30.05.2020 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 30.05.2020
Updated: 30.05.2020

Updated on 30.05.2020 23:30

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#तनाव और #ध्यान* : *श्रृंखला ३*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।

प्रकाशक
#Preksha #Foundation
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Posted on 30.05.2020 09:42

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 53* 🕉️

*17. ध्याता और ध्येय की एकात्मकता*

रहस्यवाद में कुछ तथ्य गुप्त होते हैं। रहस्यवादी उन तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करता है। आचार्य सिद्धसेन अर्हत् पार्श्व की स्तुति में अनेक रहस्यों का प्रकटीकरण कर रहे हैं।

प्रभो! मनीषी लोग आपका ध्यान करते हैं और आपके साथ अभेद-बुद्धि स्थापित कर लेते हैं।

ध्यान की दो पद्धतियां हैं— *1.* भेद प्रणिधान, *2.* अभेद प्रणिधान।

भेद प्रणिधान की पद्धति में ध्याता और ध्येय अलग-अलग होते हैं। एक ध्यान करने वाला होता है और एक वह होता है जिसका ध्यान किया जाता है। जैसे एक व्यक्ति पार्श्व का ध्यान कर रहा है। वह ध्याता बन गया, पार्श्व ध्येय बन गए। पार्श्व अलग है और ध्यान करने वाला अलग है। दोनों में भेद हो गया। यह ध्यान की प्रारंभिक पद्धति है।

जैसे-जैसे ध्यान का विकास होता है, भेद समाप्त होता जाता है, अभेद प्रारंभ हो जाता है। ध्यान की एक अवस्था में ध्याता और ध्येय-दोनों एक हो जाते हैं। ध्यान करने वाला अपने ध्येय के साथ एकात्मकता स्थापित कर लेता है, उसके साथ उसका तादात्म्य हो जाता है। *'भवत् प्रभाव:'*— आपका ध्यान करने वाला आप जैसा बन जाता है, आप जैसा ही प्रभाव उसमें आ जाता है। यह कैसे संभव हो सकता है?

जयाचार्य ने चौबीसी में इस अभेद ध्यान का सुन्दर उल्लेख किया है— विमल का ध्यान करने वाला विमल बन जाता है।

*विमल ध्यान प्रभु आप ध्याया,*
*तिण सूं हुवा विमल जगदीश।*
*विमल ध्यान बलि जे कोइ ध्यासी,*
*होसी विमल सरीस।।*

भेद प्रणिधान में ऐसा नहीं होता। वह ध्यान की आरंभिक अवस्था है। इसमें ध्यान करने वाला और जिस आत्मा का, निर्मलता का ध्यान किया जा रहा है— दोनों अलग-अलग हैं।

आचार्य रामसेन ने तत्त्वानुशासन में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में अभेद ध्यान का वर्णन किया है। रामसेन ने लिखा है कि बाहुबलि का ध्यान करने वाला बाहुबलि जैसा शक्तिशाली और गतिमान बन जाता है। जिसका हम ध्यान करते हैं और उसके साथ अभेद स्थापित कर लेते हैं तो हमारा वैसा ही परिणमन शुरू हो जाता है।

परिणमन का सिद्धान्त बहुत विचित्र है और उसे बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया गया है— *जं जं भावे आविस्सइ तं तं भावे परिणमइ*— जो व्यक्ति जिस-जिस भाव में आविष्ट होता है, वह उसी भाव में परिणत हो जाता है। जैसे ही अभेद की साधना शुरू की, परिणमन घटित होना शुरू हो गया। भगवती सूत्र में परिणमन की प्रक्रिया को स्पष्ट करने वाले पांच शब्दों का उल्लेख मिलता है—

*1. एजति*— कंपन शुरू हो जाता है।
*2. व्येजति*— विशिष्ट कंपन शुरू हो जाता है।
*3. चलति*— गमन या स्थानान्तरण हो जाता है।
*4. स्पंदते*— किंचित् चलन शुरू हो जाता है।
*5. घटते*— सब दिशाओं में चलन शुरू हो जाता है।

संचलन और स्पंदन होते ही उसी भाव में परिणत होकर व्यक्ति स्वयं वैसा बन जाता है। यह परिणमन का सिद्धांत जैन योग का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। सभी योग पद्धतियों में इसको महत्त्व दिया गया है।

यह तथ्य स्तुतिकार दृष्टांत के द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं। सर्प का विष मिश्रित पानी सामने रखा हुआ है। उस सर्प-विष को उतारना है। ध्याता सबसे पहले यही धारणा करता है कि यह पानी तो अमृत है, विष का नाश करने वाला है। बीस मिनट एकाग्र होकर अनुचिंतन करे— यह विष मिश्रित पानी अमृत है और मैं अमृत को पी रहा हूं। उससे जहर समाप्त हो जाता है। यदि अनुप्रेक्षा, अनुचिन्तन ठीक हो जाए तो वह अनुचिन्तन एक मंत्र का काम करता है। वह पानी अमृत बन जाता है और उसे पीने वाला विष-मुक्त हो जाता है।

*ध्याता और ध्येय की एकात्मकता...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 296* 📜

*श्रीमद् जयाचार्य*

*महान् योजनाएं*

*3. आहार-संविभाग*

*प्रारम्भिक रूप*

आहार-संविभाग के विषय में स्वामीजी के समय में भी पद्धति तो यही चालू थी कि थोड़ा या अधिक, जितना भी आहार आया हो, उसे सब बराबर बांट कर खा लें। पर उस समय प्रारम्भिक अवस्था में साध्वियां कम थीं और साधु अधिक। विद्वेष के कारण पूरा आहार मिल सकने की संभावनाएं कम रहती थीं, अतः साधु तथा साध्वियों द्वारा गोचरी करके जो आहार लाया जाता, वह स्वामीजी के सामने रख दिया जाता। साध्वियां कम थीं, अतः उन्हें कम आहार की आवश्यकता पड़ती। गोचरी में प्राप्त आहार में जितना अधिक होता, वह साधु अपने स्थान पर रख लेते और अवशिष्ट आहार साध्वियां अपने स्थान पर लाकर संविभाग करके अथवा मिलकर खा लेतीं।

*परिवर्तन की आवश्यकता*

प्रारम्भिक वर्षों में अवशिष्ट आहार साध्वियों को देने की व्यवस्था एक आवश्यकता थी, परन्तु बाद में उसने परिपाटी का रूप ले लिया। प्रत्येक सामयिक व्यवस्था इसी प्रकार से एक न एक दिन परम्परा बनती रही है। परन्तु सावधान व्यक्ति प्रत्येक परम्परा को तब तक के लिए ही पोषण देता है जब तक वह आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होती है। जब उसमें वह सामर्थ्य समाप्त हो जाता है और वह निपट परम्परा ही रह जाती है, तब उसे बदल देना भी उनका कार्य रहा है। आहार-व्यवस्था का वह रूप ऋषिराय के युग तक ही चालू रहा। उस समय तक साध्वियों की संख्या साधुओं से कहीं अधिक हो चुकी थी, अतः पूर्व व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता अनुभूत की जाने लगी। अवशिष्ट आहार-ग्रहण की पद्धति को संविभाग नहीं कहा जा सकता। जयाचार्य साम्यभाव के प्राण-प्रतिष्ठापक थे, उनकी सूक्ष्म-ग्रहणी दृष्टि से वह 'असाम्य' कैसे ओझल रह सकता था। पुस्तकों आदि के साम्य की तरह वे उसमें भी साम्य लाना चाहते थे। अपने शासन-काल के प्रथम वर्ष में ही उन्होंने उस विषय पर चिंतन किया और संविभाग स्थापित करने के लिए सोचा।

*कवलानुसारी विभाग*

विक्रम सम्वत् 1909 का चतुर्मास सम्पन्न कर जयाचार्य जयपुर से जोबनेर पधारे। वहां 67 'ठाणे' एकत्रित हुए। एक महीना विराजकर वहां से किशनगढ़ पधारे। आहार-संविभाग सम्बन्धी अपनी योजना को उन्होंने वहीं से कार्यरूप में परिणत करने का निर्णय किया। आगम में पुरुष के लिए बत्तीस कवल और स्त्री के लिए अट्ठाइस कवल आहार परिपूर्ण बतलाया गया। उसी आधार पर मर्यादा बनाकर साधु-साध्वियों को बतलाया गया कि अब से जो आहार आए, उसे प्रति साधु के लिए बत्तीस कवल और प्रति साध्वी के लिए अट्ठाईस कवल को इकाई मानकर विभक्त कर लिया जाए। तब से जो आहार आता, उसे उपर्युक्त अनुपात से साधु विभक्त कर देते और साध्वियां अपने विभाग का आहार लेकर बड़ी साध्वी के स्थान पर दीक्षा-वृद्ध के क्रम से परस्पर विभक्त कर लिया करतीं।

उस शीतकाल में यह क्रम चलता रहा, पर कवल के अनुपात से आहार को प्रतिदिन विभक्त करना सहज कार्य नहीं था। दर्शन के लिए आने तथा फिर विहार करने से साधु-साध्वियों की संख्या में परिवर्तन आता रहता था। याचना से गृहीत आहार के प्रमाण में भी प्रतिदिन अन्तर आना प्रायः निश्चित और स्वाभाविक ही था। इससे प्रायः प्रतिदिन ही नये सिरे से गणना करके ठीक अनुपात निकालना पड़ता था। आहार संविभाग की नई योजना का वह प्रथम प्रयोग था, अतः उसमें अनेक कमियों का होना कोई बड़ी बात नहीं थी।

*श्रीमद् जयाचार्य द्वारा आहार-संविभाग के लिए किए गए अन्य प्रयोगों...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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प्रस्तुति : 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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*समण संस्कृति संकाय*
*जैन विश्व भारती*

🌻 संघ संवाद* 🌻

sss.jvbharati.org


📍नवीन सूचना .....

दिनांक : 30/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻


🛐 *"चौबीसी" क्रमांक* : ६

🔊 *"पद्म प्रभु स्तवन"*
https://youtu.be/Aajj2NVWnMA
🙏 *रचना : श्रीमद जयाचार्य*

🎙️ *स्वर : श्रीमती बबिता गुनेचा, कोयम्बटूर*

संप्रसारक :
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रचना : श्रीमद जयाचार्य स्वर : श्रीमती बबिता गुनेचा, कोयम्बटूर संप्रसारक : https://www.youtube.com/channel/UC0dyEH1ZPzOwv9QIdvfMjcQ 🌻 *संघ संवाद* 🌻


🙏 *वंदे गुरुवरम्* 🙏
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आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)

दिनांक : 30/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻


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