्रम सम्वत् 1889 के दिल्ली-चतुर्मास से पूर्व शेषकाल की बात है। एक चर्चा-प्रसंग में मुनि जय ने मिथ्यात्वी की ब्रह्मचर्यादि क्रिया को निरवद्य और उपादेय बतलाया। भगवती आदि आगम-स्थलों के उद्धरणों से उन्होंने अपने मन्तव्य को इस प्रकार पुष्ट किया कि प्रतिवादियों के लिए उसका सीधा खण्डन कर पाना सम्भव नहीं रहा। उन लोगों ने तब अपना पैंतरा बदला और दृष्टान्त का आधार लेते हुए कहा— 'माना, मिथ्यात्वी की उक्त प्रकार की क्रिया बहुत अच्छी है, पर वह 'भंगी' के घर की खीर है। उसे कोई भी खाना पसन्द नहीं करता।'
मुनि जय ने तब बराबर का प्रतिदृष्टान्त देते हुए कहा— 'खीर नहीं, आप उसे भंगी के घर का रुपया कहिये। उसे लेने में किसी को कोई झिझक नहीं होती।' प्रतिवादियों को उसका उत्तर देते नहीं बना। विवशता से उन्हें चुप हो जाना पड़ा।
*विरोधियों के बीच अन्य आम्नाय के बहुत से लोग ऐसे भी थे जो अपनी जिज्ञासाओं का समाधान श्रीमद् जयाचार्य से पाकर ही संतुष्ट होते थे...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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Updated on 24.07.2020 09:07
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Updated on 24.07.2020 08:53
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